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आइए जाने की क्या और क्यो होता है नाड़ी दोष ???
हमारे ज्योतिष ग्रंथो के अनुसार नाड़ी तीन प्रकार की होती है, इन नाड़ियो के नाम है आदि नाड़ी, मध्य नाड़ी, अन्त्य नाड़ी। इन नाड़ियो को किस प्रकार विभाजित किया गया है।
♦ आइये इसे जाने :—
1.आदि नाड़ी: ज्येष्ठा, मूल, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, शतभिषा, पूर्वा भाद्र और अश्विनी नक्षत्रों की गणना आदि या आद्य नाड़ी मे की जाती है।
2.मध्य नाड़ी: पुष्य, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, भरणी, घनिष्ठा, पूर्वाषाठा, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तरा भाद्र नक्षत्रों की गणना मध्य नाड़ी मे की जाती है।
3.अन्त्यनाड़ी: स्वाति, विशाखा, कृतिका, रोहणी, आश्लेषा, मघा, उत्तराषाढ़ा, श्रावण और रेवती नक्षत्रो की गणना अन्त्य नाड़ी मे की जाती है। अब जानिए की नाड़ी दोष किन स्थितियों मे लगता है ??
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जब वर और कन्या दोनो के नक्षत्र एक नाड़ी मे हो तब यह दोष लगता है। सभी दोषो मे नाड़ी दोष को सबसे अशुभ माना जाता है क्योंकि इस दोष के लगने से सर्वाधिक गुणांक यानी 8 अंक की हानि होती है। इस दोष के लगने पर शादी की बात आगे बढ़ाने की इज़ाज़त नहीं दी जाती है। आचार्य वाराहमिहिर के अनुसार यदि वर-कन्या दोनो की नाड़ी आदि हो तो उनका विवाह होने पर वैवाहिक सम्बन्ध अधिक दिनो तक कायम नहीं रहता अर्थात उनमे अलगाव हो जाता है। अगर कुण्डली मिलने पर कन्या और वर दोनों की कुण्डली मे मध्य नाड़ी होने पर शादी की जाती है तो दोनो की मृत्यु हो सकती है, इसी क्रम मे अगर वर वधू दोनो की कुण्डली मे अन्त्य नाड़ी होने पर विवाह करने से दोनो का जीवन दु:खमय होता है। इन स्थितियो से बचने के लिए ही तीनो समान नाड़ियो मे विवाह की आज्ञा नही दी जाती है।
महर्षि वशिष्ठ के अनुसार नाड़ी दोष होने पर यदि वर-कन्या के नक्षत्रो मे नज़दीक होने पर विवाह के एक वर्ष के भीतर कन्या की मृत्यु हो सकती है अथवा तीन वर्षों के अन्दर पति की मृत्यु होने से विधवा होने की संभावना रहती है। आयुर्वेद के अन्तर्गतआदि, मध्य और अन्त्य नाड़ियो को वात(Mystique), पित्त (Bile) एवं कफ(Phlegem) की संज्ञा दी गयी है। नाड़ी मानव के शारीरिक स्वस्थ्य को भी प्रभावित करती है। मान्यता है कि इस दोष के होने पर उनकी संतान मानसिक रूप से अविकसित एवं शारीरिक रूप से अस्वस्थ होते है।
♦ जानिए की किन स्थितियो मे नाड़ी दोष नहीं लगता है:–
1. यदि वर-वधू का जन्म नक्षत्र एक ही हो परंतु दोनो के चरण पृथक हो तो नाड़ी दोष नहीं लगता है।
2. यदि वर-वधू की एक ही राशि हो तथा जन्म नक्षत्र भिन्न हो तो नाड़ी दोष से व्यक्ति मुक्त माना जाता है।
3. वर-वधू का जन्म नक्षत्र एक हो परंतु राशियां भिन्न-भिन्न हो तो नाड़ी दोष नहीं लगता है।
♦ नाड़ी दोष का उपचार:
पीयूष धारा के अनुसार स्वर्ण दान, गऊ दान, वस्त्र दान, अन्न दान, स्वर्ण की सर्पाकृति बनाकर प्राणप्रतिष्ठा तथा महामृत्युञ्जय जप करवाने से नाड़ी दोष शान्त हो जाता है।
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आप सभी ज्योतिषाचार्य यह भली भांति जानते है की कुंडली मिलान के लिए प्रयोग की जाने वाली गुण मिलान की प्रक्रिया मे बनने वाले दोषो मे से नाड़ी दोष को सबसे अधिक अशुभ दोष माना जाता है तथा अनेक वैदिक ज्योतिषी यह मानते है कि कुंडली मिलान मे नाड़ी दोष के बनने से बहुत निर्धनता होना, संतान न होना तथावर अथवा वधू दोनो मे से एक अथवा दोनों की मृत्यु हो जाना जैसी भारी मुसीबते भी आ सकतीं है। इसीलिए अनेक ज्योतिषी कुंडली मिलान के समय नाड़ी दोष बनने पर ऐसे लड़के तथा लड़की का विवाह करने से मना कर देते है। आज के इस लेख मे हम किसी कुंडली मे नाड़ी दोष के निर्माण, इसके वास्तविक फल तथा इसके महत्व के बारे मे चर्चा करेंगे तथा यह विचार भी करेंगे कि क्या नाड़ी दोष वास्तव मे ही इतनी गंभीर समस्याओ को जन्म दे सकता है या फिर इस दोष के बारे मे बढ़ा चढ़ा कर लिखा गया है। आप सबसे पहले यह जान लें कि नाड़ी दोष वास्तव मे होता क्या है तथा ये दोष बनता कैसे है। गुण मिलान की प्रक्रिया मे आठ कूटों का मिलान किया जाता है जिसके कारण इसे अष्टकूट मिलान भी कहा जाता है तथा ये आठ कूट है, वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी तथा आइए अब देखें कि नाड़ी नाम का यह कूट वास्तव मे होता क्या है।
नाड़ी तीन प्रकार की होती है, आदि नाड़ी, मध्या नाड़ी तथा अंत नाड़ी प्रत्येक व्यक्ति की जन्म कुंडली मे चन्द्रमा की किसी नक्षत्र विशेष मे उपस्थिति से उस व्यक्ति की नाड़ी का पता चलता है। नक्षत्र संख्या मे कुल 27 होते है तथा इनमे से किन्हीं 9 विशेष नक्षत्रों मे चन्द्रमा के स्थित होने से कुंडली धारक की कोई एक नाड़ी होती है।
♦ ध्यान रखे की चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों मे स्थित होने से कुंडली धारक की आदि नाड़ी होती है :– अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तर फाल्गुणी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा तथा पूर्व भाद्रपद।
♦ ध्यान रखे की चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रो मे स्थित होने से कुंडली धारक की मध्य नाड़ी होती है :– भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्व फाल्गुणी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा तथा उत्तर भाद्रपद।
♦ ध्यान रखे की चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रो मे स्थित होने से कुंडली धारक की अंत नाड़ी होती है :
कृत्तिका, रोहिणी, श्लेषा, मघा, स्वाती, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण तथा रेवती।गुण मिलान करते समय यदि वर और वधू की नाड़ी अलग-अलग हो तो उन्हे नाड़ी मिलान के 8 मे से 8 अंक प्राप्त होते है, जैसे कि वर की आदि नाड़ी तथा वधू की नाड़ी मध्य अथवा अंत। किन्तु यदि वर और वधू की नाड़ी एक ही हो तो उन्हें नाड़ी मिलान के 8 मे से 0 अंक प्राप्त होते है तथा इसे नाड़ी दोष का नाम दिया जाता है। नाड़ी दोष की प्रचलित धारणा के अनुसार वर-वधू दोनों की नाड़ी आदि होने की स्थिति मे तलाक या अलगाव की प्रबल संभावना बनती है तथा वर-वधू दोनो की नाड़ी मध्य या अंत होने से वर-वधू मे से किसी एक या दोनो की मृत्यु की प्रबल संभावना बनती है।
♦ नाड़ी दोष को निम्नलिखित स्थितियो मे निरस्त माना जाता है :
यदि वर-वधू दोनो का जन्म एक ही नक्षत्र के अलग-अलग चरणो मे हुआ हो तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के पश्चात भी नाड़ी दोष नहीं बनता। यदि वर-वधू दोनो की जन्म राशि एक ही हो किन्तु नक्षत्र अलग-अलग हों तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के पश्चात भी नाड़ी दोष नहीं बनता। यदि वर-वधू दोनो का जन्म नक्षत्र एक ही हो किन्तु जन्म राशियां अलग-अलग हो तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के पश्चात भी नाड़ी दोष नहीं बनता। आइए अब किसी कुंडली मे नाड़ी दोष के निर्माण का वैज्ञानिक ढंग से तथा किसी इस दोष के साथ जुड़े अशुभ फलो का व्यवहारिक दृष्टि से विशलेषण करे तथा इस दोष के निर्माण तथा फलादेश की सत्यता की जांच करे। जैसा कि हम जान गए है कि कुल मिला कर तीन नाड़ियां होतीं है तथा प्रत्येक व्यक्ति की इन्हीं तीन नाड़ियों मे से एक नाड़ी होती है, इस लिए प्रत्येक पुरुष की प्रत्येक तीसरी स्त्री के समान नाड़ी होगी जिससे प्रत्येक पुरुष तथा स्त्री के लिए हर तीसरा पुरुष या स्त्री केवल नाड़ी दोष के बनने के कारण ही प्रतिकूल हो जाएगा जिसके चलते लगभग 33% विवाह तो नाड़ी दोष के कारण ही संभव नहीं हो पायेंगे। उदाहरण के लिए यदि किसी पुरुष की नाड़ी आदि है तो लगभग प्रत्येक तीसरी स्त्री की नाड़ी भी आदि होने के कारण इस प्रकार के कुंडली मिलान मे नाड़ी दोष बन जाएगा जिसके चलते विवाह न करने का परामर्श दिया जाता है। जैसा कि हम सभी जानते है कि भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य लगभग किसी भी देश मे कुंडली मिलान अथवा गुण मिलान जैसी प्रक्रियाओं का प्रयोग नहीं किया जाता इसलिए इन देशों मे होने वाला प्रत्येक तीसरा विवाह नाड़ी दोष से पीड़ित है जिसके चलते इन देशो मे होने वाले विवाहो मे तलाक अथवा पति पत्नि मे से किसी एक की मृत्यु की दर केवल नाड़ी दोष के कारण ही 33% होनी चाहिए।
यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि नाड़ी दोष कुंडलीं मिलान के समय बनने वाले अनेक दोषों मे से केवल एक दोष है तथा कुंडली मिलान मे बनने वाले अन्य कई दोषों जैसे कि भकूट दोष, गण दोष, काल सर्प दोष, मांगलिक दोष आदि मे से प्रत्येक दोष भी अपनी प्रचलित परिभाषा के अनुसार लगभग 50% कुंडली मिलान के मामलो मे तलाक तथा वैध्वय जैसीं समस्याएं पैदा करने मे पूरी तरह से सक्षम है।
इन सभी दोषो को भी ध्यान मे रखते हुए यह कहा जा सकता है कि संसार मे होने वाला लगभग प्रत्येक विवाह ही तलाक अथवा वैध्वय जैसी समस्याओं का सामना करेगा क्योंकि अपनी प्रचलित परिभाषाओं के अनुसार इनमे से कोई एक अथवा एक से अधिक दोष लगभग प्रत्येक कुंडलीं मिलान के मामले मे बन जाएगा। क्योंकि यह तथ्य वास्तविकता से बहुत परे है इसलिए यह मान लेना चाहिए कि नाड़ी दोष तथा ऐसे अन्य दोष अपनी प्रचलित परिभाषाओ के अनुसार क्षति पहुंचाने मे सक्षम नहीं है। इसलिए कुंडली मिलान के किसी मामले मे केवल नाड़ी दोष का उपस्थित होना अपने आप मे ऐसे विवाह को तोड़ने में सक्षम नहीं है तथा ऐसा होने के लिए कुंडली मे किसी ग्रह द्वारा बनाया गया कोई अन्य गंभीर दोष अवश्य होना चाहिए। मैने अपने ज्योतिष के कार्यकाल मे हजारों कुंडलियों का मिलान किया है तथा यह देखा है कि केवल नाड़ी दोष के उपस्थित होने से ही विवाह मे कोई गंभीर समस्याएं पैदा नहीं होतीं तथा ऐसे बहुत से विवाहित जोड़ों की कुंडलियां मेरे पास हैं जहां पर कुंडली मिलान के समय नाड़ी दोष बनता है किन्तु फिर भी ऐसे विवाह वर्षों से लगभग हर क्षेत्र मे सफल है जिसका कारण यह है कि लगभग इन सभी मामलो मे ही वर वधू की कुंडलियों मे विवाह के शुभ फल बताने वाले कोई योग हैं जिनके कारण नाड़ी दोष का प्रभाव इन कुंडलियों से लगभग समाप्त हो गया है।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि किसी भी कुंडली मे किसी ग्रह द्वारा बनाया गया विवाह संबंधी कोई शुभ या अशुभ योग गुण मिलान के कारण बनने वाले दोषों की तुलना मे बहुत अधिक प्रबल होता है तथा दोनो का टकराव होने की स्थिति मे लगभग हर मामले मे ही विजय कुंडली मे बनने वाले शुभ अथवा अशुभ योग की ही होती है। इसलिए कुंडली मे विवाह संबंधी बनने वाला मांगलिक योग अथवा मालव्य योग जैसा कोई शुभ योग गुण मिलान मे नाड़ी दोष अथवा अन्य भी दोष बनने के पश्चात भी जातक को सफल तथा सुखी वैवाहिक जीवन देने मे सक्षम है जबकि कुंडली मे विवाह संबंधी बनने वाले मांगलिक दोष अथवा काल सर्प दोष जैसे किसी भयंकर दोष के बन जाने से नाड़ी मिलने के पश्चात तथा 36 मे से 30 या इससे भी अधिक गुण मिलने के पश्चात भी ऐसे विवाह टूट जाते है अथवा गंभीर समस्याओ का सामना करते है।
इसलिए विवाह के लिए उपस्थित संभावित वर वधू को केवल नाड़ी दोष के बन जाने के कारण ही आशा नहीं छोड़ देनी चाहिए तथा अपनी कुंडलियों का गुण मिलान के अलावा अन्य विधियो से पूर्णतया मिलान करवाना चाहिए क्योंकि इन कुंडलियों के आपस मे मिल जाने से नाड़ी दोष अथवा गुण मिलान से बनने वाला ऐसा ही कोई अन्य दोष ऐसे विवाह को कोई विशेष हानि नहीं पहुंचा सकता। इसके पश्चात एक अन्य शुभ समाचार यह भी है कि कुंडली मिलान मे बनने वाले नाड़ी दोष का निवारण अधिकतर मामलो मे ज्योतिष के उपायो से सफलतापूर्वक किया जा सकता है जो हमे इस दोष से न डरने का एक और कारण देता है।
कल्याण हो। शुभम भवतु।
by पण्डित “विशाल” दयानन्द शास्त्री.
जानिए वास्तु अनुसार किस दिशा मे हो रसोई/किचन:
किसी भी घर/भवन मे किचन (रसोईघर) अत्यन्त महत्वपूर्ण है। घर की गृहिणी का किचन से विशेष नाता रहता है। गृहणियां हमेशा इस बात का खयाल रखती है कि उनका किचन आग्नेय कोण मे हो और यदि ऐसा नहीं हो तो किसी भी परेशानी का कारण किचन के वास्तुदोष पूर्ण होने को ही मान लिया जाता है, जो उचित नहीं है। वेसे तो यह सही है कि घर के आग्नेय कोण मे किचन का स्थान सर्वोत्तम है, पर यदि संभव हो तो उसे किसी अन्य स्थान पर बनाया जा सकता है।
♦ आग्नेय कोण:
किचन की यह स्थिति बहुत शुभ होती है । आग्नेय कोण मे किचन होने पर घर की स्त्रियां खुश रहती है। घर मे समस्त प्रकार के सुख रहते है।
♦ ईशान कोण (दिशा) मे रसोईघर:
घर के ईशान कोण मे रसोईघर का होना शुभ नहीं है। रसोईघर की यह स्थिति घर के सदस्यो के लिए भी शुभ नहीं है। इस स्थान मे रसोईघर होने से निम्नप्रकार कि समस्या आ सकती है यथा —
खाना बनाने मे गृहिणी की रूचि नहीं होना, परिवार के सदस्यो का स्वास्थ्य खराब रहना, धन की हानि, वंश वृद्धि रूक जाना, कम लड़के का होना तथा मानसिक तनाव इत्यादि का सामना करना पड़ता है। इस दिशा मे रसोईघर बनाने से अपव्यय (बेवजह खर्च होना) एवं दुर्घटना होता है अतः भूलकर भी इस दिशा मे रसोईघर नहीं बनवाना चाहिए।
♦ उत्तर दिशा मे रसोईघर:
उत्तर दिशा रसोई घर के लिए अशुभ है। इस स्थान का रसोईघर आर्थिक नुकसान देता है इसका मुख्य कारण है कि उत्तर दिशा धन का स्वामी कुबेर का स्थान है यहाँ रसोईघर होने से अग्नि धन को जलाने मे समर्थ होती है इस कारण यहाँ रसोई घर नहीं बनवानी चाहिए। हां यदि गरीबी जीवन या सब कुछ होने हुए भी कुछ नहीं है का रोना रोना है तो आप रसोईघर बना सकते है।
♦ वायव्य कोण मे रसोईघर (उत्तर-पश्चिम दिशा) :
विकल्प के रूप मे वायव्य कोण मे रसोईघर का चयन किया जा सकता है। परन्तु अग्नि भय का डर बना रह सकता है। अतः सतर्क रहने की जरूरत है।
♦ पश्चिम दिशा मे रसोईघर :
पश्चिम दिशा मे रसोईघर होने से आए दिन अकारण घर मे क्लेश होती रहती है कई बार तो यह क्लेश तलाक का कारण भी बन जाता है। संतान पक्ष से भी परेशानी आती है।
♦ नैर्ऋत्य कोण मे रसोईघर (दक्षिण-पश्चिम दिशा) :
इस दिशा मे रसोईघर बहुत ही अशुभ फल देता है। नैऋत्य कोण मे रसोईघर बनवाने से आर्थिक हानि तथा घर मे छोटी-छोटी समस्या बढ़ जाती है। यही नहीं घर के कोई एक सदस्य या गृहिणी शारीरिक और मानसिक रोग के शिकार भी हो सकते है। दिवा स्वप्न बढ़ जाता है और इसके कारण गृह क्लेश और दुर्घटना की सम्भावना भी बढ़ जाती है।
♦ दक्षिण दिशा मे रसोईघर :
दक्षिण दिशा मे रसोई घर बनाने से आर्थिक नुकसान हो सकता है। मन मे हमेशा बेचैनी बानी रहेगी। कोई भी काम देर से होगा। मानसिक रूप से हमेशा परेशान रह सकते है।
♦ आग्नेय कोण मे रसोईघर (दक्षिण-पूर्व दिशा ) :
दक्षिण- पूर्व । आग्नेय कोण मे रसोई घर बनाना सबसे अच्छा मान गया है। इस स्थान मे रसोई होने से घर मे धन-धान्य की वृद्धि होती है। घर के सदस्य स्वस्थ्य जीवन व्यतीत करते है।
♦ पूर्व दिशा मे रसोईघर :
पूर्व दिशा मे किचन होना अच्छा नहीं है फिर भी विकल्प के रूप मे इस दिशा मे रसोई घर बनाया जा सकता है। इस दिशा मे रसोई होने से पारिवारिक सदस्यो के मध्य स्वभाव मे रूखापन आ जाता है। वही एक दुसरे पर आरोप प्रत्यारोप भी बढ़ जाता है। वंश वृद्धि मे भी समस्या आती है। जिस घर मे पूर्व दिशा मे किचन होता है, उसकी आय अच्छी होती है। घर की पूरी कमान पत्नी के पास होती है। पत्नी की खुशियों मे कमी रहती है। साथ ही उसे पित्त गर्भाशय स्नायु तंत्र आदि से संबंधित तोग होने की सम्भावना रहती है।
»किचन से जुड़ी कुछ अन्य जानकारियां निम्नलिखित है, जिनका किचन बनाते समय ध्यान रखना चाहिए-
♦ (जिस घर मे किचन के अंदर ही स्टोर हो तो गृहस्वामी को अपनी नौकरी या व्यापार मे काफी कठिनाइयो का सामना करना पड़ता है। इन कठिनाइयो से बचाव के लिए किचन व स्टोर रूम अलग-अलग बनाने चाहिए।
♦ किचन व बाथरूम का एक सीध मे साथ-साथ होना शुभ नहीं होता है। ऐसे घर मे रहने वालो को जीवन यापन करने मे काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। ऐसे घर की कन्याओं के जीवन मे अशांति बानी रहती है।
ये कुछ सरल वास्तु टिप्स (उपाय) है, जिन्हे आजमा कर आप अपनी स्थित सुधार सकते है। यदि फिर भी स्थिति न सुधरे, तो किसी योग्य और अनुभवी वास्तु-सलाहकार को अपने घर, प्रतिष्ठान या कार्यालय मे बुलाकर अपने वास्तु दोष का निवारण अवश्य करवाना चाहिए।
by Pandit Dayanand Shastri.
