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जानिए आपकी जन्मकुंडली से की आप किस क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण करेंगे और क्या करेंगें काम –
♦ भारत में अधिकांश शिक्षा बोर्ड के परिणाम आ चुके हैं। युवा विद्यार्थी के साथ साथ उनके परिजनों को भी चिंता होती हैं की आगे किस क्षेत्र में शिक्षा दिलवाना उचित रहेगा। यह कोई चिंता का कठिन विषय नहीं हैं। यदि आप किसी योग्य एवम् अनुभवी विद्वान् ज्योतिषाचार्य से इस सम्बन्ध में सलाह ले तो वह आपको समुचित मार्गदर्शन दे सकता है। हमारे वेदिक ज्योतिष द्वारा किसी भी जातक की जन्म कुंडली में बने ग्रह-नक्षत्रों के योगों के आधार पर यह जाना जा सकता है की किस क्षेत्र में शिक्षा या प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद आपको अच्छी नौकरी मिल सकती है।
♦ पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री से जानिए इस विषय से सम्बंधित ज्योतिष के कुछ योगों को और स्वयं मिलाये अपनी जन्मपत्री। आप खुद जान जाएंगे की आप कौन से क्षेत्रों में सफल होंगे।
♦ यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा जल तत्व की राशि में हो कर पाप ग्रहों शनि, राहु, केतु, सूर्य या मंगल से दृष्ट हो तथा बलवान गुरु दशम या लग्न को प्रभावित करें तो व्यक्ति चिकित्साह बन सकता है। चन्द्रमा और शुक्र या चन्द्रमा और बुध यदि मिलकर लग्न को देखें तो व्यक्ति चिकित्साह के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। इन योगों के साथ साथ बलवान मंगल और राहु व्यक्ति को कुशल शल्य चिकित्सा बनाता है।
♦जब कुंडली में शुक्र और चन्द्रमा शुभ ग्रहों की राशि में हो कर पंचम भाव से सम्बंधित हो तो व्यक्ति कला विषयों की शिक्षा लेता है। इसके साथ कुंडली में तीसरे और दसवें भाव का सम्बन्ध शुभ ग्रहों से बन जाये तो जातक को संगीत, कला, मनोरंजन, एक्टिंग आदि के क्षेत्र में कैरियर बनाने का अवसर मिलता है। पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार कला के क्षेत्र में अच्छे कैरियर के लिए जन्म लग्न और नवमांश लग्न पर शुभ ग्रहों का प्रभाव परमावश्यक है।
♦ जब किसी कुंडली में बलवान शनि, मंगल, सूर्य या राहु-केतु का संबंध पंचम और दशम भाव से बन जाये तो व्यक्ति इंजीनियरिंग में कैरियर बना सकता है पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार जब केतु , बुध और मंगल का पंचम भाव से सम्बन्ध कम्प्यूटर, सूचना तकनीक , दूरसंचार, इलेक्ट्रॉनिक आदि क्षेत्रों में जातक को कैरियर बनाने का अवसर प्रदान करता है।
♦ जब किसी जातक की कुंडली में सूर्य और मंगल का संबंध लग्न, तीसरे, छठे या दशम भाव से है तो व्यक्ति पुलिस, अर्धसैनिक बल, सेना, खेल-कूद आदि के क्षेत्रों में अपनी मेहनत से कैरियर बना सकता है।
♦ जब कुंडली में मंगल, गुरु और शनि का संबंध पांचवें, छठे, नवम और दशम भाव से बनते हों तो व्यक्ति कानून की पढाई के बाद अच्छे वकील बन सकते हैं।
♦ पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार इस योग में यदि गुरु विशेष बलवान हो तो व्यक्ति जज भी बन सकता है।
♦ यदि किसी कुंडली में बलवान गुरु और बुध का संबंध यदि पांचवें, तीसरे और दसवें भाव से है तो व्यक्ति लेखन कार्य में कुशल होता है। ऐसा व्यक्ति पत्रकार या स्वतंत्र लेखन कार्य कर अपनी आजीविका कमा सकता है। पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार इस योग में यदि शुक्र और चन्द्रमा विशेष बलवान होकर जन्म लग्न या कारकांश लग्न से दशम भाव को देखें तो व्यक्त टीवी पत्रकार या एंकर बन कर खूब नाम कमा सकता है।
by Pandit Dayanand Shastri.
आइये जाने और समझे देवगुरु वृहस्पति का व्यवसाय और वास्तु से सम्बन्ध-
बृहस्पति सबसे बड़ा और शुभ ग्रह है। अगर बृहस्पति बलवान हो तो अन्य ग्रहों की स्थिति ठीक न रहने पर भी अहित नही होता। ग्रह निर्बल हो तो उसके प्रतीकों का उपयोग करना चाहिए। प्रतीकात्कामक वास्तुशास्त्र का भी यही सिद्धांत है।
जिसका बृहस्पति बलवान होता है उसका परिवार समाज एवं हर क्षेत्र में प्रभाव रहता है। बृहस्पति बलवान होने पर शत्रु भी सामना होते ही ठंडा हो जाता है। बृहस्पति प्रधान व्यक्ति को सामने देखकर हमारे हाथ अपने आप उन्हें नमस्कार करने के लिए उठ जाते है। बृहस्पति व्यक्ति कभी बोलने की शुरूआत पहले नही करते यह उसकी पहचान है। निर्बल बृहस्पति व्यक्ति का समाज एवं परिवार में प्रभाव नही रहता। बृहस्पति प्रधान व्यवसाय करने वाले को बृहस्पति के प्रतीक धारण करने चाहिए।
बृहस्पति के प्रतीक अन्य सभी ग्रहों के प्रतीकों से अधिक शक्तिशाली है कर्मकांडी ब्राम्हण को लोग दादा कहते है। बाप का भी बाप बनाते है। उन्होने मस्तक पर बृहस्पति के प्रतीक तिलक, हाथों में भागवत तथा अन्य धाार्मिक पुस्तकें,मुख में मन्त्र – श्लोक एवं कंधें पर जनेऊ धारण की हुइ होती है।
बृहस्पति के ऐसे प्रतीक धारण करने से ब्राम्हण का बृहस्पति अधिक बलवान होता है, इसी कारण लोग उनका वंदन करते है। बस में यात्रा करते समय यदि आप माथे पर तिलक लगाकर कोई धार्मिक किताब हाथ में रखें तो कंडक्टर भी धीमें स्वर में आपसे टिकट के लिए पूछेगा। ट्रेन या बस द्वारा यात्रा करते समय यदि आप कहे कि मैं हाथ देखता हूं या मैं हस्तरेखा विशेषज्ञ हूं तो आपको अपने आप बैठने के लिए जगह मिल जाएगी। ज्योतिष विद्या बृहस्पति की प्रतीक है।
बृहस्पति के ऐसे प्रतीको का प्रयोग करने से सब लोग आप से नम्रता के साथ पेश आएंगे। पुखराज बुहस्पति के अनेक प्रतीको में से एक है। जिसका बुहस्पति निर्बल है वे ही पुखराज धारण करें। असली पुखराज तो दुर्लभ एवं महंगा है, इसलिए बृहस्पति के अन्य प्रतीक धारण करने से भी बृहस्पति प्रबल बन जाता है। हाथ की कलाई पर पीले रंग का धागा बांधने से भी बृहस्पति बलवान बनेगा। पीला धागा व रत्न भी बृहस्पति के प्रतीक है, उन्हें धारण किया जा सकता है। पीला वस्त्र,पीला रंग, पीला तिलक, रूद्राक्ष की माला, ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र के ग्रंथ,सब बृहस्पति के प्रतीक है। इनका उपयोग करने से बृहस्पति बलवान बनता है।
न्यायाधीश,वकील,तालुका,मेजिस्ट्रेट,ज्योतिषी,ब्राम्हण,बृहस्पति,धर्मगुरु,शिक्षक,सन्यासी,पिता,चाचा, नाना व्यक्ति इत्यादि बृहस्पति के प्रतीक हैं तो ज्योतिष,कर्मकांड, शेयर बाजार,शिक्षा,शिक्षा से संबंधित किताबों का व्यवसाय,धार्मिक किताबों और चित्रों का व्यवसाय,वकालत, शिक्षा संस्थाओं का संचालन इत्यादि बृहस्पति के प्रतीक रूप व्यवसाय है। इनमें सफलता प्राप्त करने के लिए बृहस्पति प्रतीकों का उपयोग करना चाहिए।
चना दाल,शक्कर,खांड,हल्दी,घी,नमक,बृहस्पति की प्रतीक रूप च संस्कृत बृहस्पति की प्रतीक भाषा है। इशान्य या उत्तर बृहस्पति की दिशाएं है। शरीर में जांघ बृहस्पति का प्रतीक है। मंदिर मस्जिद,गुरूद्वार,चर्च बृहस्पति के प्रतीक है। बृहस्पति का रंग पीला है। घर की तिजोरी में बृहस्पति का वास है। बृहस्पति अर्थतंत्र का कारक है। ज्योतिषशास्त्र खजाने को बृहस्पति का प्रतीक मानता है। तिजोरी का स्थान,बैलेन्स देखकर कर्ता की कुंडली में स्थित बृहस्पति का आभास मिल जाता है। घर में रखे धर्मग्रंथ देखने से भी व्यक्ति के बृहस्पति का अंदाजा मिल जाता है।
♦ ध्यान रखें, बैंक मैनेजर,कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर आदि बृहस्पति के प्रतीक है। फाइनेंस कंपनी, अर्थ मंत्रालय भी बृहस्पति के प्रतीक है।
♦ फाइनांस या वित्तीय संस्थाएं:-
♦ बैंक एवं फाइनांस कंपनी पर बृहस्पति का आधिपत्य है। इसलिए प्रधान जगहों पर इन संस्थाओं का कार्यालय हो तो वह प्रतीक वास्तुशास्त्र के अनुसार उचित होगा। वित्तीय संस्थाओं के साथमें मंदिर,धर्मस्थान,धर्मगुरू का आश्रम हो तो कंपनीयों का लेन देन सुचारू रूप से चलता है। तिरूपति बालाजी के देव स्थान में आंध्र व विजया बैंक कार्यरत है। ये बैंक बालाजी का प्रसाद एवं दर्शन के प्रवेश पत्र बेचते हैं। इन दोनों बैकों का लेनदेन बहुत ही सुचारू रूप से चलता है।
♦ वित्तीय कंपनीयों को अपने ऑफिस की स्टेशनरी हंमेशा उत्तर दिशा में रखनी चाहिए। स्टेशनरी बुध ग्रह का प्रतीक है। और बुध की प्रतीक दिशा उत्तर है।
♦ वे सभी कंपनीयां जो आर्थिक लेन देन करती हैं, उन्हें अपनेे कार्यालयों की दीवारों का रंग पीला या हरा होना चाहिए। हरा रंग बुध और पीला रंग बृहस्पति का प्रतीक है। बैंक भी बृहस्पति का प्रतीक है।
♦ वित्तीय कंपनीयों के कार्यालयों में महान व्यक्तियों तथा धर्मगुरूओं के चित्र अवश्य लगाने चाहिए।
♦ लॉकर्स बैंक के ईशान्य में लगवाए जाएं।
♦ दुकान में कैश काउंटर उत्तर दिशा में या उत्तरोन्मुखी रखें।
by Pandit Dayanand Shastri.