जानिए रुद्राक्ष का महत्व,रुद्राक्ष धारण विधि और रुद्राक्ष के ज्योतिषीय लाभ तथा रुद्राक्ष का प्रयोग कैसे करें ??
जानिए रुद्राक्ष क्या है ??
रुद्राक्ष मानव जाति को भगवान के द्वारा एक अमूल्य देन है। रुद्राक्ष भगवान षिव का अंष है। रुद्राक्ष धारण करना भगवान षिव के दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने का साधन है। सभी मनुष्य रुद्राक्ष धारण कर सकते है । भारतीय संस्कृति मे रुद्राक्ष का बहुत महत्व है। माना जाता है कि रुद्राक्ष इंसान को हर तरह की हानिकारक ऊर्जा से बचाता है। इसका इस्तेमाल सिर्फ तपस्वियो के लिए ही नहीं, बल्कि सांसारिक जीवन मे रह रहे लोगों के लिए भी किया जाता है।
हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार ब्राह्मण को श्वेतवर्ण के रुद्राक्ष, क्षत्रिय को रक्तवर्ण के रुद्राक्ष, वैष्य को मिश्रित रुद्राक्ष तथा शूद्र को कृष्णवर्ण के रुद्राक्ष धारण करने चाहिए। रुद्राक्ष धारण करने से बड़ा ही पुण्य प्राप्त होता है तथा जो मनुष्य अपने कण्ठ में बत्तीस, मस्तक पर चालीस, दोनों कानों मे छः-छः, दोनों हाथों में बारह-बारह, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है वह साक्षात भगवान नीलकण्ठ के रूप में जाना जाता है। रुद्राक्ष एक खास तरह के पेड़ का बीज है।
रुद्राक्ष के पेड़ आमतौर पर पहाड़ी इलाकों में एक खास ऊंचाई पर, खासकर हिमालय और पश्चिमी घाट सहित कुछ और जगहों पर भी पाए जाते हैं। अफसोस की बात यह है लंबे समय से इन पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल भारतीय रेल की पटरी बनाने में होने की वजह से, आज देश में बहुत कम रुद्राक्ष के पेड़ बचे है। आज ज्यादातर रुद्राक्ष नेपाल, बर्मा, थाईलैंड या इंडोनेशिया से लाए जाते है।
♦शिवपुराण, लिंगपुराण, एवं सकन्द्पुराण आदि में इस का विशेष रूप से वर्णन किया हुआ है।
♦रुद्राक्ष का स्पर्श, दर्शन, उस पर जप करने से, उस की माला को धारण करने से समस्त पापो का और विघ्नों का नाश होता है ऐसा महादेव का वरदान है, परन्तु धारण की उचित विधि और भावना शुद्ध होनी चाहिए।
♦भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले चारो वर्णों के लोगों को विशेष कर शिव भगतो को शिव पार्वती की प्रार्थना और प्रसंता के लिए रुद्राक्ष जरुर धारण करना चाहिए ।
♦ आवले के फल के सामान रुद्राक्ष समस्त अरिष्टो का नाश करने वाला होता है।
♦ बेर के सामान छोटा दिखने वाला रुद्राक्ष सुख और सौभाग्य कीं वृधि करने वाला
होता है ।
♦ रुद्राक्ष की माला से मंत्र जाप करने से अनंत गुना फल मिलता है।
♦जिस माला मे अपने आप धागा पिरोया जाने योग्य छेद हो वह उत्तम होता है,प्रयत्न कर के धागा पिरोया जाये तो वह माध्यम श्रेणी का रुद्राक्ष होता है ।
इसी कारण रुद्राक्ष धारण करने वाला तथा उसकी आराधना करने वाला व्यक्ति समृद्धि, स्वास्थ्य तथा शांति को प्राप्त करने वाला होता है।
♦ रुद्राक्ष धारण करते समय निम्न सावधानियां बरतनी चाहिए: –
♦ रुद्राक्ष को सिद्ध़ करने के बाद ही धारण करना चाहिए। साथ ही इसे किसी पवित्र दिन में ही धारण करना चाहिए।
♦ प्रातःकाल रुद्राक्ष को धारण करते समय तथा रात में सोने के पहले रुद्राक्ष उतारने के बाद रुद्राक्ष मंत्र तथा रुद्राक्ष उत्पत्ति मंत्र का नौ बार जाप करना चाहिए ।
♦रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति को मांसाहारी भोजन का त्याग कर देना चाहिए तथा शराब/एल्कोहल का सेवन भी नहीं करना चाहिए ।
♦ ग्रहण, संक्रांति, अमावस्या और पूर्णमासी आदि पर्वों और पुण्य दिवसों पर रुद्राक्ष अवष्य धारण करना चाहिए।
♦ श्मषान स्थल तथा शवयात्रा के दौरान भी रुद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही जब किसी के घर में बच्चे का जन्म हो उस स्थल पर भी रुद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिए ।यौन सम्बंधों के समय भी रुद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिए। स्त्रियों को मासिक धर्म के समय रुद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिए।
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♦ जानिए किस दिन करे रुद्राक्ष धारण ??
रूद्राक्ष को हमेशा सोमवार के दिन प्रात:काल शिव मन्दिर में बैठकर गंगाजल या कच्चे दूध में धो कर, लाल धागे में अथवा सोने या चांदी के तार में पिरो कर धारण किया जा सकता है।
रुद्राक्षधारण करने का शुभ महूर्त– मेष संक्रांति पूर्णिमा,अक्षय त्रितय,दीपावली,चेत्र शुकल प्रतिपदा,अयन परिवर्तन काल ग्रहण काल,गुरु पुष्य ,रवि पुष्य,द्वि और त्रिपुष्कर योग में रुद्राक्ष धारण करने से समस्त पापो का नाश होता है।
यदि किसी कारणवश रुद्राक्ष के विशेषरुद्राक्ष मंत्रों से धारण न कर सके तो इस सरल विधि का प्रयोग करके धारणकर लें। रुद्राक्ष के मनकों को शुद्ध लाल धागे में माला तैयार करने के बादपंचामृत (गंगाजल मिश्रित रूप से) और पंचगव्य को मिलाकर स्नान करवानाचाहिए और प्रतिष्ठा के समय ॐ नमः शिवाय इस पंचाक्षर मंत्र को पढ़नाचाहिए। उसके पश्चात पुनः गंगाजल में शुद्ध करके निम्नलिखित मंत्र पढ़तेहुए चंदन, बिल्वपत्र, लालपुष्प, धूप, दीप द्वारा पूजन करके अभिमंत्रित करे और “ॐ तत्पुरुषाय विदमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्र: प्रचोदयात”।। इससेअभिमंत्रित करके धारण करना चाहिए।
शिवपूजन, मंत्र, जप, उपासना आरंभकरने से पूर्व ऊपर लिखी विधि के अनुसार रुद्राक्ष माला को धारण करने एवंएक अन्य रुद्राक्ष की माला का पूजन करके जप करना चाहिए। जपादि कार्यों में छोटे और धारण करने में बड़े रुद्राक्षों का ही उपयोग करे। तनाव से मुक्ति हेतु 100 दानों की, अच्छी सेहत एवं आरोग्य के लिए 140 दानों की, अर्थ प्राप्ति के लिए 62 दानों की तथा सभी कामनाओं की पूर्ति हेतु 108 दानों की माला धारण करे। जप आदि कार्यों में 108 दानों की माला ही उपयोगी मानी गई है। अभीष्ट की प्राप्ति के लिए 50 दानों की माला धारण करे। द्गिाव पुराण के अनुसार 26 दानों की माला मस्तक पर, 50 दानों की माला हृदय पर, 16 दानों की माला भुजा पर तथा 12 दानों की माला मणिबंध पर धारण करनी चाहिए। जिस रुद्राक्ष माला से जप करते हो, उसे धारण नहीं करे। इसी प्रकार जो माला धारण करें, उससे जप न करे। दूसरों के द्वारा उपयोग मे लाए गए रुद्राक्ष या रुद्राक्ष माला को प्रयोग में न लाएं।
♦ रुद्राक्ष की प्राण-प्रतिष्ठा कर शुभ मुहूर्त मे ही धारण करना चाहिए
ग्रहणे विषुवे चैवमयने संक्रमेऽपि वा।
दर्द्गोषु पूर्णमसे च पूर्णेषु दिवसेषु च।
रुद्राक्षधारणात् सद्यः सर्वपापैर्विमुच्यते॥
ग्रहण में, विषुव संक्रांति (मेषार्क तथा तुलार्क) के दिनों, कर्क और मकर संक्रांतियों के दिन, अमावस्या, पूर्णिमा एवं पूर्णा तिथि को रुद्राक्ष धारण करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है।
मद्यं मांस च लसुनं पलाण्डुं द्गिाग्रमेव च। श्लेष्मातकं विड्वराहमभक्ष्यं वर्जयेन्नरः॥ (रुद्राक्षजाबाल-17)
रुद्राक्ष धारण करने वाले को यथासंभव मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन, निसोडा और विड्वराह (ग्राम्यशूकर) का परित्याग करना चाहिए। सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी प्रकृति के मनुष्य वर्ण, भेदादि के अनुसार विभिन्न प्रकर के रुद्राक्ष धारण करें। रुद्राक्ष को शिवलिंग अथवा शिव-मूर्ति के चरणों से स्पर्द्गा कराकर धारण करे।रुद्राक्ष हमेद्गाा नाभि के ऊपर शरीर के विभिन्न अंगों (यथा कंठ, गले, मस्तक, बांह, भुजा) में धारण करें, यद्यपि शास्त्रों मे विशेष परिस्थिति में विद्गोष सिद्धि हेतु कमर मे भी रुद्राक्ष धारण करने का विधान है। रुद्राक्ष अंगूठी मे कदापि धारण नहीं करे, अन्यथा भोजन-द्गाौचादि क्रिया मे इसकी पवित्रता खंडित हो जाएगी।
रुद्राक्ष पहन कर श्मद्गाान या किसी अंत्येष्टि-कर्म मे अथवा प्रसूति-गृह मे न जाएं। स्त्रियां मासिक धर्म के समय रुद्राक्ष धारण न करे। रुद्राक्ष धारण कर रात्रि शयन न करे।
रुद्राक्ष में अंतर्गर्भित विद्युत तरंगें होती हैं जो शरीर में विद्गोष सकारात्मक और प्राणवान ऊर्जा का संचार करने में सक्षम होती है। इसी कारण रुद्राक्ष को प्रकृति की दिव्य औषधि कहा गया है। अतः रुद्राक्ष का वांछित लाभ लेने हेतु समय-समय पर इसकी साफ-सफाई का विद्गोष खयाल रखें। शुष्क होने पर इसे तेल मे कुछ समय तक डुबाकर रखें।
रुद्राक्ष स्वर्ण या रजत धातु में धारण करे। इन धातुओं के अभाव मे इसे ऊनी या रेशमी धागे में भी धारण कर सकते हैं। अधिकतर रुद्राक्ष यद्यपि लाल धागे में धारण किए जाते हैं, किंतु एक मुखी रुद्राक्ष सफेद धागे, सात मुखी काले धागे और ग्यारह, बारह, तेरह मुखी तथा गौरी-शंकर रुद्राक्ष पीले धागे मे भी धारण करने का विधान है। रूद्राक्ष को देखने भर से ही लाखों कष्ट दूर हो जाते हैं और इसे धारण करने पर करोडों लाभ प्राप्त होते है तथा इसे पहनकर मंत्र जाप करने से यह और भी ज्यादा प्रभावशाली होता है।
रूद्राक्ष वर्णन : जो रूद्राक्ष आंवले के आकार जितना बड़ा होता है वह रूद्राक्ष अच्छा होता है, जो रूद्राक्ष एक बदारी फल (भारतीय बेरी) के रूप में होता है वह मध्यम प्रकार का माना जाता है. जो रूद्राक्ष चने के जैसा छोटा होता है वह सबसे बुरा माना जाता है। यह रूद्राक्ष माला के आकार के बारे में मेरा विचार है।
इसके बाद वह कहते है कि ब्राह्मण सफेद रूद्राक्ष है। लाल एक क्षत्रिय है। पीला एक वैश्य है और काले रंग का रूद्राक्ष एक शूद्र है.इसलिए, एक ब्राह्मण को सफेद रूद्राक्ष, एक क्षत्रिय को लाल, एक वैश्य को पीला और एक शूद्र को काला रूद्राक्ष धारण करना चाहिए।
उन रूद्राक्ष-मोती को उपयोग में लाना चाहिए जो सुन्दर, मजबूत, बड़ा, तथा कांटेदार हो और उन रूद्राक्ष को नहीं लेना चहिए जो कहीं से टूटा हो या उस पर कीडा लगा है या कांटे बिना हो उचित नहीं होता, जिस रूद्राक्ष में प्रकृतिक रूप से छिद्र बना होता है वह उत्तम होता है और जिसमें खुद छेद किया जाए वह अच्छा नहीं होता, भगवान शिव के भक्त को रूद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए।
रुद्राक्ष धारण करने के लिए शुभ मुहूर्त या दिन का चयन कर लेना चाहिए। इस हेतु सोमवार उत्तम है। धारण के एक दिन पूर्व संबंधित रुद्राक्ष को किसी सुगंधित अथवा सरसों के तेल में डुबाकर रखें। धारण करने के दिन उसे कुछ समय के लिए गाय के कच्चे दूध में रख कर पवित्र कर लें। फिर प्रातः काल स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर क्क नमः शिवाय मंत्र का मन ही मन जप करते हुए रुद्राक्ष को पूजास्थल पर सामने रखें। फिर उसे पंचामृत (गाय का दूध, दही, घी, मधु एवं शक्कर) अथवा पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, मूत्र एवं गोबर) से अभिषिक्त कर गंगाजल से पवित्र करके अष्टगंध एवं केसर मिश्रित चंदन का लेप लगाकर धूप, दीप और पुष्प अर्पित कर विभिन्न शिव मंत्रों का जप करते हुए उसका संस्कार करें।
तत्पश्चात संबद्ध रुद्राक्ष के शिव पुराण अथवा पद्म पुराण वर्णित या शास्त्रोक्त बीज मंत्र का 21, 11, 5 अथवा कम से कम 1 माला जप करें। फिर शिव पंचाक्षरी मंत्र क्क नमः शिवाय अथवा शिव गायत्री मंत्र क्क तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् का 1 माला जप करके रुद्राक्ष-धारण करे। अंत में क्षमा प्रार्थना करें। रुद्राक्ष धारण के दिन उपवास करें अथवा सात्विक अल्पाहार ले।
विशेष: उक्त क्रिया संभव नहीं हो, तो शुभ मुहूर्त या दिन में (विशेषकर सोमवार को) संबंधित रुद्राक्ष को कच्चे दूध, पंचगव्य, पंचामृत अथवा गंगाजल से पवित्र करके, अष्टगंध, केसर, चंदन, धूप, दीप, पुष्प आदि से उसकी पूजा कर शिव पंचाक्षरी अथवा शिव गायत्री मंत्र का जप करके पूर्ण श्रद्धा भाव से धारण करें।
विशेष सावधानी : रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति को तामसिक पदार्थों से दूर रहना चाहिए. मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन आदि का त्याग करना हितकर होता है। आत्मिक शुद्धता के द्वारा ही रुद्राक्ष के लाभ को प्राप्त किया जा सकता है। रुद्राक्ष मन को पवित्र कर विचारों को पवित्र करता है।
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♦ रुद्राक्ष का महत्व:
रुद्राक्ष की खासियत यह है कि इसमें एक अनोखे तरह का स्पदंन होता है। जो आपके लिए आप की ऊर्जा का एक सुरक्षा कवच बना देता है, जिससे बाहरी ऊर्जाएं आपको परेशान नहीं कर पातीं। इसीलिए रुद्राक्ष ऐसे लोगों के लिए बेहद अच्छा है जिन्हें लगातार यात्रा में होने की वजह से अलग-अलग जगहों पर रहना पड़ता है।
आपने गौर किया होगा कि जब आप कहीं बाहर जाते हैं, तो कुछ जगहों पर तो आपको फौरन नींद आ जाती है, लेकिन कुछ जगहों पर बेहद थके होने के बावजूद आप सो नहीं पाते।
इसकी वजह यह है कि अगर आपके आसपास का माहौल आपकी ऊर्जा के अनुकूल नहीं हुआ तोआपका उस जगह ठहरना मुश्किल हो जाएगा। चूंकि साधु-संन्यासी लगातार अपनी जगह बदलते रहते है, इसलिए बदली हुई जगह और स्थितियों में उनको तकलीफ हो सकती है।उनका मानना था कि एक ही स्थान पर कभी दोबारा नहीं ठहरना चाहिए। इसीलिए वे हमेशा रुद्राक्ष पहने रहते थे। आज के दौर में भी लोग अपने काम के सिलसिले मे यात्रा करते और कई अलग-अलग जगहों पर खाते और सोते हैं। जब कोई इंसान लगातार यात्रा मे रहता है या अपनी जगह बदलता रहता है, तो उसके लिए रुद्राक्ष बहुत सहायक होता है।
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♦ जानिए रुद्राक्ष के फायदे:
रुद्राक्ष के संबंध में एक और बात महत्वपूर्ण है। खुले में या जंगलों में रहने वाले साधु-संन्यासी अनजाने सोत्र का पानी नहीं पीते, क्योंकि अक्सर किसी जहरीली गैस या और किसी वजह से वह पानी जहरीला भी हो सकता है। रुद्राक्ष की मदद से यह जाना जा सकता है कि वह पानी पीने लायक है या नहीं। रुद्राक्ष को पानी के ऊपर पकड़ कर रखने से अगर वह खुद-ब-खुद घड़ी की दिशा में घूमने लगे, तो इसका मतलब है कि वह पानी पीने लायक है। अगर पानी जहरीला या हानि पहुंचाने वाला होगा तो रुद्राक्ष घड़ी की दिशा से उलटा घूमेगा। इतिहास के एक
खास दौर में, देश के उत्तरी क्षेत्र में, एक बेहद बचकानी होड़ चली।
वैदिककाल में सिर्फ एक ही भगवान को पूजा जाता था – रुद्र यानी शिव को। समय के साथ-साथ वैष्णव भी आए। अब इन दोनों में द्वेष भाव इतना बढ़ा कि वैष्णव लोग शिव को पूजने वालों, खासकर संन्यासियों को अपने घर बुलाते और उन्हें जहरीला भोजन परोस देते थे। ऐसे में संन्यासियों ने खुद को बचाने का एक अनोखा तरीका अपनाया। काफी शिव भक्त आज भी इसी परंपरा का पालन करते हैं। अगर आप उन्हें भोजन देंगे, तो वे उस भोजन को आपके घर पर नहीं खाएंगे, बल्कि वे उसे किसी और जगह ले जाकर, पहले उसके ऊपर रुद्राक्ष रखकर यह जांचेंगे कि भोजन खाने लायक है या नहीं।
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रुद्राक्ष माला रुद्राक्ष अपने विभिन्न गुणों के कारण व्यक्ति को दिया गया ‘प्रकृति का अमूल्य उपहार है’ मान्यता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के नेत्रों से निकले जलबिंदुओं से हुई है. अनेक धर्म ग्रंथों में रुद्राक्ष के महत्व को प्रकट किया गया है जिसके फलस्वरूप रुद्राक्ष का महत्व जग प्रकाशित है। रुद्राक्ष को धारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है इसे धारण करके की गई पूजा हरिद्वार, काशी, गंगा जैसे तीर्थस्थलों के समान फल प्रदान करती है। रुद्राक्ष की माल द्वारा मंत्र उच्चारण करने से फल प्राप्ति की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। इसे धारण करने से व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। रुद्राक्ष की माला अष्टोत्तर शत अर्थात 108 रुद्राक्षों की या 52 रुद्राक्षों की होनी चाहिए अथवा सत्ताईस दाने की तो अवश्य हो इस संख्या मे इन रुद्राक्ष मनकों को पहना विशेष फलदायी माना गया है। शिव भगवान का पूजन एवं मंत्र जाप रुद्राक्ष की माला से करना बहुत प्रभावी माना गया है तथा साथ ही साथ अलग-अलग रुद्राक्ष के दानों की माला से जाप या पूजन करने से विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति होती है।
♦ माला में रुद्राक्ष की संख्या:
माला में रुद्राक्ष के मनकों की संख्या उसके महत्व का परिचय देती है। भिन्न-भिन्न संख्या मे पहनी जाने वाली रुद्राक्ष की माला निम्न प्रकार से फल प्रदान करने मे सहायक होती है जो इस प्रकार है-
रुद्राक्ष के सौ मनकों की माला धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। रुद्राक्ष के एक सौ आठ मनकों को धारण करने से समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। इस माला को धारण करने वाला अपनी पीढ़ियों का उद्घार करता है रुद्राक्ष के एक सौ चालीस मनकों की माला धारण करने से साहस, पराक्रम और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। रुद्राक्ष के बत्तीस दानों की माला धारण करने से धन, संपत्ति एवं आय में वृद्धि होती है। रुद्राक्ष के 26 मनकों की माला को सर पर धारण करना चाहिए रुद्राक्ष के 50 दानों की माला कंठ में धारण करना शुभ होता है। रुद्राक्ष के पंद्रह मनकों की माला मंत्र जप तंत्र सिद्धि जैसे कार्यों के लिए उपयोगी होती है।रुद्राक्ष के सोलह मनकों की माला को हाथों में धारण करना चाहिए। रुद्राक्ष के बारह दानों को मणिबंध मे धारण करना शुभदायक होता है। रुद्राक्ष के 108, 50 और 27 दानों की माला धारण करने या जाप करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।
♦ रुद्राक्ष की माला महत्व :
रुद्राक्ष की माला को धारण करने पर इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है कि कितने रुद्राक्ष की माला धारण कि जाए। क्योंकि रुद्राक्ष माला मे रुद्राक्षों की संख्या उसके प्रभाव को परिलक्षित करती है। रुद्राक्ष धारण करने से पापों का शमन होता है। आंवले के सामान वाले रुद्राक्ष को उत्तम माना गया है। सफेद रंग का रुद्राक्ष ब्राह्मण को, रक्त के रंग का रुद्राक्ष क्षत्रिय को, पीत वर्ण का वैश्य को और कृष्ण रंग का रुद्राक्ष शुद्र को धारण करना चाहिए।
रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति को लहसुन, प्याज तथा नशीले भोज्य पदार्थों तथा मांसाहार का त्याग करना चाहिए। सक्रांति, अमावस, पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन रुद्राक्ष धारण करना शुभ माना जाता है। सभी वर्ण के मनुष्य रुद्राक्ष को पहन सकते है। रुद्राक्ष का उपयोग करने से व्यक्ति भगवान शिव के आशीर्वाद को पाता है। व्यक्ति को दिव्य-ज्ञान की अनुभूति होती है। व्यक्ति को अपने गले में बत्तीस रुद्राक्ष, मस्तक पर चालीस रुद्राक्ष, दोनों कानों में 6,6 रुद्राक्ष, दोनों हाथों में बारह-बारह, दोनो भुजाओं मे सोलह-सोलह, शिखा में एक और वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है, वह साक्षात भगवान शिव को पाता है।
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♦ जानिए रुद्राक्ष की पहचान कैसे करें ??