हनुमानजी – भक्ति और शक्ति का बेजोड़ संगम
जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते है। कभी कोई विरोधी परेशान करता है तो कभी घर के किसी सदस्य को बीमार घेर लेती है। इनके अलावा भी जीवन में परेशानियों का आना-जाना लगा ही रहता है। ऐसे में हनुमानजी की आराधना करना ही सबसे श्रेष्ठ है।
हनुमानजी को भक्ति और शक्ति का बेजोड़ संगम बताया गया है। हनुमानजी का शुमार अष्टचिरंजीवी में किया जाता है, यानी वे अजर-अमर देवता हैं। उन्होंने मृत्यु को प्राप्त नहीं किया। बजरंगबली की उपासना करने वाला भक्त कभी पराजित नहीं होता। रामकथा में हनुमान के चरित्र में हम जीवन के सूत्र हासिल कर सकते हैं। वीरता, साहस, सेवाभाव, स्वामिभक्ति, विनम्रता, कृतज्ञता, नेतृत्व और निर्णय क्षमता जैसे हनुमान के गुणों को अपने भीतर उतारकर हम सफलता के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। हनुमान जी अपार बलशाली और वीर है, तो विद्वता में भी उनका सानी नहीं है। फिर भी उनके भीतर रंच मात्र भी अहंकार नहीं। आज के समय में थोड़ी शक्ति या बुद्धि हासिल कर व्यक्ति अहंकार से भर जाता है, किंतु बाल्यकाल में सूर्य को ग्रास बना लेने वाले हनुमान राम के समक्ष मात्र सेवक की भूमिका में रहते हैं। वह जानते हैं कि सेवा ही कल्याणकारी मंत्र है। बल्कि जिसने भी अहंकार किया, उसका मद हनुमान जी ने चूर कर दिया।
सीता हरण के बाद न सिर्फ तमाम बाधाओं से लड़ते हुए हनुमान समुद्र पार कर लंका पहुंचे, बल्कि अहंकारी रावण का मद चूर-चूर कर दिया। जिस स्वर्ण-लंका पर रावण को अभिमान था, हनुमान ने उसे ही दहन कर दिया। यह रावण के अहंकार का प्रतीकात्मक दहन था। अपार बलशाली होते हुए भी हनुमान जी के भीतर अहंकार नहीं रहा। जहां उन्होंने राक्षसों पर पराक्रम दिखाया, वहीं वे श्रीराम, सीता और माता अंजनी के प्रति विनम्र भी रहे। उन्होंने अपने सभी पराक्रमों का श्रेय भगवान राम को ही दिया।
महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण हिंदू धर्म का गौरव है। इस ग्रंथ में भगवान श्रीराम के साथ ही रुद्र अवतार वानरश्रेष्ठ हनुमान के पराक्रम का भी अद्भुत वर्णन है। हनुमान को भक्तशिरोमणि भी कहा जाता है। भगवान शंकर का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। हनुमानजी के जीवन चरित्र से हमें अनेक शिक्षाएं भी मिलती हैं।
शिव का यह अवतार बल, बुद्धि विद्या, भक्ति व पराक्रम का श्रेष्ठ उदाहरण है। हनुमान अवतार से हमें यह सीख लेनी चाहिए कि यदि आप अपनी क्षमता को पहचानें तो सब कुछ संभव है। जिस तरह हनुमान ने अपनी क्षमता को जानकर समुद्र पार किया था उसी तरह हम भी अपने अंदर की क्षमता को पहचानें तथा कठिन से कठिन लक्ष्य को भी भेदने का साहस रखें।
हनुमान को भगवान राम का सेवक, मित्र, भाई, हितेषी तथा सच्चा भक्त कहा जाता है क्यूंकि जब भी भगवान श्रीराम पर कोई संकट आया तब हनुमानजी ने उन्हें बचाया तथा अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया। धर्म के पथ पर चलते हुए श्रीराम का साथ हनुमान ने दिया था ।
हनुमानजी का जन्म सूर्योदय के समय बताया गया है, इसलिए इसी काल में उनकी पूजा-अर्चना और आरती का विधान है।
कन्या, तुला, वृश्चिक और अढैया शनि वाले तथा कर्क, मीन राशि के जातकों को हनुमान जयंती पर विशेष आराधना करनी चाहिए।
भक्तों की मन्नत पूर्ण करने वाले पवनपुत्र हनुमान के जन्मोत्सव पर इनकी पूजा का बड़ा महातम्य होता है l आस्थावान भक्तों का मानना है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक केसरीनंदन की पूजा करता है तो प्रभु उसके सभी अनिष्टों को दूर कर देते हैं और उसे सब प्रकार से सुख, समृद्धि और एश्वर्य प्रदान करते हैं ।
इस दिन हनुमानजी की पूजा में तेल और लाल सिंदूर चढ़ाने का विधान है। हनुमान जयंती पर कई जगह श्रद्धालुओं द्वारा झांकियां निकाली जाती है, जिसमें उनके जीवन चरित्र का नाटकीय प्रारूप प्रस्तुत किया जाता है ।
यदि कोई इस दिन हनुमानजी की पूजा करता है तो वह शनि के प्रकोप से बचा रहता है l मारुतिनंदन को चोला चढ़ाने से जहां सकारात्मक ऊर्जा मिलती है वहीं बाधाओं से मुक्ति भी मिलती है।
पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि हनुमानजी को प्रसन्न करने के लिए शनि को शांत करना चाहिए। जब हनुमानजी ने शनिदेव का घमंड तोड़ा था तब सूर्यपुत्र शनिदेव ने हनुमानजी को वचन दिया कि उनकी भक्ति करने वालों की राशि पर आकर भी वे कभी उन्हें पीड़ा नहीं देंगे।
भारतीय-दर्शन में सेवा भाव को सर्वोच्च स्थापना मिली हुई है, जो हमें निष्काम कर्म के लिए प्रेरित करती है। इस सेवाभाव का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। केसरी और अंजनी के पुत्र महाबली हनुमान। हनुमान जी ने ही हमें यह सिखाया है कि बिना किसी अपेक्षा के सेवा करने से व्यक्ति सिर्फ भक्त ही नहीं, भगवान बन सकता है। हनुमान जी का चरित्र रामकथा में इतना प्रखर है कि उसने राम के आदर्र्शो को गढ़ने में मुख्य कड़ी का काम किया है।
♦आप यहाँ पर देख एवं पढ़ सकते हैं–हनुमान चालीसा,हनुमान बाहुक,हनुमान आरती,बजरंग बाण,संकट मोचन हनुमानअष्टक,हनुमान स्त्रोत,हनुमान मन्त्र।
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जानिए कैसे हुआ हनुमान का जन्म-
भगवान शंकर के ग्यारवें अवतार हनुमान की पूजा पुरातन काल से ही शक्ति के प्रतीक के रूप में की जा रही है । हनुमान के जन्म के संबंध में धर्मग्रंथों में कई कथाएं प्रचलित हैं ।
उसी के अनुसार —भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया । सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के गर्भ में पवनदेव द्वारा स्थापित करा दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए l इसीलिए हनुमानजी को “शंकर-सुवन”…. “पवन-पुत्र”…. और “केसरी-नंदन” कहा जाता है ।
हनुमानजी सब विद्याओं का अध्ययन कर पत्नी वियोग से व्याकुल रहने वाले सुग्रीव के मंत्री बन गए । उन्होंने पत्नी हरण से खिन्न व माता सीता की खोज में भटकते रामचंद्रजी की सुग्रीव से मित्रता कराई । सीता की खोज में समुद्र को पार कर लंका गए और वहां उन्होंने अद्भुत पराक्रम दिखाए ।
हनुमान ने राम-रावण युद्ध ने भी अपना पराक्रम दिखाया और संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण के प्राण बचाए । यही रावण को मारकर लक्ष्मण व राम को बंधन से मुक्त कराया । इस प्रकार हनुमान अवतार लेकर भगवान शिव ने अपने परम भक्त श्रीराम की सहायता की….
ऐसी मान्यता है कि हनुमानजी जयंती के दिन ही भगवान राम की सेवा करने के उद्देश्य से भगवान शंकर के ग्यारहवें रूद्र ने वानरराज केसरी और अंजना के घर पुत्र रूप में जन्म लिया था l यह त्यौहार पूरे भारतवर्ष में श्रद्धा व उल्लास के साथ मनाई जाती है ।
हनुमानजी जयंती एक हिन्दू पर्व है। यह चैत्र माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन हनुमानजी का जन्म हुआ ऐसा माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि चैत्र मास की पूर्णिमा को ही राम भक्त हनुमानजी ने माता अंजनी के गर्भ से जन्म लिया था। यह व्रत हनुमानजी की जन्मतिथि का है। प्रत्येक देवता की जन्मतिथि एक होती है, परंतु हनुमानजी की दो मनाई जाती हैं। हनुमानजी की जन्मतिथि को लेकर मतभेद है। कुछ हनुमान जयंती की तिथि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी मानते है तो कुछ चैत्र शुक्ल पूर्णिमा। इस विषय में ग्रंथों में दोनों के ही उल्लेख मिलते है , किंतु इनके कारणों में भिन्नता है। पहला जन्मदिवस है और दूसरा विजय अभिनन्दन महोत्सव।
- इन मन्त्रों के प्रयोग द्वारा पाएं लाभ—
- कई प्रकार के कष्टों से मुक्तिदाता मंत्र :—
यदि आप चाहते हैं कि आपके जीवन में कोई संकट न आए तो नीचे लिखे मंत्र का जप हनुमान जयंती के दिन करे। प्रति मंगलवार को भी इस मंत्र का जाप कर सकते है।
♦ ऊँ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रु संहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा
♦ ॐ आन्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि, तन्नो हनुमत प्रचोदयात||
♦ ॐ हरी ॐ नमो भगवते आंजनेय महाबले नम: ||
ॐ नम: वज्र का कोठा | जिसमे पिंड हमारा पेठा || इश्वर कुंजी | ब्रह्म का ताला || मेरे आठों याम का यती | हनुमंत रखवाला ||
इस मन्त्र का नित्य नियम पूर्वक 11 बार करे l इन मन्त्रों को नियमित रूप से जपने से सब प्रकार की बाधा समाप्त हो जाती हे !
⇒ यह हैं जप विधि-
♦सुबह जल्दी उठकर सर्वप्रथम स्नान आदि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ वस्त्र पहने।
♦ इसके बाद अपने माता-पिता, गुरु, इष्ट व कुल देवता को नमन कर कुश का आसन ग्रहण करें।
♦पारद हनुमानजी प्रतिमा के सामने इस मंत्र का जाप करेंगे तो विशेष फल मिलता है।
♦जाप के लिए लाल हकीक की माला का प्रयोग करें।
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हनुमान के बारह नाम नित्य लेने वाला व्यक्ति कई गुणों से युक्त हो जाता हे |
जो सुबह नाम लेता हे वो आरोगी रहता हे | जो दोपहर में नाम लेता हे वो लक्ष्मी वान होता हे | रात्रि के समय नाम लेने वाला शत्रु विजय होता हे |
इसके इलावा कही भी कभी भी इन 12 नामों को लेने वाले की हनुमानजी आकाश धरती पाताल तीनो जगहों पर रक्षा करते हे—
१)जय श्री हनुमान
२)जय श्री अंजनी सूत
३)जय श्री वायु पुत्र
४)जय श्री महाबल
५)जय श्री रामेष्ट
६)जय श्री फाल्गुन सख
७ )जय श्री पिंगाक्ष
८)जय श्री अमित विक्रम
९)जय श्री उद्द्दी कमन
१०)जय श्री सीता शोक विनाशन
११)जय श्री लक्ष्मण प्राणदाता
१२)जय श्री दस ग्रीव दर्पहा
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यह भी जानिए—-===भक्ति के महाद्वार हैं हनुमान——
विश्व-साहित्य में हनुमानजी के सदृश पात्र कोई और नहीं है हनुमानजी एक ऐसे चरित्र हैं जो सर्वगुण निधान हैं। अप्रतिम शारीरिक क्षमता ही नहीं, मानसिक दक्षता तथा सर्वविधचारित्रिक ऊंचाइयों के भी यह उत्तुंग शिखर हैं। इनके सदृश मित्र, सेवक ,सखा, कृपालु एवं भक्तिपरायणको ढूंढना असंभव है। हनुमानजी के प्रकाश से वाल्मीकि एवं तुलसीकृतरामायण जगमग हो गई। हनुमानजी के रहते कौन सा कार्य व्यक्ति के लिए कठिन हो सकता है?
” दुर्गम काज जगत के जेते।सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥ “
♦अगर किसी कष्ट से ग्रस्त है , किसी समस्या से पीडित हैं, कोई अभाव आपको सता रहा है तो देर किस बात की! हनुमान को पुकारिए, सुंदर कांड का पाठ कीजिए, वह कठिन लगे तो हनुमान-चालीसा का ही परायण कीजिए और आप्तकाम हो जाइए। हनुमान जी की प्रमुख विशेषताओं को गोस्वामी ने इन चार पंक्तियों में समेटने का प्रयास किया है-
” अतुलित बलधामं हेमशैलाभ देहंदनुज वन कृशानुं ज्ञानिनाम ग्रगण्यम्।
सकल गुण निधानं वानरणाम धीशंरघुपति प्रियभक्तं वात जातं नमामि।।”
सदृश विशाल कान्तिमान् शरीर, दैत्य (दुष्ट) रूपी वन के लिए अग्नि-समान, ज्ञानियो में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के खान, वानराधिपति,राम के प्रिय भक्त पवनसुत हनुमानजी का मैं नमन करता हूं।अब ढूंढिए ऐसे चरित्र को जिसमें एक साथ इतनी विशेषताएं हो। जिसका शरीर भी कनक भूधराकार हो, जो सर्वगुणोंसे सम्पन्न भी हो, दुष्टों के लिए दावानल भी हो और राम का अनन्य भक्त भी हो। कनक भूधराकारकी बात कोई अतिशयोक्ति नहीं, हनुमानजी के संबंध में यह यत्र-तत्र-सर्वत्र आई है।
” आंज नेयं अति पाटला ननम्कांचना द्रिकम नीय विग्रहम्।
पारिजात तरुमूल वासिनम्भावयामि पवन नन्दनम्॥”
अंजना पुत्र,अत्यन्त गुलाबी मुख-कान्ति तथा स्वर्ण पर्वत के सदृश सुंदर शरीर, कल्प वृक्ष के नीचे वास करने वाले पवन पुत्र का मैं ध्यान करता हूं। पारिजात वृक्ष मनोवांछित फल प्रदान करता है। अत:उसके नीचे वास करने वाले हनुमान स्वत:भक्तों की सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के कारक बन जाते हैं। आदमी तो आदमी स्वयं परमेश्वरावतार पुरुषोत्तम राम के लिए हनुमान जी ऐसे महापुरुष सिद्ध हुए कि प्रथम रामकथा-गायक वाल्मीकि ने राम के मुख से कहलवा दिया कि तुम्हारे उपकारों का मैं इतना ऋणी हूं कि एक-एक उपकार के लिए मैं अपने प्राण दे सकता हूं, फिर भी तुम्हारे उपकारों से मैं उऋण कहां हो पाउंगा?