रुद्राक्ष हमेशा उन्हीं लोगों से संबंधित रहा है, जिन्होंने इसे अपने पावन कर्तव्य के तौर पर अपनाया। परंपरागत तौर पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे सिर्फ रुद्राक्ष का ही काम करते रहे थे। हालांकि यह उनके रोजी रोटी का साधन भी रहा, लेकिन मूल रूप से यह उनके लिए परमार्थ का काम ही था। जैसे-जैसे रुद्राक्ष की मांग बढ़ने लगी, इसने व्यवसाय का रूप ले लिया। आज, भारत में एक और बीज मिलता है, जिसे भद्राक्ष कहते हैं और जो जहरीला होता है। भद्राक्ष का पेड़ उत्तर प्रदेश, बिहार और आसपास के क्षत्रो मे बहुतायत में होता है। पहली नजर में यह बिलकुल रुद्राक्ष की तरह दिखता है।
आप असली और नकली रुद्राक्ष को देखकर आप दोनों मे अंतर बता नहीं सकते। अगर आप संवेदनशील हैं, तो अपनी हथेलियों में लेने पर आपको दोनों में अंतर खुद पता चल जाएगा। चूंकि यह बीज जहरीला होता है, इसलिए इसे शरीर पर धारण नहीं करना चाहिए। इसके बावजूद बहुत सी जगहों पर इसे रुद्राक्ष बताकर बेचा जा रहा है। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि जब भी आपको रुद्राक्ष लेना हो, आप इसे किसी भरोसेमंद जगह से ही ले।
जब आप रुद्राक्ष धारण करते है, तो यह आपके प्रभामंडल (औरा) की शुद्धि करता है। इस प्रभामंडल का रंग बिलकुल सफेद से लेकर बिलकुल काले और इन दोनों के बीच
पाए जाने वाले अनगिनत रंगों में से कुछ भी हो सकता है। इसका यह मतलब कतई नहीं हुआ कि आज आपने रुद्राक्ष की माला पहनी और कल ही आपका प्रभामंडल सफेद दिखने लगे! अगर आप अपने जीवन को शुद्ध करना चाहते हैं तो रुद्राक्ष उसमें मददगार हो सकता है। जब कोई इंसान अध्यात्म के मार्ग पर चलता है, तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए वह हर संभव उपाय अपनाने को आतुर रहता है। ऐसे मे रुद्राक्ष निश्चित तौर पर एक बेहद मददगार जरिया साबित हो सकता है।
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♦ तीन तरह के विशेष रुद्राक्ष :
♦ गौरी शंकर रुद्राक्ष :
यह रुद्राक्ष प्राकृतिक रुप से जुडा़ होता है शिव व शक्ति का स्वरूप माना गया है। इस रुद्राक्ष को सर्वसिद्धिदायक एवं मोक्ष प्रदान करने वाला माना गया है। गौरी शंकर रुद्राक्ष दांपत्य जीवन में सुख एवं शांति लाता है।
♦ गणेश रुद्राक्ष :
इस रुद्राक्ष को भगवान गणेश जी का स्वरुप माना जाता है। इसे धारण करने से ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है। यह रुद्राक्ष विद्या प्रदान करने मे लाभकारी है विद्यार्थियों के लिए यह रुद्राक्ष बहुत लाभदायक है।
♦ गौरीपाठ रुद्राक्ष :
यह रुद्राक्ष त्रिदेवों का स्वरूप है। इस रुद्राक्ष द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कृपा प्राप्त होती है।
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♦रुद्राक्ष खरीदते समय नीचे लिखी सावधानियों को भी ध्यान करना चाहिए :
रुद्राक्ष की पहचान रुद्राक्ष एक अमूल्य मोती है जिसे धारण करके या जिसका उपयोग करके व्यक्ति अमोघ फलों को प्राप्त करता है. भगवान शिव का स्वरूप रुद्राक्ष जीवन को सार्थक कर देता है इसे अपनाकर सभी कल्याणमय जीवन को प्राप्त करते है। रुद्राक्ष की अनेक प्रजातियां तथा विभिन्न प्रकार उपल्बध है, परंतु रुद्राक्ष की सही पहचान कर पाना एक कठिन कार्य है। आजकल बाजार मे सभी असली रुद्राक्ष को उपल्बध कराने की बात कहते हैं किंतु इस कथन में कितनी सच्चाई है इस बात का अंदाजा लगा पाना एक मुश्किल काम है। लालची लोग रुद्राक्ष पर अनेक धारियां बनाकर उन्हें बारह मुखी या इक्कीस मुखी रुद्राक्ष कहकर बेच देते है।
कभी-कभी दो रुद्राक्ष को जोड़कर एक रुद्राक्ष जैसे गौरी शंकर या त्रिजुटी रुद्राक्ष तैयार कर दिए जाता है।इसके अतिरिक्त उन्हें भारी करने के लिए उसमें सीसा या पारा भी डाल दिया जाता है, तथा कुछ रुद्राक्षों में हम सर्प, त्रिशुल जैसी आकृतियां भी बना दी जाती है। रुद्राक्ष की पहचान को लेकर अनेक भ्रातियां भी मौजूद है। जिनके कारण आम व्यक्ति असल रुद्राक्ष की पहचान उचित प्रकार से नहीं कर पाता है एवं स्वयं को असाध्य पाता है. असली रुद्राक्ष का ज्ञान न हो पाना तथा पूजा ध्यान मे असली रुद्राक्ष न होना पूजा व उसके प्रभाव को निष्फल करता है. अत: ज़रूरी है कि पूजन के लिए रुद्राक्ष का असली होना चाहिए।
रुद्राक्ष के समान ही एक अन्य फल होता है जिसे भद्राक्ष कहा जाता है, और यह रुद्राक्ष के जैसा हो दिखाई देता है इसलिए कुछ लोग रुद्राक्ष के स्थान पर इसे भी नकली रुद्राक्ष के रुप में बेचते है। भद्राक्ष दिखता तो रुद्राक्ष की भांति ही है किंतु इसमें रुद्राक्ष जैसे गुण नहीं होते।
♦ विभिन्न राशियों के लिए रुद्राक्ष :
रुद्राक्ष अपने अनेकों गुणों के कारण व्यक्ति को दिया प्रकृति का बहुमूल्य उपहार है मान्यता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के नेत्रों से निकले जलबिंदु से हुई है. अनेक धर्म ग्रंथों में रुद्राक्ष के महत्व को प्रकट किया गया है जिसके फलस्वरूप रुद्राक्ष के महत्व से जग प्रकाशित हैते। इसे धारण करने से व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है अत: रुद्राक्ष को यदि राशि के अनुरुप धारन किया जाए तो यह ओर भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध होता है। रुद्राक्ष को राशि, ग्रह और नक्षत्र के अनुसार धारण करने से उसकी फलों में कई गुणा वृद्धि हो जाती है। ग्रह दोषों तथा अन्य समस्याओं से मुक्ति हेतु रुद्राक्ष बहुत उपयोगी होता है। कुंडली के अनुरूप सही और दोषमुक्त रुद्राक्ष धारण करना अमृत के समान होता है।
रुद्राक्ष धारण एक सरल एवं सस्ता उपाय है, इसे धारण करने से व्यक्ति उन सभी इच्छाओं की पूर्ति कर लेता है जो उसकी सार्थकता के लिए पूर्ण होती है। रुद्राक्ष धारण से कोई नुकसान नहीं होता यह किसी न किसी रूप मे व्यक्ति को शुभ फलों की प्राप्ति कराता है।
कई बार कुंडली में शुभ-योग मौजूद होने के उपरांत भी उन योगों से संबंधित ग्रहों के रत्न धारण करना लग्नानुसार उचित नहीं होता इसलिए इन योगों के अचित एवं शुभ प्रभाव में वृद्धि के लिए इन ग्रहों से संबंधित रुद्राक्ष धारण किए जा सकते हैं और यह रुद्राक्ष व्यक्ति के इन योगों मे अपनी उपस्थित दर्ज कराकर उनके प्रभावों को की गुणा बढा़ देते हैं. अर्थात गजकेसरी योग के लिए दो और पांच मुखी, लक्ष्मी योग के लिए दो और तीन मुखी रुद्राक्ष लाभकारी होता है।
इसी प्रकार अंक ज्योतिष के अनुसार व्यक्ति अपने मूलांक, भाग्यांक और नामांक के अनुरूप रुद्राक्ष धारण कर सकता है। क्योंकि इन अंकों में भी ग्रहों का निवास माना गया है। हर अंक किसी ग्रह न किसी ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है उदाहरण स्वरुप अंक एक के स्वामी ग्रह सूर्य है और अंक दो के चंद्रमा इसी प्रकार एक से नौ तक के सभी अंकों के विशेष ग्रह मौजूद है। अतः व्यक्ति संबंधित ग्रह के रुद्राक्ष धारण कर सकता है। इसी प्रकार नौकरी एवं व्यवसाय अनुरूप रुद्राक्ष धारण करना कार्य क्षेत्र में चौमुखी विकास, उन्नति और सफलता को दर्शाता है।
by Pandit Dayanand Shastri
गणेश चतुर्थी 2016 पर जानिए कुछ विशेष :
गणेश चतुर्थी यानी वो दिन जब लंबोदर ने जन्म लिया था। यह दिन गणपति की प्रतिष्ठा के लिए होता है बेहद शुभ और वो दिन जब विनायक की विधि विधान से पूजा कर ली जाए, तो धन संपदा, कामयाबी और खुशियां, छप्पर फाड़ कर बरसने लगती है। भगवान गणेश की आराधना के लिए गणेश चतुर्थी का दिन काफी शुभ माना जाता है। सतयुग मे सत्य के प्रतिनिधि देव, महादेव यानी शिव और उनकी अर्द्धांगिनी शक्ति स्वरूपा मां पार्वती की संतान के रूप मे जब गजानन का अवतरण हुआ तो इसका उद्देश्य यही था कि मानव मात्र के जीवन मे जब भी सत्य मन और शक्ति को लेकर असंतुलन होगा और जीवन मे बाधाएं आएंगी तो उसके निवारण का सारा उत्तरदायित्व भगवान श्रीगणेश का ही होगा।
शास्त्रो मे गणेश जी को ‘एकदंतो महबुद्धि:’ कहा गया है। एकदंत श्री गणेश अपने भक्त की समस्या के समूल नाश के लिए उसे मानसिक एकाग्रता और शांति भी प्रदान करते है। गणेश चतुर्थी की रात्रि को चंद्र दर्शन को निषिद्ध माना गया है। इस दिन चंद्र दर्शन करने से चोरी और अनैतिक कृत्य का मिथ्या आरोप लगता है।कृष्ण भगवान पर भी चंद्र दर्शन करने के कारण द्वापर युग मे ऐसा ही आरोप लगा था। यदि दर्शन हो जाए तो ‘शमंत कोप’ की कथा का श्रवण करे।
♦ चन्द्रमा का दर्शन न करे : शास्त्रीय मान्यता है कि भादो शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करने से चोरी का कलंक लगता है। यदि आकाश साफ हो और चंद्रमा की किरणें धरती पर पड़े तो भी चंद्रमा का दर्शन करने का मोह न करे।
♦ लाल चंदन से करे गणेश पूजा : गणेश प्रतिमा की विधिवत स्थापना करके लाल चंदन से पूजा करे तो धन लाभ होता है और परिवार के सदस्यों के बीच सामंजस्य बढ़ता है।
♦ गणेश पूजा का समय मध्याह्न = | 11:04 से 13:34 |
♦ अवधि = | 2 घण्टे 29 मिनट्स |
♦ 04.09.2016 को चन्द्रमा को नहीं देखने का समय = | 18:54 से 20:30 |
♦ अवधि = | 1 घण्टा 35 मिनट्स |
♦ 05.09.2016 को चन्द्रमा को नहीं देखने का समय = | 09: 16 से 21:05 |
♦ अवधि = | 11 घण्टे 48 मिनट्स |
♦ चतुर्थी तिथि प्रारम्भ = | 4 सितम्बर 2016 को 18:54 बजे |
♦ चतुर्थी तिथि समाप्त = | 5 सितम्बर 2016 को 21:09 बजे |
यदि भूल से गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्रमा के दर्शन हो जाये तो मिथ्या दोष से बचाव के लिये निम्नलिखित मन्त्र का जाप करना चाहिये –
” सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मारोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः॥ “
गणपति को मोदक, लड्डू प्रसाद/नैवेद्य मे प्रिय है इशलिये ये विशेष अर्पण करना चाहिए । गणपति को लाल/रक्त पुष्प, कनेका पुष्प, जासूद का पुष्प, गुलाब का पुष्प या कोईभी लाल कलर का पुष्प ज्यादा प्रिय है इसलिए ये पुष्प विशेष अर्पण करना चाहिए। गणपति भगवन को तुलसी अप्रिय होने से तुलसी पका पत्ता/ तुलसीपत्र कभी भी प्रसद्मे या पूजामे अर्पण नहीं करना चाहिए। श्री गणपति की मूर्ति स्थापनमे कभी भी ३ गणपति की मूर्ति नहीं होना चाहिए।
खंडित गणपति की मूर्ति का पूजन नहीं करना चाहिए, ये विघ्न- मुसिबत को लेन वाला है। श्री गणपति की स्थापना मे मिट्टी की मूर्ति की ही स्थापना पूजा करना चाहिए। अपवित्र अवस्था मे गणपति की पूजा या मुर्तिको स्पर्श नहीं करना चाहिए।ये गणपति की स्थापना लड़का, लड़की, पति-पत्नी, माता-पिता कोई भी कर सकता है।
♦ अपनी राशि के अनुसार करे गणपति पूजन :
राशि के अनुसार गणेश जी के मंत्रों का उच्चारण करते हुए गणेश चतुर्थी के दिन दूर्वा और पुष्प अर्पित करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है और सभी बाधाओं का शमन होता है-
मेष: ऊं हेरम्बाय नम:।
वृषभ: ऊं श्री निधिये नम:।
मिथुन: ऊं वक्रतुंडाय नम:।
कर्क: ऊं शम्भु पुत्राय नम:।
सिंह: ऊं रक्त वाससाय नम:।
कन्या: ऊं शूर्पकर्णकाय नम:।
तुला: ऊं श्रीमतये गणेशाय नम:।
वृश्चिक: ऊं अंगारकाय श्री गणेशाय नम:।
धनु: ऊं गणाधिपतये नम:।
मकर: ऊं नील लम्बोदरा य नम:।
कुंभ: ऊं व्रातपतये नम:।
मीन: ऊं वरदमूर्तये नम:।
♦ क्या आप जानते है भगवान श्री गणेश के 32 मंगल रूप:
अलग-अलग युगो मे श्री गणेश के अलग-अलग अवतारो ने संसार के संकट का नाश किया। शास्त्रो मे वर्णित है भगवान श्री गणेश के 32 मंगलकारी स्वरूप –
श्री बाल गणपति – छ: भुजाओ और लाल रंग का शरीर ।
श्री तरुण गणपति – आठ भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर ।
श्री भक्त गणपति – चार भुजाओं वाला सफेद रंग का शरीर।
श्री वीर गणपति – दस भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर।
श्री शक्ति गणपति– चार भुजाओं वाला सिंदूरी रंग का शरीर।
श्री द्विज गणपति– चार भुजाधारी शुभ्रवर्ण शरीर।
श्री सिद्धि गणपति– छ: भुजाधारी पिंगल वर्ण शरीर।
श्री विघ्न गणपति– दस भुजाधारी सुनहरी शरीर।
श्री उच्चिष्ठ गणपति– चार भुजाधारी नीले रंग का शरीर।
श्री हेरम्ब गणपति– आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर।
श्री उद्ध गणपति– छ: भुजाधारी कनक यानि सोने के रंग का शरीर।
श्री क्षिप्र गणपति– छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर।
श्री लक्ष्मी गणपति– आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर।
श्री विजय गणपति– चार भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर।
श्री महागणपति– आठ भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर।
श्री नृत्य गणपति – छ: भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर।
श्री एकाक्षर गणपति– चार भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर।
श्री हरिद्रा गणपति – छ: भुजाधारी पीले रंग का शरीर।
श्री त्र्यैक्ष गणपति– सुनहरे शरीर, तीन नेत्रो वाले चार भुजाधारी।
श्री वर गणपति – छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर।
श्री ढुण्डि गणपति– चार भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर।
श्री क्षिप्र प्रसाद गणपति– छ: भुजाधारी रक्ववर्णी, त्रिनेत्र धारी ।
श्री ऋण मोचन गणपति– चार भुजाधारी लालवस्त्र धारी ।
श्री एकदन्त गणपत– छ: भुजाधारी श्याम वर्ण शरीरधारी ।
श्री सृष्टि गणपति– चार भुजाधारी, मूषक पर सवार रक्तवर्णी शरीरधारी ।
श्री द्विमुख गणपति– पीले वर्ण के चार भुजाधारी और दो मुख वाले ।
श्री उद्दण्ड गणपति– बारह भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर वाले, हाथ मे कुमुदनी और अमृत का पात्र होता है।
श्री दुर्गा गणपति– आठ भुजाधारी रक्तवर्णी और लाल वस्त्र पहने हुए।
श्री त्रिमुख गणपति – तीन मुख वाले, छ: भुजाधारी, रक्तवर्ण शरीरधारी ।
श्री योग गणपति– योगमुद्रा में विराजित, नीले वस्त्र पहने, चार भुजाधारी ।
श्री सिंह गणपति– श्वेत वर्णी आठ भुजाधारी, सिंह के मुख और हाथी की सूंड वाले ।
श्री संकष्ट हरण गणपति– चार भुजाधारी, रक्तवर्णी शरीर, हीरा जडि़त मुुकुुट पहने।
♦ गणेशद्वादशनामस्तोत्रम्:
।।शुक्लांम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशांतये।।1।।
अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं पूजेतो य: सुरासुरै:।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नम:।।2।।
गणानामधिपश्चण्डो गजवक्त्रस्त्रिलोचन:।
प्रसन्न भव मे नित्यं वरदातर्विनायक।।3।।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णक:
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक:।।4।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचंद्रो गजानन:।
द्वादशैतानि नामानि गणेशस्य य: पठेत्।।5।।
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी विपुलं धनम्।
इष्टकामं तु कामार्थी धर्मार्थी मोक्षमक्षयम्।।6।।
विद्यारभ्मे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा
संग्रामे संकटेश्चैव विघ्नस्तस्य न जायते।।7।।
♦ गणपति की मूर्ति किसे बनीहोनी चाहिए?