” एकै कस्यो पकार स्यप्राणान्दा स्यामि तेकपे ।
शेष स्येहो पकाराणां भवाम ऋणि नोवयम् । “
उस समय तो राम के उद्गार सभी सीमाओं को पार कर गए जब हनुमानजी के लंका से लौटने पर उन्होंने कहा कि हनुमान जी ने ऐसा कठिन कार्य किया है कि भूतल पर ऐसा कार्य सम्पादित करना कठिन है, इस भूमंडल पर अन्य कोई तो ऐसा करने की बात मन में सोच भी नहीं सकता।
” कृतं हनूमता कार्य सुमह द्भुवि दुलर्भम् ।
मनसा पिय दन्ये नन शक्यं धरणी तले ॥ “
गोस्वामी जी हनुमान जी के सबसे बडे भक्त थे। वाल्मीकि के हनुमान की विशेषताओं को देखकर वह पूरी तरह उनके हो गए। हनुमान के माध्यम से उन्होंने राम की भक्ति ही नहीं प्राप्त की, राम के दर्शन भी कर लिए। हनुमान ने गोस्वामी की निष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें वाराणसी में दर्शन दिए और वर मांगने को कहा। तुलसी को अपने राम के दर्शन के अतिरिक्त और क्या मांगना था? हनुमान ने वचन दे दिया।
राम और हनुमान घोडे पर सवार, तुलसी के सामने से निकल गए हनुमानजी ने देखा उनका यह प्रयास व्यर्थ गया। तुलसी उन्हें पहचान ही नहीं पाए। हनुमान जी ने दूसरा प्रयास किया। चित्रकूट के घाट पर वह चंदन घिस रहे थे कि राम ने एक सुंदर बालक के रूप में उनके पास पहुंच कर तिलक लगाने को कहा। तुलसीदास फिर न चूक जाएं अत:हनुमान को तोते का रूप धारण कर ये प्रसिद्ध पंक्तियां कहनी पडी…..
” चित्रकूट के घाट पर भई संतनकी भीर।
तुलसीदास चन्दन रगरैतिलक देतराम रघुबीर॥ “
हनुमान जी ने मात्र तुलसी को ही राम के समीप नहीं पहुंचाया। जिस किसी को भी राम की भक्ति करनी है, उसे प्रथम हनुमान जी की भक्ति करनी होगी। राम हनुमानजी से इतने उपकृत है कि जो उनको प्रसन्न किए बिना ही राम को पाना चाहते हैं उन्हें राम कभी नहीं अपनाते। गोस्वामी ने ठीक ही लिखा हैं—
” राम दुआरेतुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनुपैसारे॥”
अत:हनुमान जी भक्ति के महाद्वारहैं। राम की ही नहीं कृष्ण की भी भक्ति करनी हो तो पहले हनुमान को अपनाना होगा। यह इसलिए कि भक्ति का मार्ग कठिन है। हनुमान इस कठिन मार्ग को आसान कर देते हैं, अत:सर्वप्रथम उनका शरणागत होना पडता है।
भारत में कई ऐसे संत व साधक हैं जिन्होंने हनुमान जी की कृपा से अमरत्व को प्राप्त कर लिया। रामायण में राम और सीता के पश्चात सर्वाधिक लोकप्रिय चरित्र है हनुमान जिनके मंदिर भारत ही नहीं भारत के बाहर भी अनगिनत संख्या में निर्मित हैं। धरती तो धरती तीनों लोकों में इनकी ख्याति है—
” जय हनुमान ज्ञान गुण सागर। जय कपीसतिहूंलोक उजागर॥ “
♦हनुमान बाहुक तुलसीदास जी के द्वारा रचित एक स्तोत्र हे जो आरोग्यता प्रदान करता हे||
इसे रचने के पीछे की कहानी यह है—
ये घटना तब की हे जब तुलसीदास जी लंका काण्ड की रचना कर चुके थे उसके बाद वो बहुत बीमार हो गए अपने आप को किसी असाध्य रोग से पीड़ित जान कर उन्होंने हनुमानजी की स्तुति की और मोन वृत आवाज़ में जो बोल उनके मुह से निकले वो हनुमान बाहुक के रूप में जाने जाते हे कोई भी बीमार य उसका सम्बन्धी इस स्तोत्र का पाठ करे तो वो रोगी आरोगी हो जाता हे कई असाध्य रोगो में भी इसकी उपयोगिता देखी गई है |
♦ हनुमानजी ने एक बार माता सीता को सिंदूर लगते हुए देखा और कहा की माता आप ये क्या कर रही हे..???? तो माता सीता ने उनसे कहा की सिंदूर लगा रही हु, तब हनुमान जी ने कहा की इसके लगाने से क्या होता हे?? तब माता सीता ने कहा की श्री राम प्रसन्न होते हे, तब हनुमान ने कहा की माता ने तो बस एक अपने मस्तक पर ही लगाया हे मै तो पुरे शरीर पर लगा लूँगा और प्रभु मुझसे कितना प्रसन्न हो जायेंगे उन्होंने अपने शरीर पर सिंदूर ही सिंदूर लगा लिया और राम दरबार में पंहुच गए उनकी हालत देख कर सब दरबारी हंसने लगे जब श्री राम को सारी बात पता चली तो उन्होंने कहाकि में तुम्हारे इस अगाध प्रेम को स्वीकार कर के ये वरदान देता हु की जो भी तुम्हे सिंदूर क अर्पण करेगा वो सदेव मेरी कृपा क पात्र रहेगा |
हनुमानजी के नाम स्मरण मात्र से भूत प्रेत की बाधा तो छूट ती ही है अपितु भगवन हनुमान जी को श्रीराम ने वरदान दिया की जब तलक चन्द्र सूरज जमी पे रहे तब तलक तुम अमर हो पवन के सुवन |
हमारे शास्त्र कहते है की कुछ महा विभूति अब भी इस जमी पर है जो की अमर है कई भाग्य शाली इंसानों को उनके दर्शन भी हुए है ! जो अमर है उनका नाम हैं असितो,देवलो, व्यास, अंगद, विभिसन ,भार्तिहरी हनुमान जी,अशव्स्थामा,विदुर.,नारद, ये महात्मा अभी तक अमर है |
ll पवन-सुत हनुमान की जय….ll
ll वीर बजरंग बलि की जय….ll
आइये जाने शुक्र ग्रह का प्रभाव, महत्त्व एवम् अन्य ग्रहों से बनी युति के प्रभाव और लाभ को तथा अशुभ शुक्र के उपायों को –
भारतीय वेदिक ज्योतिष के अनुसार आकर्षण और प्रेम वासना का प्रतीक शुक्र ग्रह नक्षत्रों के प्रभाव से व्यक्ति समाज पशु पक्षी और प्रकृति तक प्रभावित होते हैं। ग्रहों का असर जिस तरह प्रकृति पर दिखाई देता है ठीक उसी तरह मनुष्यों पर सामान्यतः यह असर देखा जा सकता है। आपकी कुंडली में ग्रह स्थिति बेहतर होने से बेहतरफल प्राप्त होते हैं। वही ग्रह स्थिति अशुभ होने की दशा में अशुभफल भी प्राप्त होते हैं। बलवान ग्रह स्थिति स्वस्थ सुंदर आकर्षण की स्थितियों का जन्मदाता बनती है तो निर्बल ग्रह स्थिति शोक संताप विपत्ति की प्रतीक बनती है। लोगों के मध्य में आकर्षित होने की कला के मुख्य कारक शुक्र जी है। कहा जाता है कि शुक्र जिसके जन्मांश लग्नेश केंद्र में त्रिकोणगत हो वह आकर्षक प्रेम सौंदर्य का प्रतीक बन जाता है। यह शुक्र जी क्या है और बनाने व बिगाडने में माहिर शुक्र जी का पृथ्वी लोक में कहा तक प्रभाव है ।
बृहद पराशर होरा शास्त्र में कहा गया है की-
सुखीकान्त व पुः श्रेष्ठः सुलोचना भृगु सुतः। काब्यकर्ता कफाधिक्या निलात्मा वक्रमूर्धजः।
तात्पर्य यह है कि शुक्र बलवान होने पर सुंदर शरीर, सुंदर मुख, अतिसुंदर
नेत्रों वाला, पढने लिखने का शौकीन कफ वायु प्रकृति प्रधान होता है।
♦ शुक्र के अन्य नामः-
भृगु, भार्गव, सित, सूरि, कवि, दैत्यगुरू, काण, उसना, सूरि, जोहरा (उर्दू
का नाम) आदि हैं।
♦ शुक्र का वैभवशाली स्वरूपः-
♦ यह ग्रह सुंदरता का प्रतीक, मध्यम शरीर, सुंदर विशाल नेत्रों वाला, जल तत्व प्रधान, दक्षिण पूर्व दिशा का स्वामी, श्वेत वर्ण, युवा किशोर अवस्था का प्रतीक है। चर प्रकृति, रजोगुणी, स्वार्थी , विलासी भोगी, मधुरता वाले स्वभाव के साथ चालबाज, तेजस्वी स्वरूप, श्याम वर्ण केश और स्त्रीकारक ग्रह है। इसके देवता भगवान इंद्र हैं। इसका वाहन भी अश्व है। इंद्र की सभा में अप्सराओं के प्रसंग अधिकाधिक मिलते हैं।
♦ भारतीय वेदिक ज्योतिष में शुक्र ग्रह सप्तम भाव अर्थात दाम्पत्य सुख का कारक ग्रह माना गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शुक्र दैत्यों के गुरु हैं। ये सभी विद्याओं व कलाओं तथा संजीवनी विद्या के भी ज्ञाता हैं। यह ग्रह आकाश में सूर्योदय से ठीक पहले पूर्व दिशा में तथा सूर्यास्त के बाद पश्चिम दिशा में देखा जाता है। यह कामेच्छा का प्रतीक है तथा धातु रोगों में वीर्य का पोषक होकर स्त्री व पुरुष दोनों के जनानांगों पर प्रभावी रहता है।शुक्र ग्रह से स्त्री, आभूषण, वाहन, व्यापार तथा सुख का विचार किया जाता है। शुक्र ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो कफ, बात, पित्त विकार, उदर रोग, वीर्य रोग, धातु क्षय, मूत्र रोग, नेत्र रोग, आदि हो सकते हैं । वेदिक ज्योतिष शास्त्र में शुक्र ग्रह , बुध , शनि व राहु से मैत्री संबंध रखता है। सूर्य व चंद्रमा से इसका शत्रुवत संबंध है। मंगल, केतु व गुरु से सम संबंध है। यह मीन राशि में 27 अंश पर परमोच्च तथा कन्या राशि में 27 अंश पर परम नीच का होता है। तुला राशि में 1 अंश से 15 अंश तक अपनी मूल त्रिकोण राशि तथा तुला में 16 अंश से 30 अंश तक स्वराशि में स्थित होता है। इसका तुला राशि से सर्वोत्तम संबंध, वृष तथा मीन राशि से उत्तम संबंध, मिथुन, कर्क व धनु राशि से मध्यम संबंध, मेष, मकर, कुंभ से सामान्य व कन्या तथा वृश्चिक राशि से प्रतिकूल संबंध है। भरणी, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ नक्षत्र पर इसका आधिपत्य है। यह अपने स्थान से सप्तम भाव पर पूर्ण दृष्टि डालता है। शुक्र जातक को ललित कलाओं, पर्यटन और चिकित्सा विज्ञान से जोड़ता है। जब किसी जातक की कुंडली में शुक्र सर्वाधिक प्रभावकारी ग्रह के रूप मे होता है तो शिक्षा के क्षेत्र में पदाधिकारी, कवि, लेखक, अभिनेता, गीतकार, संगीतकार, वाद्ययंत्रों का निर्माता, शृंगार का व्यवसायी बनाता है। जब यही शुक्र जन्म पत्रिका में सप्तम या 12 वें भाव में वृष राशि में स्थित रहता है तो यह प्रेम में आक्रामक बनाता है। ये दोनों भाव विलासिता के हैं।जब यही शुक्र लग्न में है और शुभ प्रभाव से युक्त है तो व्यक्ति को बहुत सुंदर व आकर्षक बनाता है। शुक्र ग्रह पत्नी का कारक ग्रह है। और जब यही शुक्र ग्रह सप्तम भाव में रहकर पाप प्रभाव में हो और सप्तमेश की स्थिति भी उत्तम न हो तो पत्नी को रुग्ण या आयु की हानि करता है। तीसरे भाव पर यदि शुक्र है और स्वगृही या मित्रगृही हो तो व्यक्ति को दीर्घायु बनाता है। यह भाव भाई का स्थान होने से और शुक्र स्त्रीकारक ग्रह होने से बहनों की संख्या में वृद्धि करता है। जब किसी कुंडली में शुक्र द्वितीय यानी धन व परिवार भाव में उत्तम स्थिति में बैठा है तो व्यापार से तथा स्त्री पक्ष अर्थात ससुराल से आर्थिक सहयोग मिलता है। यदि उत्तम स्थिति में नहीं होता है तो व्यापार मे हानि कराता है तथा ससुराल वाले ही जातक का धन हड़प लेते हैं। 11 वें भाव मे वृष राशिगत शुक्र के बलवान होने से वाहन सुख अच्छा रहता है। शुक्र बारहवें भाव में पापग्रह के साथ हो तो अपनी दशा में धनहानि कराता है।