गणपति की मूर्ति सोनेकी या मिटटी की बनाकर पूजा करनी चाहिए। भाद्रशुक्ल चतुर्थ्यां तु मृन्मयी प्रतिमा शुभा । हेमाभावे तु कर्तव्या नाना पुष्पै: प्रपुज्यताम ।।
♦गणपति स्थापना मुहूर्त शास्त्रार्थ: ये चतुर्थी भाद्रपदमास की शुक्लपक्ष मे मध्यान्ह्मे, जिसदिन हो उसिदिन को मनानी कहिये।तृतीय से संयुक्त चतुर्थी ही मनानी चाहिए या जिसदिन मध्यान्हमे चतुर्थी हो तब मनानी चाहिए ऐसा शास्त्रो और पुरानो का मत है। “मध्यान्हव्यापिनी ग्राह्या परेश्चात्परेहनी।”
♦ श्रीगणपति स्थापना तथा पूजा करनेका समय: ब्रह्म मुहूर्त ( रात्री के ३ बजेसे सूर्योदय तक का समय) से लेकर पूरादिन गणपति स्थापना तथा पूजा कर सकते है |
♦विशेष समय: मध्याह्न मे श्रीगणपती भगवान का जन्म होनेसे दिनके मध्य भाग के समय (१२-०१ बजे दोपहर) मे गणपती कि पूजा विशेष करनी चाहिये | प्रातः शुक्लातिलै: स्नात्वा मध्याह्ने पूज्येन्नृप।
इसी भाद्रपदमास की शुक्लपक्ष चतुर्थी का चन्द्रदर्शन करनेका या गलती से हो जाये तो दोष:
इसी भाद्रपदमास की शुक्लपक्ष चतुर्थी का चन्द्रदर्शन करनेका या गलतीसे हो जायेतो मिथ्यादोषारोपण होता है, मतलब उस चन्द्र दर्शन करनेवाले के ऊपर कलंक लगता है। पुराण के अनुसार चन्द्र लोक मे गणपति पधारे थे तब चन्द्र ने आपनी सुन्दरताके अभिमानवश गणपति का पेट मोटा होने के कारन की दिल्लगी की थी इसी कारण भगवान गणपति ने चन्द्रमा को श्राप दीया था की भाद्रपदमास की शुक्लपक्ष चतुर्थी का चन्द्रदर्शन जो मनुष्य गलतीसे भी करेगा उसपर जल्दी ही कुछ मिथ्यादोषारोपण दोष/ कलंक लगेगा |
♦ गणेश जी का स्वरूप है सफलता का मार्ग :
गणेश जी का स्वरूप कुछ ऐसा है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व मे सुधार के लिए इनसे प्रेरणा ले सकता है:
1. गणेश जी को शूर्प कर्ण कहा जाता है। गणेश जी के कान सूप जैसे है। सूप का कार्य है सिर्फ ठोस धान को रखना और भूसे को उड़ा देना, अर्थात आधारहीन बातो को वजन न देना। कान से सुनें सभी की, लेकिन उतारें अंतर मे सत्य को।
2. गणेश जी की आंखें सूक्ष्म है, जो जीवन मे सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती है। नाक लंबी और बड़ी है, जो बताती है कि घ्राण शक्ति अर्थात सूंघने की शक्ति- जिससे तात्पर्य परिस्थिति और समस्याओं से है- सशक्त होनी चाहिए। मनुष्य को सूक्ष्म प्रकृति का होना चाहिए, विपदा को दूर से ही सूंघ लेने की सामर्थ्य होनी चाहिए।
3. गणेशजी के दो दांत है। एक अखंड और दूसरा खंडित। अखंड दांत श्रद्धा काप्रतीक है यानी श्रद्धा हमेशा बनाए रखनी चाहिए। खंडित दांत है बुद्धि का प्रतीक। इसका तात्पर्य है एक बार बुद्धि भले ही भ्रमित हो, लेकिन श्रद्धा न डगमगाए।
गणेश चतुर्थी के दिन कुछ उपाय किए जाएं तो गणेश जी की कृपा से सभी सुखो की प्राप्ति होती है। इस योग में पूजा करने का विशेष महत्व है एवं अगर आप भी इस शुभ योग का लाभ उठाना चाहते हैं तो करें ये उपाय :
♦ गणेश चतुर्थी और बुधवार के योग मे श्रीगणेश का अभिषेक करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही अथर्व शीर्ष का पाठ करे।
♦इस दिन गणेश यंत्र की घर मे स्थापना करे। घर मे इस यंत्र की स्थापना से नकारात्मक शक्तियां प्रवेश नहीं कर पाती है।
♦यदि आप अपने जीवन मे अत्यंत परेशानियो से गुजर रहे है तो आज के दिन हाथी को हरा चारा खिलाएं एवं गणेश मंदिर जाकर भगवान से अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु प्रार्थना करे।
♦ धन की इच्छा है तो चतुर्थी के दिन सुबह के समय श्रीगणेश को गुड़ एवं शुद्ध घी का भोग लगाएं।
♦ आज के दिन किसी धार्मिक स्थल पर जाकर अपनी सामर्थ्यानुसार दान करे। कपड़े, भोजन, फल, अनाज आदि दान कर सकते है।
by Pandit Dayanand Shastri.
वास्तु शास्त्र का मानव जीवन मे महत्व एवं प्रभाव :
वास्तु का प्रभाव चिरस्थायी है, क्योंकि पृथ्वी का यह झुकाव शाश्वत है, ब्रह्माण्ड मे ग्रहो आदि की चुम्बकीय शक्तियो के आधारभूत सिध्दांत पर यह निर्भर है और सारे विश्व मे व्याप्त है इसलिए वास्तुशास्त्र के नियम भी शाश्वत है, सिध्दांत आधारित, विश्वव्यापी एवं सर्वग्राहा है। किसी भी विज्ञान के लिए अनिवार्य सभी गुण तर्क संगतता, साध्यता, स्थायित्व, सिध्दांत परकता एवं लाभदायकता वास्तु के स्थायी गुण है। अतः वास्तु को हम बेहिचक वास्तु विज्ञान कह सकते है।
जनसामान्य वास्तु सिध्दांतों के विरुध्द बने छोटे-छोटे फ्लेट्स मे रहने के लिए बाध्य है। कहा जाता है कि इन्हे वास्तुशास्त्र के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता। यदि राज्य सरकारे वास्तुशास्त्र के सिध्दांतो के अनुसार कॉलोनी निर्माण करने की ठान ही ले और भूखण्डों को आड़े, तिरछे, तिकाने, छकोने न काटकर सही दिशाओ के अनुरूप वर्गाकार या आयताकार काटें, मार्गों को सीधा निकाले एवं कॉलोनाइजर्स का बाध्य करे कि उन्हे वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों का अनुपालन करते हुए ही बहुमंजिली इमारते तथा अन्य भवन बनाने है तो शत-प्रतिशत तो न सही पर साठ प्रतिशत तक तो वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार नगर, कॉलोनी, बस्ती, भवनों, औद्योगिक-व्यापारिक केन्द्रों तथा अन्य का निर्माण किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप जन सामान्य सुख, शांति पूर्ण एवं अरोग्यमय, तनाव रहित जीवन व्यतीत कर सकता है।
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जानिए सितंबर 2016 मे होने वाले ग्रहण के बारे मे…
> 2016 मे होने वाले ग्रहण एवं भारतीय समयानुसार उसका समय :
सूर्य ग्रहण हो या चंद्र ग्रहण, खगोलविदो के लिये दोनो ही आकर्षण का केद्र होते है। रही बात आम लोगो की, तो तमाम लोग इसे प्राकृतिक घटना के रूप मे देखना चाहते है, तो तमाम लोग ऐसे है, जो इसे धर्म से जोड़ते है। खास कर हिंदू धर्म। खैर हम यहां बात करेंगे 2016 मे होने वाले चंद्र ग्रहण एवं सूर्य ग्रहण की। ऐसा केवल पूर्णिमा को ही संभव होता है। इसलिये चंद्र ग्रहण हमेशा पूर्णिमा को ही होता है। वहीं सूर्यग्रहण के दिन सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आता है जो कि अमावस्या को संभव है। ब्रह्मांड मे घटने वाली यह घटना है तो खगोलीय लेकिन इसका धार्मिक महत्व भी बहुत है। इसे लेकर आम जन मानस मे कई तरह के शकुन-अपशकुन भी व्याप्त है। माना जाता है कि सभी बारह राशियों पर ग्रहण का प्रभाव पड़ता है।
1 सितंबर- सूर्य ग्रहण यह ग्रहण भारत, अफ्रीका, मडागास्कर, अटलांटिक महासागर और भारतीय महासागर से दिखाई देगा। अफ्रीका मे यह आंशिक रूप से ही दिखाई देगा।
♦ भारतीय समयानुसार ग्रहण का समय-
♦ सूतक लगेगा: | 11:43 बजे |
♦ पूर्ण ग्रहण शुरू होगा: | 12:47 बजे |
♦ ग्रहण चरम पर: | 14:31 बजे |
♦ पूर्ण ग्रहण समाप्त होगा: | 16:25 बजे |
♦ सूतक समाप्त होगा: | 17:30 बजे |
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16-17 सितंबर- चंद्र ग्रहण यह ग्रहण एशिया, ऑस्ट्रेलिया और पूर्वी अफ्रीका मे दिखाई देगा। आंशिक रूप से यूरोप, दक्षिण अमेरिका, अटलांटिक और अंटार्कटिका मे दिखेगा।
» 16 सितंबर को भारतीय समयानुसार ग्रहण का समय-
♦ सूतक लगेगा: | 22:24 बजे |
♦ ग्रहण चरम पर: | 00:24 बजे |
♦ सूतक समाप्त होगा: | 02:23 बजे |
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उज्जैन मे उपच्छाया चन्द्र ग्रहण- प्रच्छाया मे कोई ग्रहण नहीं है। उपच्छाया ग्रहण खाली आँख से नहीं दिखेगा।
उपच्छाया से पहला स्पर्श – २२:२७:२२
परमग्रास चन्द्र ग्रहण – ००:२५:४८ – १७th, सितम्बर को
उपच्छाया से अन्तिम स्पर्श – ०२:२४:१५ – १७th, सितम्बर को
उपच्छाया की अवधि – ०३ घण्टे ५६ मिनट्स ५२ सेकण्ड्स
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♦ चन्द्र ग्रहण के समय पर टिप्पणी :
जब चन्द्र ग्रहण मध्यरात्रि (१२ बजे) से पहले लग जाता है परन्तु मध्यरात्रि के पश्चात समाप्त होता है – दूसरे शब्दो मे जब चन्द्र ग्रहण अंग्रेजी कैलेण्डर मे दो दिनो का अधिव्यापन (ओवरलैप) करता है – तो जिस दिन चन्द्रग्रहण की प्रच्छाया का पहला स्पर्श होता है उस दिन की दिनाँक चन्द्रग्रहण के लिये दर्शायी जाती है ऐसी स्थिति मे चन्द्रग्रहण की उपच्छाया का स्पर्श पिछले दिन अर्थात मध्यरात्रि से पहले हो सकता है।