वेदिक ज्योतिष ग्रंथों में बारहवें स्वस्थ शुक्र की बड़ी महिमा बताई गई है। इस भाव में स्वस्थ शुक्र बड़ी उन्नति प्रदान करता है। साथ ही शुक्र की दशा बहुत फलवती व पूर्ण धन लाभ देने वाली होती है। सप्तम स्थान में पाप प्रभाव युक्त शुक्र जातक को कामुक बनाता है। ऐसा जातक विवाहित होने पर भी अन्य स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाता है। यदि शुक्र बलवान है और चतुर्थ भाव में गुरु की दृष्टि हो अथवा गुरु चतुर्थ में स्थित हो तो व्यक्ति भूमि, धनसंपत्ति से युक्त, विभिन्न वाहनों से युक्त, धनी व माननीय बनाता है। यदि शुक्र बलहीन होता है तो व्यक्ति अचानक भाग्यहीन हो जाता है। यदि दशम भाव में शुक्र होता है तो अपनी दशा में नौकरी और संपूर्ण सुविधाओं को प्रदान करता है। जब शुक्र राहु के प्रभाव में यदि रहता है तो हानि प्रदान करता है।
यदि किसी व्यक्ति की भौतिक समृद्धि एवं सुखों का भविष्य ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसके लिए उस व्यक्ति की जन्म कुंडली में शुक्र ग्रह की स्थिति एवं शक्ति (बल) का अध्ययन करना अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। अगर जन्म कुंडली में शुक्र की स्थिति सशक्त एवं प्रभावशाली हो तो जातक को सब प्रकार के भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत यदि शुक्र निर्बल अथवा दुष्प्रभावित (अपकारी ग्रहों द्वारा पीड़ित) हो तो भौतिक अभावों का सामना करना पड़ता है। इस ग्रह को जीवन में प्राप्त होने वाले आनंद का प्रतीक माना गया है। प्रेम और सौंदर्य से आनंद की अनुभूति होती है और श्रेष्ठ आनंद की प्राप्ति स्त्री से होती है। अत: इसे स्त्रियों का प्रतिनिधि भी माना गया है और दाम्पत्य जीवन के लिए ज्योतिषी इस महत्वपूर्ण स्थिति का विशेष अध्ययन करते हैं।
अगर शक्तिशाली शुक्र (स्वराशि, उच्च राशि का मूल त्रिकोण) केंद्र में स्थित हो और किसी भी अशुभ ग्रह से युक्त अथवा द्रष्ट न हो तो जन्म कुंडली के समस्त दुष्प्रभावों (अनिष्ट) को दूर करने की सामर्थ्य रखता है। किसी कुंडली में जब शुक्र लग्र द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम और एकादश भाव में स्थित हो तो धन, सम्पत्ति और सुखों के लिए अत्यंत शुभ फलदायक है। सशक्त शुक्र अष्टम भाव में भी अच्छा फल प्रदान करता है। शुक्र अकेला अथवा शुभ ग्रहों के साथ शुभ योग बनाता है। चतुर्थ स्थान में शुक्र बलवान होता है। इसमें अन्य ग्रह अशुभ भी हों तो भी जीवन साधारणत: सुख कर होता है। स्त्री राशियों में शुक्र को बलवान माना गया है। यह पुरुषों के लिए ठीक है किंतु स्त्री की कुंडली में स्त्री राशि के शुक्र का फल अशुभ मिलता है।
जब कुंडली में शुक्र और चंद्र, एक साथ हो तब सशक्त होकर केंद्र अथवा त्रिकोण में स्थित हो तो सम्मान या राजकीय सुख प्राप्त करते हैं। महात्मा गांधी की कुंडली में इस प्रकार का योग था। शुक्र और बुध पंचम या नवम भाव में स्थित हो तो जातक को धन, सम्मान और प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। शुक्र की केंद्र में स्वराशि अथवा उच्चराशि में स्थिति हो तो मालव्य योग होता है। यह योग जातक को सुंदरता, स्वास्थ्य, विद्वता, धन-दाम्पत्य सुख, सौभाग्य और सम्मानदायक है। अशुभ ग्रह के योग से यह योग भंग हो जाता है। जब किसी कुंडली में शुक्र, बृहस्पति और चंद्र की एक साथ युति हो एवं केंद्र में ऐसी स्थिति से मृदिका योग होता है जिसके फलस्वरूप उच्च पद एवं अधिकार की प्राप्ति होती है। जब शुक्र अशुभ ग्रहों के साथ या दुस्थानों (6, 8, 12) में स्थित हो तब यह ग्रह अच्छा फल नहीं देता। सूर्य, मंगल अथवा शनि के साथ शुक्र की युति होने पर जातक की प्रवृत्ति अनैतिक कार्यों की ओर होती है किंतु बृहस्पति की दृष्टि होने पर यह दोष नष्ट हो जाता है। शुक्र, वाहन का कारक ग्रह है। अत: लग्र में चतुर्थेश के साथ होने पर वाहन योग बनता है। कामवासना या यौन सुख पर शुक्र का स्वामित्व माना गया है। अत: विवाह अथवा यौन सुख के लिए भी इसकी स्थिति का अध्ययन करना महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। अगर यह ग्रह जन्मकुंडली में निर्बल अथवा दुष्प्रभावित हो तो दाम्पत्य सुख का अभाव रहता है। सप्तम भाव में शुक्र की स्थिति विवाह के बाद भाग्योदय की सूचक है। शुक्र पर मंगल के प्रभाव से जातक का जीवन अनैतिक होता है और शनि का प्रभाव जीवन में निराशा व वैवाहिक जीवन में अवरोध, विच्छेद अथवा कलह का सूचक है। शुक्र अगर दुस्थान में स्थित होकर अशुभ ग्रह से प्रभावित हो तो जीवनसाथी की शीघ्र हानि और पंचम, सप्तम और नवम में निर्बल सूर्य के साथ होने पर वैवाहिक जीवन का अभाव बतलाता है। दुष्प्रभावित शुक्र प्राय: गंभीर बीमारियों का कारण भी होता है। शुक्र और मंगल सप्तम भाव में अशुभ ग्रह द्वारा द्रष्ट हो तो संभोगजन्य रोग होता है। स्त्री की कुंडली (स्त्री जातक) में शुक्र की अच्छी स्थिति का महत्व है। अगर स्त्री की कुंडली में लग्र में शुक्र और चंद्र हो तो उसे अनेक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति होती है। शुक्र और बुध की युति सौंदर्य, कलाओं में दक्षता और सुखमय दाम्पत्य जीवन की सूचक है। शुक्र की अष्टम स्थिति गर्भपात को सूचित करती है और यदि मंगल के साथ युति हो तो वैधव्य की सूचक है। जीवन में प्राप्त होने वाले आनंद, अलंकार, सम्पत्ति, स्त्री सुख, विवाह के कार्य, उपभोग के स्थान, वाहन, काव्य कला, संभोग तथा स्त्री आदि के संबंध में शुक्र से विचार करना उपयुक्त है। अगर यह ग्रह जन्म कुंडली में शुभ एवं सशक्त प्रधान है तो जातक का जीवन सफल एवं सुखमय माना जाता है किंतु शुक्र के निर्बल या अशुभ होने पर जातक की अनैतिक कार्यों में प्रवृत्ति होती है, समाज में मान-सम्मान नहीं मिलता तथा अनेक सुखों का अभाव रहता है।
♦सुख साधनों का कारक भी है शुक्र:-
शुक्र मुख्यतः स्त्रीग्रह,कामेच्छा, वीर्य, प्रेम वासना, रूप सौंदर्य, आकर्षण, धन संपत्ति,व्यवसाय आदि सांसारिक सुखों के कारक है। गीत संगीत, ग्रहस्थ जीवन का सुख, आभूषण, नृत्य, श्वेत और रेशमी वस्त्र, सुगंधित और सौंदर्य सामग्री, चांदी, हीरा, शेयर, रति एवं संभोग सुख, इंद्रिय सुख, सिनेमा,मनोरंजन आदि से संबंधी विलासी कार्य, शैया सुख, काम कला, कामसुख, कामशक्ति, विवाह एवं प्रेमिका सुख, होटल मदिरा सेवन और भोग विलास के कारक ग्रह शुक्र जी माने जाते हैं।
♦शुक्र की अशुभताः-
यदि आपके जन्मांक में शुक्र जी अशुभ हैं तो आर्थिक कष्ट, स्त्री सुख में कमी, प्रमेह, कुष्ठ, मधुमेह, मूत्राशय संबंधी रोग, गर्भाशय संबंधी रोग और गुप्त रोगों की संभावना बढ जाती है और सांसारिक सुखों में कमी आती प्रतीत होती है। शुक्र के साथ यदि कोई पाप स्वभाव का ग्रह हो तो व्यक्ति काम वासना के बारे में सोचता है। पाप प्रभाव वाले कई ग्रहों की युति होने पर यह कामवासना भडकाने के साथ साथ बलात्कार जैसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देता है। शुक्र के साथ मंगल और राहु का संबंध होने की दशा में यह घेरेलू हिंसा का वातावरण भी बनाता है।
♦जानिए अशुभ शुक्र के लिए क्या करें:-
अशुभ शुक्र की शांति के लिए शुक्र से संबंधित वस्तुओं का दान करना चाहिए| जैसे चांदी चावल दूध श्वेत वस्त्र आदि।
1- दुर्गाशप्तशती का पाठ करना चाहिए।
2- कन्या पूजन एवं शुक्रवार का व्रत करना चाहिए।
3- हीरा धारण करना चाहिए।
यदि हीरा संभव न हो तो अर्किन, सफेद मार्का, सिम्भा, ओपल, कंसला, स्फटिक आदि शुभवार, शुभ नक्षत्र और शुभ लग्न में धारण करना चाहिए।
♦ शुक्र का बीज मंत्र भी लाभकारी होगा:
1- ऊँ शं शुक्राय नमः।
2- ऊँ हृीं श्रीं शुक्राय नमः।
इन मंत्रों का जाप भी अरिष्ट कर शुक्र शांति में विशेष लाभ प्रद माना गया है।
by Pandit Dayanand Shastri.
जानिए की वास्तु अनुसार शौचालय/ टाइलेट कहाँ बनवाएं
♦ आज कल निर्माण हो रहे अधिकांश घरों में स्थानाभाव, शहरी संस्कृति, शास्त्रों के अल्प ज्ञान के कारण अधिकतर शौचालय और स्नानघर एक साथ बने होते है, लेकिन यह सही नहीं है इससे घर में वास्तुदोष होता है। हम सभी जानते हैं की किसी भी मकान या भवन में शौचालय और स्नानघर अत्यंत ही महत्वपूर्ण होता है । इसको भी वास्तु सम्मत बनाना ही श्रेयकर है वरना वहाँ के निवासियों को जीवन भर अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जानिए शौचालय और स्नानघर को बनाने के वास्तु नियम जो आपके लिए अवश्य ही लाभदायक होंगे ।
♦ आज कल के घरों में बाथरूम और टॉयलेट एक साथ होना आम बात है । लेकिन वास्तुशास्त्र के नियम के अनुसार इससे घर में वास्तुदोष उत्पन्न होता है। इस दोष के कारण घर में रहने वालों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पति-पत्नी एवं परिवार के अन्य सदस्यों के बीच अक्सर मनमुटाव एवं वाद-विवाद की स्थिति बनी रहती है।
♦किसी भी नए भवन में शौचालय बनाते समय काफी सावधानी रखनी चाहिए, नहीं तो ये हमारी सकारात्मक ऊर्जा को नष्ट कर देते हैं और हमारे जीवन में शुभता की कमी आने से मन अशांत महसूस करता है। इसमें आर्थिक बाधा का होना, उन्नति में रुकावट आना, घर में रोग घेरे रहना जैसी घटना घटती रहती है। शौचालय को ऐसी जगह बनाएँ जहाँ से सकारात्मक ऊर्जा न आती हो व ऐसा स्थान चुनें जो खराब ऊर्जा वाला क्षेत्र हो। घर के मुख्य दरवाजे के सामने शौचालय का दरवाजा कभी नहीं होना चाहिए, ऐसी स्थिति होने से उस घर में हानिकारक ऊर्जा का संचार होगा।
♦वास्तु शास्त्र के प्रमुख ग्रंथ विश्वकर्मा प्रकाश में बताया गया है कि ‘पूर्वम स्नान मंदिरम’ अर्थात भवन के पूर्व दिशा में स्नानगृह होना चाहिए। शौचालय की दिशा के विषय में विश्वकर्मा कहते हैं ‘या नैऋत्य मध्ये पुरीष त्याग मंदिरम’ अर्थात दक्षिण और नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा के मध्य में पुरीष यानी मल त्याग का स्थान होना चाहिए। बाथरूम और टॉयलेट एक दिशा में होने पर वास्तु का यह नियम भंग होता है।
♦ बाथरूम या शौचालय हंमेशा मकान के नैऋत्य (पश्चिम-दक्षिण) कोण में अथवा नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य में होना उत्तम है। वास्तु के अनुसार, पानी का बहाव उत्तर-पूर्व में रखें।
♦ ध्यान दीजिये, जिन घरों में बाथरूम में गीजर आदि की व्यवस्था है, उनके लिए यह जरूरी है कि वे अपना बाथरूम आग्नेय कोण में ही रखें, क्योंकि गीजर का संबंध अग्नि से है। क्योंकि बाथरूम व शौचालय का परस्पर संबंध है तथा दोनों पास-पास स्थित होते हैं।
♦आजकल अधिकांश नवनिर्मित मकानों में बेडरूम में अटैच बाथरूम का चलन बढ़ता जा रहा है और यह गलत भी है। इससे बेडरूम और बाथरूम की ऊर्जाओं के टकराव से हमारा स्वास्थ्य शीघ्र ही प्रभावित होता है । इससे बचने के लिए या तो बेडरूम में अटैच बाथरूम के बीच एक चेंज रूम अवश्य बनाया जाना चाहिए अथवा इसमें बाथरूम पर एक मोटा पर्दा डाला जाय और इस बात का भी ख्याल रहे कि बाथरूम का द्वार उपयोग के पश्चात बंद करके ही रखा जाय । ऐसे बाथरूम में खिड़की उत्तर या पूर्व में देना उचित है, इसे पश्चिम में भी बना सकते है लेकिन इसे दक्षिण और नैत्रत्य कोण में बिलकुल भी नहीं बनवाना चाहिए । इसमें एग्जास्ट फैन को पूर्व या उत्तर दिशा की दीवार पर लगवाना चाहिए ।
♦ शौचालय के लिए वायव्य कोण तथा दक्षिण दिशा के मध्य या नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य स्थान को सर्वोपरि रखना चाहिए। शौचालय में सीट इस प्रकार हो कि उस पर बैठते समय आपका मुख दक्षिण या उत्तर की ओर होना चाहिए। सोते वक्त शौचालय का द्वार आपके मुख की ओर नहीं होना चाहिए। शौचालय अलग-अलग न बनवाते हुए एक के ऊपर एक होना चाहिए।
♦ विशेष ध्यान रखें- इशान कोण में कभी भी शौचालय नहीं होना चाहिए, नहीं तो ऐसा शौचालय सदैव हानिकारक ही रहता है। शौचालय का सही स्थान दक्षिण-पश्चिम में हो या दक्षिण दिशा में होना चाहिए। वैसे पश्चिम दिशा भी इसके लिए ठीक रहती है।
♦ वास्तुशास्त्र के अनुसार स्नानगृह में चंद्रमा का वास है तथा शौचालय में राहू का। यदि किसी घर में स्नानगृह और शौचालय एक साथ हैं तो चंद्रमा और राहू एक साथ होने से चंद्रमा को राहू से ग्रहण लग जाता है, जिससे चंद्रमा दोषपूर्ण हो जाता है। चंद्रमा के दूषित होते ही कई प्रकार के दोष उत्पन्न होने लगते हैं। चंद्रमा मन और जल का कारक है और राहु विष का। इस युति से जल विष युक्त हो जाता है। जिसका प्रभाव पहले तो व्यक्ति के मन पर पड़ता है और दूसरा उसके शरीर पर।
♦ हमारे शास्त्रों में चन्द्रमा को सोम अर्थात अमृत कहा गया है और राहु का विष। अमृत और विष एक साथ होना उसी प्रकार है जैसे अग्नि और जल। दोनों ही विपरीत तत्व हैं। इसलिए बाथरूम और टॉयलेट एक साथ होने पर परिवार में अलगाव होता है। लोगों में सहनशीलता की कमी आती है। मन में एक दूसरे के प्रति द्वेष की भावना बानी रहती हैं।
♦ ध्यान रखें, शौचालय का द्वार उस घर के मंदिर, किचन आदि के सामने न खुलता हो। इस प्रकार हम छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर सकारात्मक ऊर्जा पा सकते हैं व नकारात्मक ऊर्जा से दूर रह सकते हैं। अलग अलग शौचालय और स्नानघर बनाने पर स्नानघर उत्तर एवं पूर्व दिशा में और शौचालय दक्षिण, पश्चिम, दक्षिण और नैत्रत्य के बीच में बनाये जाने चाहिए। लेकिन दोनों को एक साथ संयुक्त रूप से बनाने पर उन्हें पश्चिमी और उत्तरी वायव्य कोण में बनाना श्रेष्ठ है । इसके अतिरिक्त यह पश्चिम, दक्षिण और नैत्रत्य के बीच भी बनाये जा सकते है ।
♦ शौचालय और स्नानघर उपरोक्त किसी भी दिशा में बनाये लेकिन यह ध्यान रखें बाथरूम में फर्श का ढाल, पानी का बहाव उत्तर एवं पूर्व दिशा की ओर ही होना चाहिए। घर के किसी भी सदस्य को चोंट न लगे, दुर्घटना ना हो, इससे बचाव हेतु बाथरूम का फर्श चिकना या फिसलन भरा नहीं होना चाहिए, मेरे विचार से बथरूम में टाइल्स, मार्बल, ग्रेनाइट या संगमरमर का प्रयोग कभी नहीं करे।
♦ शौचालय में बैठने की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि शौच करते समय आपका मुख दक्षिण या पश्चिम दिशा की ओर होना चाहिए। पूर्व में कभी भी नहीं, क्योंकि पूर्व सूर्य देव की दिशा है और मान्यता है कि उस तरफ मुँह करके शौच करते हुए उनका अपमान होता है । इससे जातक को क़ानूनी अड़चनों एवं अपयश का सामना करना पड़ सकता है ।
♦संयुक्त रूप से बने शौचालय और स्नानघर बनाने या केवल अलग ही स्नानघर पर यह अवश्य ही ध्यान दें, कि उसमें पानी के नल, नहाने के शावर ईशान, उत्तर एवं पूर्व दिशा में ही लगाये जाय और नहाते समय जातक का मुँह उत्तर, ईशान अथवा पूर्व की तरफ ही होना चाहिए ।
♦यदि आपके भवन में, बाथरूम में कहीं भी नल से पानी टपकते हो तो उसे तुरंत ही ठीक करवाना चाहिए। अगर भवन में कहीं भी सीलन हो तो उसे भी तुरंत ही ठीक करवाएं। साथ ही समय समय पर पानी टंकियों की साफ-सफाई भी जरूर करवाते रहे । इससे उस भवन के निवासी सदस्यों को कभी भी आर्थिक परेशानियां नहीं सतायगी।
by Pandit Dayanand Shastri.
जानिए शनि जयंती का महत्व और फल-
शनिवार के दिन शनि जयंती से इस पर्व का महत्व एवं फल अनंत गुणा हो जाता है।
शनि जयंती (4 जून 2016, शनिवार) को दोपहर में 1 बजे –शनि-मंगल, वृश्चिक राशि और शनि ज्येष्ठा नक्षत्र के प्रथम चरण में होंगें,वही मंगल विशाखा नक्षत्र के चोथे चरण में रहेंगें जबकि देवगुरु बृहस्पति, राहु के साथ सिंह राशि और पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र के तृतीय चरण में रहेंगें।
4 जून, 2016 (शनिवार) के दिन ज्येष्ठ मास की अमावस्या को शनि जयंती मनाई जाएगी। इस दिन कृतिका नक्षत्र (यह सूर्य का नक्षत्र हैं) और वृषभ राशि का चंद्रमा रहेगा। वृषभ राशि का स्वामी शुक्र हैं। वृषभ राशि का स्वामी शुक्र हैं। शनि, रोहिणी का संगम भी इसी दिन होगा।
*ध्यान या सावधानी रखें— शनिदेव का जन्म दोपहर के समय हुआ था, अतः शनि जयंती 4 जून को मनाना ही शास्त्र सम्मत होगा। भारत में अनेक स्थानों पर उदय तिथि के (पंचांग ) अनुसार के पर्व संपन्न होता हैं तो रविवार को भी शनि जयंती मनाई जा सकती है। इसी दिन वट सावित्री पूजन का पर्व भी मनाया जायेगा। इस दिन अमृत और सर्वार्थ सिद्धि योग भी बन रहा है।
इस दिन शनि देव की विशेष पूजा का विधान है।शनि देव को प्रसन्न करने के लिए अनेक मंत्रों व स्तोत्रों का गुणगान किया जाता है।
♦भारतीय /वेदिक ज्योतिष और शनि देव—शनि हिन्दू ज्योतिष में नौ मुख्य ग्रहों में से एक हैं।
शनि अन्य ग्रहों की तुलना मे धीमे चलते हैं इसलिए इन्हें शनैश्चर भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार शनि के जन्म के विषय में काफी कुछ बताया गया है और ज्योतिष में शनि के प्रभाव का साफ़ संकेत मिलता है।।सम्पूर्ण सिद्धियों के दाता सभी विघ्नों को नष्ट करने वाले सूर्य पुत्र ‘ शनिदेव ‘। ग्रहों में सबसे शक्तिशाली ग्रह है । जिनके शीश पर अमूल्य मणियों से बना मुकुट सुशोभित है। जिनके हाथ में चमत्कारिक यन्त्र है। शनिदेव न्यायप्रिय और भक्तो को अभय दान देने वाले हैं। प्रसन्न हो जाएं तो रंक को राजा और क्रोधित हो जाएं तो राजा को रंक भी बना सकते हैं।
‘स्कन्द पुराण’ के मुताबिक सूर्य की दूसरी पत्नी छाया के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ था। कथा है कि शनि के श्याम वर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया कि शनि उनका पुत्र नहीं है। जब शनि को इस बात का पता चला तो वह अपने पिता से क्रुद्ध हो गए। इसी के चलते शनि और सूर्य में बैर की बात कही जाती है।
शनि ने अपनी साधना और तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य देव के समतुल्य शक्तियां अर्जित कीं। प्रत्येक अवस्था में एक संतुलन और होश को बांधे रखने में शनिदेव हमारे सहायक हैं। शनि प्रकृति में भी संतुलन बनाये रखते हैं और प्रत्येक प्राणी के साथ न्याय करते हैं। ऐसे में शनि से घबराने की आवश्यकता नहीं है बल्कि शनि को अनुकूल कार्य कर प्रसन्न किया जा सकता है।
इसलिए शनि जयन्ती के दिन हमें काला वस्त्र, लोहा, काली उड़द, सरसों का तेल दान करना चाहिए, तथा धूप, दीप, नैवेद्य, काले पुष्प से इनकी पूजा करनी चाहिए। शनि ग्रह वायु तत्व और पश्चिम दिशा के स्वामी हैं। शास्त्रों के अनुसार शनि जयंती पर उनकी पूजा-आराधना और अनुष्ठान करने से शनिदेव विशिष्ट फल प्रदान करते हैं।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में शनि को सर्वाधिक क्रूर ग्रह माना गया है। शनि को कंटक मंद और पापी ग्रह कहकर संबोधित किया जाता है। अधिकतर ज्योतिष शास्त्रों में शनि के दुष्प्रभाव और उसकी वक्र दृष्टि को लेकर बहुत नकारात्मक लिखा गया है।
कालपुरूष सिद्धांत के अनसार शनि व्यक्ति के कर्म और लाभ क्षेत्र को प्रभावित करता है और अपनी दृष्टि से व्यक्ति के मन मस्तिष्क, प्रेम, संतान पारिवारिक सुख, दांपत्य जीवन, सेहत, दुर्धटना और आयु को प्रभावित करता है, मानव जीवन का कोई भी पहलू ज्योतिष से अछूता नहीं है। यहां तक की व्यक्ति जो कपड़े पहनता है उस पर भी ज्योतिष अपना प्रभुत्व रखता है हम सभी अपने सामर्थ्य के अनुसार वस्त्र खरीदते हैं और उन्हें पहनते हैं।
शनि से प्रभावित व्यक्ति कई प्रकार के अनावश्यक परेशानियों से घिरे हुए रहते हैं। कार्य में बाधा का होना, कोई भी कार्य आसानी से न बनना जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है।
इस समस्या को कम करने हेतु शनिचरी अमावस्या के दिन शनि से संबंधित वस्तुओं का दान करना उत्तम रहता है। जिन लोगों की जन्म कुंडली में शनि का कुप्रभाव हो उन्हें शनि के पैरों की तरफ ही देखना चाहिए, जहां तक हो सके शनि दर्शन से भी बचना चाहिए।
किसी ने सच ही कहा है कि शनि जाते हुए अच्छा लगता है ना कि आते हुए। शनि जिनकी पत्रिका में जन्म के समय मंगल की राशि वृश्चिक में हो या फिर नीच मंगल की राशि मेष में हो तब शनि का कुप्रभाव अधिक देखने को मिलता है। बाकि की राशियां सिर्फ सूर्य की राशि सिंह को छोड़ शनि की मित्र, उच्च व सम होती है।
ध्यान रखे , शनि-शुक्र की राशि तुला में उच्च का होता है। शनि का फल स्थान भेद से अलग-अलग शुभ ही पड़ता है। सम में ना तो अच्छा ना ही बुरा फल देता है। मित्र की राशि में शनि मित्रवत प्रभाव देता है। शत्रु राशि में शनि का प्रभाव भी शत्रुवत ही रहता है, जो सूर्य की राशि सिंह में होता है।
सभी जानते है की वस्त्र व्यक्ति की शोभा भी बढाते हैं साथ-साथ उसके सामाजिक प्रभाव में भी वृद्धि करते हैं। आप जानते हैं की आप कोरे कपड़े पहनकर जो नए और बगैर धुले होते हैं कुछ समस्याओं को स्वयं निमंत्रण दे देते हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि का फ़ल व्यक्ति की जन्म कुंडली के बलवान और निर्बल ग्रह तय करते हैं। मनुष्य हो या देवता एक बार प्रत्येक व्यक्ति को शनि का साक्षात्कार जीवन में अवश्य होता हैं । शनि के प्रकोप को आदर्श और कर्तव्य के प्रतिमूर्ति प्रभु श्रीराम, महाज्ञानी रावण, पाण्डव और उनकी पत्नि द्रोपदी, राजा विक्रमादित्य सभी ने भोगा है। इसिलिए मनुष्य तो क्या देवी देवता भी इनके पराक्रम से घबराते है।
कहा जाता है शनिदेव बचपन में बहुत नटखट थे। इनकी अपने भाई बहनों से नही बनती थी। इसीलिये सूर्य ने सभी पुत्रों को बराबर राज्य बांट दिया। इससे शनिदेव खुश नही हुए। वह अकेले ही सारा राज्य चलाना चाहते थे, यही सोचकर उन्होनें ब्रह्माजी की अराधना की। ब्रह्माजी उनकी अराधना से प्रसन्न हुए और उनसे इच्छित वर मांगने के लिए कहा।
शनि देव बोले – मेरी शुभ दृष्टि जिस पर पड़ जाए उसका कल्याण हो जाए तथा जिस पर क्रूर दृष्टि पड़ जाए उसका सर्वनाश हो जाए। ब्रह्मा से वर पाकर शनिदेव ने अपने भाईयों का राजपाट छीन लिया। उनके भाई इस कृत्य से दुखी हो शिवजी की अराधना करने लगे। शिव ने शनि को बुला कर समझाया तुम अपनी शक्ति का सदुपयोग करो। शिवजी ने शनिदेव और उनके भाई यमराज को उनके कार्य सौंपे। यमराज उनके प्राण हरे जिनकी आयु पूरी हो चुकी है, तथा शनि देव मनुष्यों को उनके कर्मो के अनुसार दण्ड़ या पुरस्कार देंगे। शिवजी ने उन्हें यह भी वरदान दिया कि उनकी कुदृष्टि से देवता भी नहीं बच पायेंगे। माना जाता है रावण के योग बल से बंदी शनिदेव को लंका दहन के समय हनुमान जी ने बंधन मुक्त करवाया था। बंधन मुक्त होने के ऋण से मुक्त होने के लिए शनिदेव ने हनुमान से वर मांगने को कहा। हनुमान जी बोले कलियुग मे मेरी अराधना करने वाले को अशुभ फ़ल नही दोगे। शनि बोले ! ऐसा ही होगा। तभी से जो व्यक्ति हनुमान जी की पूजा करता है, वचनबद्ध होने के कारण शनिदेव अपने प्रकोप को कम करते हैं।
♦शनि —एक परिचय –
शनि ग्रह पृथ्वी से सबसे दूर का मूल ग्रह है जिसे सात मूल ग्रहों में स्थान दिया गया है | पौराणिक मान्यता के अनुसार शनि का जन्म सूर्य की द्वीतीय पत्नी छाया से हुआ है | ज्योतिषीय मतानुसार यह ग्रह पृथ्वी से ७९१०००००० मील की दूरी पर है | इसका व्यास ७१५०० मील [मतान्तर से ७४९३२ मील ] माना गया है | सूर्य से इसकी दूरी ८८६०००००० मील है | यह अपनी धुरी पर १० घंटे ३० मिनट में घूमता है जबकि सूर्य के चारो ओर परिक्रमा करने में इसे प्रायः १०७५९ दिन ६ घंटे अर्थात लगभग २९ वर्ष ६ महीने लगते हैं | यह अत्यंत मंद गति से चलने वाला ग्रह है इसी कारण इसके नाम मंद तथा शनैश्चर अर्थात शनै शनै चलने वाला रखे गए हैं | सूर्य के समीप पहुचने पर इसकी गति लगभग ६० मील प्रतिघंटा ही रह जाती है | इसके चारो ओर तीन वलय हैं और इसके १० चन्द्रमा अर्थात उपग्रह हैं | यह अन्य ग्रहों की अपेक्षा हल्का और ठंडा है |
शनि को काल पुरुष का दुःख माना गया है और ग्रह मंडल में इसे सेवक का पद प्राप्त है | यह कृष्ण वर्ण ,वृद्ध अवस्था वाला ,शूद्र जाती ,नपुंसक लिंग ,आलसी स्वरुप ,तमो गुणी, वायु तंत्व और वात प्रकृति ,दारुण और तीक्ष्ण स्वाभावि होता है | इसका धातु लोहा ,वस्त्र -जीर्ण ,अधिदेवता -ब्रह्मा ,दिशा पश्चिम है | यह तिक्त रस का ,उसर भूमि का ,शिशिर ऋतू का प्रतिनिधि माना जाता है | इसका रत्न नीलम है | यह पृष्ठोदयी ,पाप संज्ञक ,सूर्य से पराजित होता है |
यह कूड़ा घर का प्रतिनिधि ,संध्याकाळ में बली ,वेदाभ्यास में रूचि न रखने वाला ,कूटनीति -दर्शन -क़ानून जैसे विषयों में रूचि रखने वाला है |इसका वाहन भैंसा ,वार -शनिवार ,प्रतिनिधि पशु काला घोडा ,भैंसा ,बकरी हैं |
शनि का जीव शरीर में हड्डी ,पसली ,मांस पेशी ,पिंडली ,घुटने ,स्नायु ,नख तथा केशों पर आधिपत्य माना गया है |यह लोहा ,नीलम ,तेल ,शीशा ,भैंस ,नाग ,तिल ,नमक ,उड़द ,बच तथा काले रंग की वस्तुओं का अधिपति है |
यह कारागार ,पुलिस ,यातायात ,ठेकेदारी ,अचल संपत्ति ,जमीन ,मजदूर ,कल कारखाने ,मशीनरी ,छोटे दुकानदार तथा स्थानीय संस्थाओं के कार्य कर्ताओं का प्रतिनिधित्व करता है | बलवान शनी विशिष्टता ,लोकप्रियता ,सार्वजनिक प्रसिद्धि एवं सम्मान को देने वाला भी होता है | इसके द्वारा वायु ,शारीरिक बल ,उदारता ,विपत्ति ,दुःख ,योगाभ्यास ,धैर्य ,परिश्रम ,पराक्रम ,मोटापा ,चिंता ,अन्याय ,विलासिता ,संकट ,दुर्भाग्य ,व्यय ,प्रभुता ,ऐश्वर्य ,मोक्ष ,ख्याति ,नौकरी ,अंग्रेजी भाषा ,इंजीनियरी ,लोहे से सम्बंधित काम ,साहस तथा मूर्छा आदि रोगों के सम्बन्ध में विचार किया जाता है |
शनि की साढ़े साती और ढैया अपना चरम प्रभाव प्रकट करती है | सूर्य के साथ शनि का वेध नहीं होता तथा ५ ,९ ,१२ में इसे वेध प्राप्त होता है जबकि ३ -६ -११ में यह अच्छा प्रभावी माना जाता है | इसकी स्वराशियाँ मकर और कुम्भ हैं तथा यह समय समय पर मार्गी और वक्री होता रहता है | यह तुला राशि के २० अंश तक परम उच्चस्थ और मेष राशि के २० अंश तक परम नीचस्थ होता है जबकि कुम्भ के २० अंश तक परम मूल त्रिकोणस्थ होता है |
लग्न से सातवें भाव में ,तुला मकर एवं कुम्भ राशि में,स्वद्रेष्काण ,दक्षिणायन ,शनिवार ,राश्यंत में और कृष्ण पक्ष का वक्री शनी बलवान माना जाता है |
बुध ,शुक्र ,राहू तथा केतु इसके मित्र जबकि सूर्य मंगल तथा चन्द्रमा से यह शत्रुता रखता है ,गुरु के साथ यह समभाव रखता है | यह जहाँ बैठता है वहां से तृतीय ,सप्तम और दशम को पूर्ण दृष्टि से देखता है | यह सूर्य के बाद बलवान ग्रह है और इसकी गणना पाप ग्रहों में की जाती है | यह जातक के जीवन पर प्रायः 36 से 42 वर्ष के बीच अपना विशेष प्रभाव प्रकट करता है|
गोचर में यह राशि संचरण के 06 माह पहले से ही अपना प्रभाव प्रकट करना आरम्भ कर देता है, और एक राशि पर 30 माह तक रहता है | जिस राशि पर होता है उसके अगले और पिछले दोनों राशियों को प्रभावित करता है | यह राशि के अंतिम भाग में अपना पूर्ण फल देता है |
*जनिये की कैसे मनाये शनि जयंती पर्व??
इस पर्व का लाभ लेने के लिए सर्वप्रथम स्नानादि से शुद्ध होकर एक लकड़ी के पाट पर काला कपड़ा बिछाकर उस पर शनिजी की प्रतिमा या फोटो या एक सुपारी रख कर उसके दोनों ओर शुद्ध घी व तेल का दीपक जलाकर धूप जलाएँ। इस शनि स्वरूप के प्रतीक को जल, दुग्ध, पंचामृत, घी, इनसे स्नान कराकर उनको इमरती, तेल में तली वस्तुओं का नैवेद्य लगाएँ। नैवेद्य के पूर्व उन पर अबिल, गुलाल, सिंदूर, कुंकुम एवं काजल लगाकर नीले या काले फूल अर्पित करें। नैवेद्य अर्पण करके फल व ऋतु फल के संग श्रीफल अर्पित करें।
इस पंचोपचार पूजन के पश्चात इस मंत्र का जप कम से कम एक माला से करें–
“ॐ प्रां प्रीं प्रौ स. शनये नमः”॥
माला पूर्ण करके शनि देवता को समर्पण करें। पश्चात आरती करके उनको साष्टांग प्रणाम करें।
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*शनि की शांति के ऐसे कई उपाय हैं, जिनके द्वारा मनुष्य के सारे कष्ट दूर होते है। निम्नानुसार उपाय करने पर पीड़ित व्यक्ति के कष्ट दूर होकर उसे शुभ फलों की प्राप्ति होती है। शनि ग्रह किसी कार्य को देर से जरूर करवाते है, परंतु यह भी सत्य है कि वह कार्य अत्यंत सफल होते है।
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शनि जयंती के दिन तेल में बनी खाद्य सामग्री का दान गाय, कुत्ता व भिखारी को करें।
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इस दिन विकलांग व वृद्ध व्यक्तियों की सेवा अवश्य करें।
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शनिजी का जन्म दोपहर या सायंकाल में है। विद्वानों में इसको लेकर मतभेद है। अतः दोपहर व सायंकाल में यथा सम्भव मौन रखें।
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शनि महाराज व सूर्य-मंगल से शत्रुतापूर्ण संबंध होने के कारण इस दिन सूर्य व मंगल की पूजा कम करनी चाहिए।
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जब कभी शनिजी की प्रतिमा को देखें, उस समय सावधानी रखें।। कभी भी शनि देव की आँखों को नहीं देखें।
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अपने मता पिता का आदर-सम्मान करेंशनि के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए तिल का तेल एक कटोरी में लेकर उसमें अपना मुंह देखकर शनि मंदिर में रख आएं। तिल के तेल से शनि विशेष प्रसन्न रहते हैं।
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काली चीजें जैसे काले चने, काले तिल, उड़द की दाल, काले कपड़े आदि का दान नि:स्वार्थ मन से किसी गरीब को करें, शनिदेव प्रसन्न होंगे।
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नित्य प्रतिदिन भगवान भोलेनाथ पर काले तिल व कच्चा दूध चढ़ाना चाहिए। यदि पीपल वृक्ष के नीचे शिवलिंग हो तो अति उत्तम होता है। सुंदरकांड का पाठ सर्वश्रेष्ठ फल प्रदान करता है। ना तो नीलम पहने, ना ही लोहे का बना छल्ला पहने। इसके पहनने से शनि का कुप्रभाव और बढ़ जाता है।
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पीपल की जड़ में केसर, चंदन, चावल, फूल मिला पवित्र जल अर्पित करें। तिल का तेल का दीपक जलाएं और पूजा करें।
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शनि को मनाने का सबसे अच्छा उपाय है कि हर मंगलवार और शनिवार को हनुमान चालीसा का पाठ करें। हनुमान जी के दर्शन और उनकी भक्ति करने से शनि के सभी दोष समाप्त हो जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार शनि किसी भी परिस्थिति में हनुमान जी के भक्तों को परेशान नहीं करते हैं।
♦ इसका भी रखें विशेष ध्यान –
जब कोई भी वस्त्र जो बुनकर बनाया जाता है। उसके धागों पर बुध अपना अधिपत्य रखता है तथा जब वस्त्र बनकर पूरा हो जाता है तो वो शुक्र की श्रेणी में आ जाता है।
शास्त्र अनुसार वस्त्र को तैयार करने के लिए मंगल रूपी कैंची से उसे काटा जाता है। उसे नाप देकर चन्द्र रूपी धागे से सिला जाता है। जब वह पहनने योग्य हो जाता है तो वो शनि का रूप धारण कर लेता है परंतु जो वस्त्र नए तथा बिना धुले हुए अर्थात कोरे हों उन्हें पहनकर हम शनि, मंगल , बुध शुक्र और शनि से संबंधित समस्याओं को अपने ऊपर ले लेते हैं क्योंकि कपड़ों को सिलते समय सुई का इस्तेमाल होता है जो शनि के समान हैं इसी कारण कपड़े जब तक धुलते नहीं हैं वो कीलक की श्रेणी में आ जाते हैं। इसी कारण नए कपड़ों पर बिना धुले कपड़ों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। अतः नए वस्त्र धारण से पूर्व सावधानी रखें, उन्हेँ धोकर ही धारण करें।
पण्डित “विशाल” दयानन्द शास्त्री
जानिए पुष्यामृत योग, पुष्य नक्षत्र का महत्व, लाभ और प्रभाव
भारतीय ज्योतिष और संस्कृति में संतुष्टि एवम् पुष्टिप्रदायक पुष्य नक्षत्र के वार में श्रेष्ट बृहस्पतिवार (गुरुवार ) से योग होने पर यह अति दुर्लभ ” गुरुपुष्यामृत योग‘ कहलाता है ।
‘ सर्वसिद्धिकरः पुष्यः । ‘
इस शास्त्रवचन के अनुसार पुष्य नक्षत्र सर्वसिद्धिकर है।
शुभ, मांगलिक कर्मों के संपादनार्थ गुरुपुष्यामृत योग वरदान सिद्ध होता है।व्यापारिक कार्यों के लिए तो यह विशेष लाभदायी माना गया है । इस योग में किया गया जप , ध्यान, दान, पुण्य महाफलदायी होता है परंतु पुष्य में विवाह व उससे संबंधित सभी मांगलिक कार्य वर्जित है।पंचांग के अंग में नक्षत्र का स्थान द्वितीय स्थान पर है। सर्वाधिक गति से गमन करने वाले चंद्रमा की स्थिति के स्थान को इंगित करते है जो कि मन व धन के अधिष्ठाता है। हर नक्षत्र में इनकी उपस्थिति विभिन्न प्रकार के कार्यों की प्रकृति व क्षेत्र को निर्धारण करती है। इनके अनुसार किए गए कार्यों में सफलता की मात्रा अधिकतम होने के कारण उन्हें मुहूर्त के नाम से जाना जाता है।
मुहूर्त का ज्योतिष शास्त्र में स्थान एवं जनसामान्य में इसकी महत्ता विशिष्ट है। कार्तिक अमावस्या के पूर्व आने वाले पुष्य नक्षत्र को शुभतम माना गया है। जब यह नक्षत्र सोमवार, गुरुवार या रविवार को आता है, तो एक विशेष वार नक्षत्र योग निर्मित होता है। जिसका संधिकाल में सभी प्रकार का शुभफल सुनिश्चित हो जाता है। गुरुवार को इस नक्षत्र के पड़ने से गुरु पुष्य नामक योग का सर्जन होता है। यह क्षण वर्ष में कभी–कभी आता है।ज्योतिष शास्त्र में 27 नक्षत्र माने गए है। इनमें 8 वे स्थान पर पुष्य नक्षत्र आता है।यह बहुत ही शुभ नक्षत्र माना जाता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार यह नक्षत्र स्थायी होता है और इसीलिए इस नक्षत्र में खरीदी गई कोई भी वस्तु स्थायी तौर पर सुख समृद्धि देती है।
♦जानिए की क्या हैं पुष्य नक्षत्र और इसका महत्त्व–
पुष्य नक्षत्र को नक्षत्रो का राजा भी कहते है । माना जाता है कि पुष्य नक्षत्र की साक्षी से किये गये कार्य सर्वथा सफल होते है।पुष्य नक्षत्र का स्वामी गुरु है। ऋग्वेद में पुष्य नक्षत्र को मंगल कर्ता, वृद्धि कर्ता और सुख समृद्धि दाता कहा गया है। लेकिन यह भी ध्यान दे कि पुष्य नक्षत्र भी अशुभ योगों से ग्रसित तथा अभिशापित होता है। शुक्रवार को पुष्य नक्षत्र में किया गया कार्य सर्वथा असफल ही नहीं, उत्पातकारी भी होता है। अतः पुष्य नक्षत्र में शुक्रवार के दिन को तो सर्वथा त्याग ही दे। बुधवार को भी पुष्य नक्षत्र नपुंसक होता है। अतः इसमें किया गया कार्य भी असफलता देता है।लेकिन पुष्य नक्षत्र शुक्र तथा बुध के अतिरिक्त सामान्यतया श्रेष्ठ होता है। रवि तथा गुरु पुष्य योग सर्वार्थ सिद्धिकारक माना गया है।
एक बात का और विशेष ध्यान दे कि विवाह में पुष्य नक्षत्र सर्वथा वर्जित तथा अभिशापित है। अतः पुष्य नक्षत्र में विवाह कभी भी नहीं करना चाहिए। इस नए वर्ष में भूमि, भवन, वाहन व ज्वेलरी आदि की खरीद उपरोक्त व अन्य शुभ,महत्वपूर्ण कार्यो के लिए श्रेष्ठ माना जाने वाला पुष्य नक्षत्र बारह होंगे जो कुल 25 दिन रहेंगे क्योंकि इनमें प्रत्येक कि अवधि डेढ़ से दो दिन तक रहेगी। इसके अतिरिक्त इस पूरे वर्ष में 96 दिन सर्वार्थ सिद्धि योग व 26 दिन अमृत सिद्धि योग रहेंगे, जिसमे भी कोई भी शुभ कार्य किये जा सकते है। पुष्यामृत योग में “हत्था जोड़ी“(एक विशेष पेड़ की जड़ जो सभी पूजा की दुकान में मिलती है) को “चाँदी की डिबिया में सिंदूर डालकर” अपनी तिजोरी में स्थापित करे । ऐसा करने से घर में धन की कमी नहीं रहती है । ध्यान रहे कि इसे नित्य धुप अगरबत्ती करते रहे और हर पुष्य नक्षत्र में इस पर सिंदूर चढ़ाते रहे । पुष्य नक्षत्र में “शंख पुष्पी की जड़ को “चांदी की डिब्बी में भरकर उसे घर के धन स्थान / तिजोरी में रख देने से उस घर में धन की कभी कोई भी कमी नहीं रहती है । इसके अलावा बरगद के पत्ते को भी पुष्य नक्षत्र में लाकर उस पर हल्दी से स्वस्तिक 4 बनाकर उसे चांदी की डिब्बी में घर में रखें तो भी बहुत ही शुभ रहेगा।
♦आइये इनको भी जाने–
सर्वार्थसिद्धि, अमृतसिद्धि, गुरुपुष्यामृत और रविपुष्यामृत योग–शुभ मुहूर्तों में स्वर्ण आभूषण, कीमती वस्त्र आदि खरीदना, पहनना, वाहन खरीदना, यात्रा आरम्भ करना, मुकद्दमा दायर करना, ग्रह शान्त्यर्थ रत्न धारण करना, किसी परीक्षा प्रतियोगिता या नौकरी के लिए आवेदन–पत्र भरना आदि शुभ मुहूर्त जानने के किए अब आपको पूछने के लिए किसी ज्योतिषी के पास बार–बार जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी ।
सर्वार्थसिद्धि, अमृतसिद्धि, गुरुपुष्यामृत और रविपुष्यामृत योग वारों का विशेष नक्षत्रों से सम्पर्क होने से ये योग बनते है । जैसे कि इन योगों के नामों से स्पष्ट है, इन योगों के समय में कोई भी शु्भ कार्य आरम्भ किया जाय तो वह निर्विघ्न रूप से पूर्ण होगा ऐसा हमारे पूर्वाचार्यों ने कहा है ।यात्रा, गृह प्रवेश, नूतन कार्यारम्भ आदि सभी कार्यों के लिए या अन्य किसी अपरिहार्य कारणवश यदि व्यतिपात, वैधृति, गुरु–शुक्रास्त, अधिक मास एवं वेध आदि का विचार सम्भव न हो तो सर्वार्थसिद्धि आदि योगों का आश्रय लेना चाहिये ।
♦अमृतसिद्धि योग–
अमृतसिद्धि योग रवि को हस्त, सोम को मृगशिर, मंगल को अश्विनी, बुध को अनुराधा, गुरु को पुष्य नक्षत्र का सम्बन्ध होने पर रविपुष्यामृत–गुरुपुष्यामृत नामक योग बन जाता है जो कि अत्यन्त शुभ माना गया है ।
♦रवियोग योग–
रवियोग भी इन्हीं योगों की भाँति सभी कार्यों के लिए है । शास्त्रों में कथन है कि जिस तरह हिमालय का हिम सूर्य के उगने पर गल जाता है और सैकड़ों हाथियों के समूहों को अकेला सिंह भगा देता है उसी तरह से रवियोग भी सभी अशुभ योगों को भगा देता है, अर्थात् इस योग में सभी कार्य निर्विघन रूप से पूर्ण होंगे ।
♦त्रिपुष्कर और द्विपुष्कर योग–
त्रिपुष्कर और द्विपुष्कर योग विशेष बहुमूल्य वस्तुओं की खरीददारी करने के लिए है। इन योगों में खरीदी गई वस्तु नाम अनुसार भविष्य में दुगनी व तिगुनी हो जाती है। अतः इन योगों में बहुमूल्य वस्तु खरीदनी चाहिये । इन योगों के रहते कोई वस्तु बेचनी नहीं चाहिये क्योंकि भविष्य में वस्तु दुगुनी या तिगुनी बेचनी पड़ सकती है । धन या अन्य सम्पत्ति के संचय के लिए ये योग अद्वितीय माने गए है । इन योगों के रहते कोई वस्तु गुम हो जाये तो भविष्य में दुगुना या तिगुना नुकसान हो सकता है, अतः इस दिन सावधान रहना चाहिए । इस दिन मुकद्दमा दायर नहीं करना चाहिए और दवा भी नहीं खरीदनी चाहिए ।
♦गुरु ग्रह की तरह गुण–
पुष्य नक्षत्र के सर्वश्रेष्ठ नक्षत्र होने के पीछे कारण यह है कि इसकी प्रकृति ब्रह्मांड के सबसे बड़े ग्रह गुरु जैसी है और इसका स्वामी ब्रह्मांड का दूसरा सबसे बड़ा ग्रह शनि है।शास्त्रों में ‘गुरु‘ को पद–प्रतिष्ठा, सफलता और ऐश्वर्य का कारक माना गया है और ‘शनि‘ को वर्चस्व, न्याय और श्रम का कारक माना गया है, इसीलिए पुष्य नक्षत्र की उपस्थिति में महत्वपूर्ण कार्य करने को शुभ माना जाता है।
♦पुष्य नक्षत्र का स्वामी शनि–
पुष्य नक्षत्र को अमरेज्य कहा गया है, यह कर्क राशि का नक्षत्र है और इसकी प्रकृति गुण प्रधान है और इसका स्वामी शनि है। यह कर्क राशि में तीन डिग्री और20 कला से लेकर 16 डिग्री व 40 कला तक इसका वर्चस्व होता है।
♦सोना–चांदी की खरीदी को महत्व–
स्वर्ण (सोना) धातु को गुरु प्रधान माना गया है और रजत (चांदी) को चन्द्र प्रधान कहा जाता है, इसलिए पुष्य नक्षत्र में इन दोनों धातुओं की खरीदी को महत्व दिया जाता है।
♦इस वर्ष 2016 में पुष्य योग के दिनांक व समय :-
किसी भी नए कार्य की शुरुआत अथवा शादी–ब्याह में सोने–चांदी की खरीदी के लिए अति शुभ माने जाने वाला पुष्य नक्षत्र आने वाले साल 2016 में प्रत्येक माह पड़ेगा और इसका प्रभाव एक दिन शुरू होकर दूसरे दिन तक रहेगा। अगस्त माह में दो मर्तबा यानी माह के शुरुआत और माह के आखिरी दिनों में भी पुष्य नक्षत्र का संयोग बन रहा है। प्रत्येक माह में जहां पुष्य नक्षत्र का प्रभाव दो दिनों तक रहेगा वहीं अगस्त में चार दिनों तक पुष्य नक्षत्र का प्रभाव पड़ेगा। इस तरह नए साल में कुल 26 दिनों तक पुष्य नक्षत्र का प्रभाव रहेगा जिसके चलते इस बार लोगों को नए कार्यों की शुरुआत करने, सोना–चांदी, जमीन, मकान, वाहन, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि वस्तुएं खरीदने, गृह प्रवेश आदि करने के लिए ज्यादा शुभ मुहूर्त मिलेंगे।
ज्योतिषी पण्डित दयानन्द शास्त्री के अनुसार 27 नक्षत्रों में सर्वश्रेष्ठ नक्षत्र पुष्य नक्षत्र को माना जाता है, इसमें भी खासकर रवि पुष्य नक्षत्र अथवा गुरु पुष्य नक्षत्र को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।अमूमन 27 दिनों से 30 दिनों में नक्षत्रों में परिवर्तन होता है यानी लगभग एक माह में एक बार पुष्य नक्षत्र आता है। साल 2016 में प्रत्येक माह पुष्य नक्षत्र आएगा जिसका प्रभाव 24 घंटों तक रहेगा यानी यदि शुक्रवार की शाम पुष्य नक्षत्र शुरू होता है तो वह शनिवार की शाम तक रहेगा। इस तरह देखा जाए तो नए साल में प्रति माह दो दिन अर्थात साल में 24 दिन पुष्य नक्षत्र रहेगा। क्यूंकि अगस्त की 1 तारीख व 29 तारीख को भी पुष्य नक्षत्र है इसलिए इस साल 2016 में कुल 26 दिन पुष्य नक्षत्र का संयोग है।
by Pandit Dayanand Shastri.
इन वास्तु उपायों/उपचार से होगा लक्ष्मी आगमन :-
हम सभी जानते है कि क्रिया की प्रतिक्रिया और प्रतिक्रिया की भी कोई न कोई क्रिया अवश्य होती है। इन्हीं क्रियाओ और प्रतिक्रियाओ का अहितीय उदाहरण हमारा ब्रह्माण्ड है। ब्रह्माण्ड में स्थित उर्जाये चाहे वह गुरूत्वाकर्षणीय, चुम्बकीय, विद्युतीय हो या ध्वनि घर्षण, गर्जन, भूकंपीय, चक्रवात इत्यादि हो सदैव सक्रिय रहती है। उर्जाओं की सक्रियता ही इस चराचर जगत को चलायमान बनाती है। इन्हीं उर्जाओं के कारण ही इस जगत का संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जुड़ जाता है और तभी “यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्ड” जैसे वेद वाक्य रचा जाता है।
सभी प्राणियो के जीवन में वास्तु का बहुत महत्व होता है। तथा जाने व अनजाने में वास्तु की उपयोगिता का प्रयोग भलीभांति करके अपने जीवन को सुगम बनाने का प्रयास करते रहते है। प्रकृति द्वारा सभी प्राणियो को भिन्न–भिन्न रूपो में ऊर्जाये प्राप्त होती रहती है। इनमे कुछ प्राणियो के जीवन चक्र के अनुकूल होती है तथा कुछ पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। अतः सभी प्राणी इस बात का प्रयास करते रहते है कि अनुकूल ऊर्जाओ का अधिक से अधिक लाभ ले तथा प्रतिकूल ऊर्जा से बचे। वास्तु की संरचना वैदिक विज्ञान में आध्यात्मिक होने के साथ-2 पूर्ण वैज्ञानिक भी है। वास्तु की वैज्ञानिक परिकल्पना का मूल आधार पृथ्वी और सौर मंडल में स्थित ग्रह व उनकी कक्षाएं है। हम ग्रहो के प्रभाव को प्रत्यक्ष देख तो नहीं सकते है मगर उनके प्रभाव को अनुभव अवश्य कर सकते है। इनके प्रभाव इतने सूक्ष्म व निरंतर होते है कि इनकी गणना व आंकलन एक दिन या निश्चित अवधि में लगना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत इन ग्रहों व इनकी उर्जाओ को पृथ्वी के सापेक्ष में रखकर अध्ययन किया गया है। इसी अध्ययन का विश्लेषण वास्तु के वैज्ञानिक पक्ष के रूप में हमारे सामने आता है।
वास्तु शास्त्र का आधार प्रकृति है। आकाश, अग्नि, जल, वायु एवं पृथ्वी इन पांच तत्वों को वास्तु–शास्त्र में पंचमहाभूत कहा गया है। शैनागम एवं अन्य दर्शन साहित्य में भी इन्हीं पंच तत्वों की प्रमुखता है। अरस्तु ने भी चार तत्वों की कल्पना की है। चीनी फेंगशुई में केवल दो तत्वों की प्रधानता है– वायु एवं जल की। वस्तुतः ये पंचतत्व सनातन है। ये मनुष्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण चराचर जगत पर प्रभाव डालते है।
वास्तु शास्त्र प्रकृति के साथ सामंजस्य एवं समरसता रखकर भवन निर्माण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। ये सिद्धांत मनुष्य जीवन से गहरे जुड़े है। अथर्ववेद में कहा गया है– पन्चवाहि वहत्यग्रमेशां प्रष्टयो युक्ता अनु सवहन्त। अयातमस्य दस्ये नयातं पर नेदियोवर दवीय। सृष्टिकर्ता परमेश्वर पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), प्रकाश, वायु व आकाश को रचकर, उन्हें संतुलित रखकर संसार को नियमपूर्वक चलाते है। मननशील विद्वान लोग उन्हें अपने भीतर जानकर संतुलित हो प्रबल प्रशस्त रहते है। इन्हीं पांच संतुलित तत्वों से निवास गृह व कार्य गृह आदि का वातावरण तथा वास्तु शुद्ध व संतुलित होता है, तब प्राणी की प्रगति होती है। ऋग्वेद में कहा गया है– ये आस्ते पश्त चरति यश्च पश्यति नो जनः। तेषां सं हन्मो अक्षणि यथेदं हम्र्थ तथा। प्रोस्ठेशया वहनेशया नारीर्यास्तल्पशीवरीः। स्त्रिायो या: पुण्यगन्धास्ता सर्वाः स्वायपा मसि !! हे गृहस्थ जनो ! गृह निर्माण इस प्रकार का हो कि सूर्य का प्रकाश सब दिशाओ से आए तथा सब प्रकार से ऋतु अनुकूल हो, ताकि परिवार स्वस्थ रहे। राह चलता राहगीर भी अंदर न झांक पाए, न ही गृह में वास करने वाले बाहर वालो को देख पाएं। ऐसे उत्तम गृह में गृहिणी की निज संतान उत्तम ही उत्तम होती है। वास्तु शास्त्र तथा वास्तु कला का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार वेद और उपवेद हैं।
भारतीय वाड्मय में आधिभौतिक वास्तुकला (आर्किटेक्चर) तथा वास्तु–शास्त्र का जितना उच्चकोटि का विस्तृत विवरण ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद में उपलब्ध है, उतना अन्य किसी साहित्य में नहीं। गृह के मुख्य द्वार को गृहमुख माना जाता है। इसका वास्तु शास्त्र में विशेष महत्व है। यह परिवार व गृहस्वामी की शालीनता, समृद्धि व विद्वत्ता दर्शाता है। इसलिए मुख्य द्वार को हमेशा बाकी द्वारों की अपेक्षा बड़ा व सुसज्जित रखने की प्रथा रही है। पौराणिक भारतीय संस्कृति के अनुसार इसे कलश, नारियल व पुष्प, केले के पत्र या स्वास्तिक आदि से अथवा उनके चित्रों से सुसज्जित करना चाहिए। मुख्य द्वार चार भुजाओं की चैखट वाला हो। इसे दहलीज भी कहते है। इससे निवास में गंदगी भी कम आती है तथा नकारात्मक ऊर्जाएं प्रवेश नहीं कर पातीं।
प्रातः घर का जो भी व्यक्ति मुख्य द्वार खोले, उसे सर्वप्रथम दहलीज पर जल छिड़कना चाहिए, ताकि रात में वहां एकत्रित दूषित ऊर्जाएं घुलकर बह जाएं और गृह में प्रवेश न कर पाएं। गृहिणी को चाहिए कि वह प्रातः सर्वप्रथम घर की साफ–सफाई करे या कराए। तत्पश्चात स्वयं नहा–धोकर मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर एकदम सामने स्थल पर सामथ्र्य के अनुसार रंगोली बनाए। यह भी नकारात्मक ऊर्जाओं को रोकती है। मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर केसरिया रंग से 9ग9 परिमाण का स्वास्तिक बनाकर लगाएं। मुख्य प्रवेश द्वार को हरे व पीले रंग से रंगना वास्तुसम्मत होता है। खाना बनाना शुरू करने से पहले पाकशाला का साफ होना अति आवश्यक है। रोसोईये को चाहिए कि मंत्र पाठ से ईश्वर को याद करे और कहे कि मेरे हाथ से बना खाना स्वादिष्ट तथा सभी के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक हो। पहली चपाती गाय के, दूसरी पक्षियों के तथा तीसरी कुत्ते के निमित्त बनाए। तदुपरांत परविार का भोजन आदि बनाए।
—विशेष वास्तु उपचार निवास गृह या कार्यालय में शुद्ध ऊर्जा के संचार हेतु प्रातः व सायं शंख–ध्वनि करे। गुगल युक्त धूप व अगरवत्ती प्रज्वलित करे तथा का उच्चारण करते हुए समस्त गृह में धूम्र को घुमाएं। प्रातः काल सूर्य को अघ्र्य देकर सूर्य नमस्कार अवश्य करे। यदि परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य अनुकूल रहेगा, तो गृह का स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। ध्यान रखें, आईने व झरोखों के शीशों पर धूल नहीं रहे। उन्हें प्रतिदिन साफ रखें। गृह की उत्तर दिशा में विभूषक फव्वारा या मछली कुंड रखें। इससे परिवार में समृद्धि की वृद्धि होती है।
प्रकृति के पंच तत्व व उनकी उर्जाए ही वास्तु को जीवंत बनाती हैं। जीवंत वास्तु ही खुशहाल जीवन दे सकता है। इस तथ्य से हम वास्तु की उपयोगिता व वैज्ञानिकता को समझ सकते है। वास्तु कोई जादू या चमत्कार नहीं है अपित् शुद्ध विज्ञान है। विज्ञान का परिणाम उसके सिद्धान्तों क्रिया–प्रतिक्रिया पर निर्भर करते है उसी प्रकार वास्तु का लाभदायी परिणाम इसके चयन, सिद्धान्तों निर्माण इत्यादि पर निर्भर करता है। वास्तु सिद्धान्तों के अनुसार यदि चयन से निर्माण व रख रखाब पर ध्यान दिया जाये तो वास्तु का शत प्रतिशत पूर्ण लाभ प्राप्त होता है।
by Pandit Dayanand Shastri.
रुद्राक्ष मार्गदर्शन
♦एक मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- एक मुखी रुद्राक्ष शिव का स्वरुप है |
लाभ- एक मुखी रुद्राक्ष ब्रहम हत्या आदि पापो को दूर करता है |
मंत्र- एक मुखी रुद्राक्ष को “ॐ ह्रीं नमः” मंत्र का जाप कर के धारण करे |
♦दो मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- दो मुखी रुद्राक्ष देवता स्वरुप है,पापो को दूर करने वाला और अर्धनारीइश्वर स्वरुप है |
लाभ- दो मुखी रुद्राक्ष धारण करने से अर्धनारीइश्वर प्रस्सन होते है |
मंत्र- दो मुखी रुद्राक्ष को “ॐ नमः “ का जाप कर के धारण करे |
♦तीन मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- तीन मुखी रुद्राक्ष अग्नि स्वरुप है |
लाभ- तीन मुखी रुद्राक्ष हत्या आदि पापो को दूर करने में समर्थ है,शौर्य और ऐश्वर्या को बढाने वाला है |
मंत्र- तीन मुखी रुद्राक्ष को “ॐ क्लीं नमः” का जाप कर के धारण करे|
♦चतुर्मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- चतुर्मुखी रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्म जी का स्वरुप है |
लाभ- चतुर्मुखी रुद्राक्ष के स्पर्श और दर्शन मात्र से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, की प्राप्ति होती है |
मंत्र- चतुर्मुखी रुद्राक्ष को “ॐ ह्रीं नमः” मन्त्र का जाप कर के धारण करे|
♦ पञ्च मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- पञ्च मुखी रुद्राक्ष पञ्च देवो (विष्णु,शिव,गणेश,सूर्य और देवी) का स्वरुप है |
लाभ- “पञ्च वक्त्रं तु रुद्राक्ष पञ्च ब्रहम स्वरूप्कम “ इस के धारण मात्र से नर हत्या का पाप मुक्त हो जाता है, इस को धारण करने से काल अग्नि स्वरुप अगम्य पाप दूर होते है |
मंत्र – पञ्च मुखी रुद्राक्ष को ” ॐ ह्रीं नमः “ मंत्र का जाप कर के धारण करे |
♦छह मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- छह मुखी रुद्राक्ष साक्षात् कार्तिके स्वरुप है |
लाभ- छह मुखी रुद्राक्ष को धारण करने से श्री और आरोग्य की प्राप्ति होती है |
मंत्र- छह मुखी रुद्राक्ष को “ॐ ह्रीं नमः” मंत्र का जाप कर के धारण करे |
♦सप्त मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- सप्त मुखी रुद्राक्ष साक्षात् कामदेव स्वरुप है |
लाभ- सप्त मुखी रुद्राक्ष अत्यंत भाग्य शाली और स्वर्ण चोरो आदि पापो को दूर करता है |
मंत्र- सप्त मुखी रुद्राक्ष को “ॐ ह्रीं नमः” मंत्र का जाप कर के धारण करे |
♦ अष्ट मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- यह रुद्राक्ष साक्षात् साक्षी विनायक देव है |
लाभ- इस के धारण करने से पञ्च पातको का नाश होता है |
मंत्र- इस को “ॐ हम नमः” मंत्र का जाप कर के धारण करने से परम पद की प्राप्ति होती है!
♦नवमुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- इसे भेरव और कपिल मुनि का प्रतीक माना गया है | नौ रूप धारण करने वाली भगवती दुर्गा इस की अधीश्तात्री मानी गई है |
लाभ- जो मनुष्य भगवती परायण हो कर अपनी बाई हाथ अथवा भुजा पर इस को धारण करता है, उस पर नव शक्तिया प्रसन्न होती है वह शिव के सामान बलि हो जाता है |
मंत्र- इसे “ॐ ह्रीं हुं नमः” का जाप कर के धारण करना चाहये |
♦दश मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- दश मुखी रुद्राक्ष साक्षात् भगवान जनादन है |
लाभ- इस के धारण करने से ग्रह, पिचाश,बेताल,ब्रम्ह राक्षश,और नाग आदि का भय दूर होता है |
मंत्र- इसे मंत्र “ॐ ह्रीं नमः” का जाप कर के धारण करना चाहिए |
♦एकादश मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- एकादश मुखी रुद्राक्ष एकादश रुदर स्वरुप है |
लाभ- शिखा पर धारण करने से पुण्य फल,श्रेष्ठ यज्ञो के फल की प्राप्ति होती है |
मंत्र- एकादश मुखी रुद्राक्ष को “ॐ ह्रीं हम नमः” का जाप कर के धारण करने से साधक सर्वत्र विजय होता है |
♦द्वादश मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- द्वादश मुखी रुद्राक्ष महा विष्णु का स्वरुप है |
लाभ- इसे कान में धारण करने से द्वादश आदित्य भी प्रस्सन होते है |
मंत्र- इस रुद्राक्ष को “ॐ क्रों क्षों रों नमः”का जाप कर के धारण करने से साधक साक्षात् विष्णु जी को मही धारण करता है |
♦तेरह मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- तेरह मुखी रुद्राक्ष काम देश स्वरुप है |
लाभ- इस रुद्राक्ष को धारण करने से समस्त कामनाओ की इच्छा भोगो की प्राप्ति होती है |
मंत्र- इसे “ॐ ह्रीं हुम नमः” का जाप कर के धारण करना चाहये |
♦ चौदह मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- चौदह मुखी रुद्राक्ष अक्षि से उत्पन हुआ है,यह भगवान का नेत्र स्वरुप है |
लाभ- इस को धारण करने से साधक शिव तुल्य हो कर सब व्यधियो और रोगों को हर लेता है और आरोग्य प्रदान करता है |
मंत्र- इस रुद्राक्ष को “ॐ नमः शिवाय “ का जाप कर के धारण करना चाहिए |