यदि आपकी कुंडली मे ग्रहण दोष है तो “ग्रहण दोष शांति पूजा” के लिए यह दिन सर्वोत्तम है । “पितृ दोष शांति ” और “वैदिक चन्द्र शांति पूजा ” के लिए भी यह दिन उपयुक्त माना जाता है| ग्रहण के समय किये गये कार्यों का प्रभाव कई गुना अधिक हो जाता है इसलिए मन्त्र सिद्धि और किसी भी तरह के धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए ग्रहण का दिन अत्यंत ही उपयुक्त माना गया है ।
♦ हिन्दु धर्म और चन्द्र ग्रहण :
हिन्दु धर्म मे चन्द्रग्रहण एक धार्मिक घटना है जिसका धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। जो चन्द्रग्रहण नग्न आँखो से स्पष्ट दृष्टिगत न हो तो उस चन्द्रग्रहण का धार्मिक महत्व नहीं होता है। मात्र उपच्छाया वाले चन्द्रग्रहण नग्न आँखों से दृष्टिगत नहीं होते है इसीलिये उनका पञ्चाङ्ग मे समावेश नहीं होता है और कोई भी ग्रहण से सम्बन्धित कर्मकाण्ड नहीं किया जाता है। केवल प्रच्छाया वाले चन्द्रग्रहण, जो कि नग्न आँखों से दृष्टिगत होते है, धार्मिक कर्मकाण्डों के लिये विचारणीय होते है। सभी परम्परागत पञ्चाङ्ग केवल प्रच्छाया वाले चन्द्रग्रहण को ही सम्मिलित करते है। ऋग्वेद मे कहा गया है कि ‘चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत:।‘अर्थात चंद्रमा जातक के मन का स्वामी होता है। मन का स्वा मी होने के कारण यदि जन्म कुंडली मे चंद्रमा की स्थिति ठीक न हो या वह दोषपूर्ण स्थिति मे हो तो जातक को मनऔर मस्तिष्क से संबंधी परेशानियां होती है।
यदि चन्द्रग्रहण आपके शहर मे दर्शनीय नहीं हो परन्तु दूसरे देशों अथवा शहरों मे दर्शनीय हो तो कोई भी ग्रहण से सम्बन्धित कर्मकाण्ड नहीं किया जाता है। लेकिन यदि मौसम की वजह से चन्द्रग्रहण दर्शनीय न हो तो ऐसी स्थिति मे चन्द्रग्रहण के सूतक का अनुसरण किया जाता है। अपने मन मे दुर्विचारो को न पनपने दे। इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करे और अपने आराध्य देव का ध्यान लगायें। जिन जातकों की कुंडली मे शनि की साढ़े साती या ढईया का प्रभाव चल रहा है, वे शनि मंत्र का जाप करें एवं हनुमान चालीसा का पाठ भी अवश्य करे।
जिन जातको की कुंडली मे मांगलिक दोष है, वे इसके निवारण के लिये चंद्रग्रहण के दिन सुंदरकांड का पाठ करें तो इसके सकारात्मक परिणाम मिलेंगें। आटा, चावल, चीनी, श्वेत वस्त्र, साबुत उड़द की दाल, सतनज, काला तिल, काला वस्त्र आदि किसी गरीब जरुरतमंद को दान करे। ग्रहों का अशुभ फल समाप्त करने और विशेष मंत्र सिद्धि के लिये इस दिन नवग्रह, गायत्री एवं महामृत्युंजय आदि शुभ मंत्रों का जाप करें। दुर्गा चालीसा, विष्णु सहस्त्रनाम, श्रीमदभागवत गीता, गजेंद्र मोक्ष आदि का पाठ भी कर सकते है।
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♦ ग्रहण का सूतक अर्थात अशुद्ध समय:
ग्रहण के समय सूतक काल मे बालकों, वृ्द्ध, रोगी व गर्भवती स्त्रियों को छोडकर अन्य लोगों को सूतक से पूर्व भोजनादि ग्रहण कर लेना चाहिए तथा सूतक समय से पहले ही दूध, दही, आचार, चटनी, मुरब्बा मे कुशा रख देना श्रेयस्कर होता है। ऎसा करने से ग्रहण के प्रभाव से ये अशुद्ध नहीं होते है। परन्तु सूखे खाने के पदार्थों मे कुशा डालने की आवश्यक्ता नहीं होती है।
♦ किस समय लगेगा सूतक?
16 सितंबर 2016 को रात्रि के 10 बजकर 24 मिनट पर सूतक लग जायेगा। रात्रि 12 बजकर 24 मिनट पर ग्रहण अपने चरम पर होगा और रात्रि काल मे ही 2 बजकर 23 मिनट पर सूतक समाप्त हो जायेगा।
♦ ग्रहण अवधि मे किये जाने वाले कार्य:
ग्रहण के स्पर्श के समय मे स्नान, ग्रहण मध्य समय मे होम और देव पूजन और ग्रहण मोक्ष समय मे श्राद्ध और अन्न, वस्त्र, धनादि का दान और सर्व मुक्त होने पर स्नान करना चाहिए।
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♦ चंद्र ग्रहण :
चंद्र ग्रहण वह स्थिति है जिसमे पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य के बीच आ जाती है। इस स्थिति मे चंद्रमा क पूरा या आधा भाग ढ़क जाता है। इसी को चंद्र ग्रहण कहा जाता है।
चंद्र ग्रहण 2016 : वर्ष 2016 मे मे दो चन्द्र ग्रहण होंगे एक 23 मार्च और दूसरा 17 सितंबर 2016।
♦ चंद्र ग्रहण और हिन्दू धर्म:
हिंदू धर्म मे चंद्र ग्रहण का धार्मिक दृष्टि से बहुत विशेष महत्त्व होता है। इसे हिन्दू धर्म मे शुभ नहीं माना जाता है। मत्स्य पुराण के अनुसार किसी अन्य कार्य की बजय ग्रहण काल मे ईश्वर की आराधना करनी चाहिए। माना जाता है कि गर्भवती महिला को ग्रहण के समय बाहर नहीं निकलना चाहिए। ऐसा करने से उसके गर्भ मे पल रहे बच्चे पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हालांकि ये एक भोगौलिक घटना है, जिसमे इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। लेकिन ग्रहों के मुताबिक का आपके जीवन पर प्रभाव पड़ता है इसी कारण ग्रहण के वक्त कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए। ग्रहो का जीवन पर प्रभाव पड़ता है। चंद्रग्रहण हमेशा से ही कुंवारो के लिए अच्छा नहीं होता है। वैसे भी सुंदरता का प्रतीक चंद्रमा को कभी कुंवारों को देखना नहीं चाहिए क्योंकि चंद्रमा श्रापित है। इसी वजह से कहा जाता है कि कुवांरों को ग्रहण के समय पूरा चांद कभी नही देखना चाहिए क्योंकि उनके वैवाहिक जीवन मे काफी कष्ट होता है तो वहीं दूसरी ओर शादी मे भी देरी होती है। पुराणों मे वर्णन है कि चंद्रमा को बड़ा घमंड था अपनी खूबसूरती का इसी कारण उसे श्राप मिला था और वो अपनी पत्नियो से दूर हो गया था। चांद का संबंध शीतलता से होता है लेकिन जब उस पर ग्रहण लगता है तो वो उग्र हो जाता है जिसका बुरा असर कुवांरे लड़के-लड़कियों पर पडता है इस कारण घर के बड़े ग्रहण को देखने से मना करते है। चंद्र ग्रहण के समय का आंखों पर असर होता है इसी कारण चंद्रग्रहण को भी नहीं देखना चाहिए कुंवारे लोगों को क्योंकि ऐसा करने से उनकी आंखों पर असर होता है जो कि स्वास्थ्य के लिहाज से काफी बुरा है।
♦ चंद्रग्रहण के समय बरती जाने सावधानियां :
हिंदू मान्यतानुसार चंद्र ग्रहण के समय कुछ भी खाना या पीना नहीं चाहिए। ऐसा करने से किसी भी प्रकार के बुरे प्रभाव से बचा जा सकता है। हिन्दू धर्म के अनुसार ग्रहण के समय गर्भवती महिलाओं का बाहर नहीं निकलना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि ग्रहण के समय राहु और केतु का दुष्ट प्रभाव बढ़ जाता है। जिसके दुष्प्रभाव के कारण गर्भ मे पल रहे बच्चें को कई तरह की समस्याएं हो सकती है। चंद्र ग्रहण के समय सर में तेल लगाना, पानी पीना, मल- मूत्र त्याग, बाल मे कंघी, ब्रश आदि कार्य नहीं करना चाहिए। उज्जैन के पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया कि घर मे रखे अनाज या खाने को ग्रहण से बचाने के लिए दूर्वा या तुलसी के पत्ते का प्रयोग करना चाहिए। स्कन्द पुराण के अनुसार ग्रहण के समय दूसरे का अन्न खाने से बारह वर्षों का एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है। देवी भागवत के अनुसार सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक मे वास करता है। फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी, काना और दंतहीन होता है। ग्रहण समाप्त होने के बाद तुरंत स्नान कर लेना चाहिए। इसके साथ ही ब्राह्मण को अनाज या रुपया दान मे देना चाहिए। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि उपरोक्त बातों का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है लेकिन धर्म के अनुसार इन बातों का जिक्र किया जाता है। भविष्यपुराण, नारदपुराण आदि कई पुराणों मे चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के समय अपनाने वाली हिदायतो के बारे मे बताया गया है।
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♦ सूर्य ग्रहण:
जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच आ जाता है तब सूर्य कुछ समय के लिए चंद्रमा के पीछे छुप जाता है। इसी स्थिति को वैज्ञानिक भाषा मे सूर्य ग्रहण कहते है।ग्रहण को हिन्दू धर्म मे शुभ नहीं माना जाता है।सूर्य ग्रहण के दिन बन रहे योग का विशेष प्रभाव दुनिया भर मे पड़ेगा। जीवन की गति और चाल केवल गृह ही चलते है। ऐसे मे गर्भवती महिलाओं को ग्रहण के समय विशेष सावधानी रखने की अवश्यकता होती है।
बच्चे का जन्म यदि ग्रहण काल मे हुआ है तो उसका प्रभाव उसके जीवन पर अवश्य पड़ेगा, जैसा कि हम देखते है कि ग्रहण के समय ज्वार आता है व पशु-पक्षी पर होने वाले प्रभाव को देखते हुए ग्रहण फल अवश्य मिलता है। ग्रहण के वक्त जन्म लेने वाले बच्चे पर तत्काल असर नहीं होता है। ग्रहों का प्रभाव उसके जीवन मे युवावस्था मे ही पड़ेगा। इन ग्रहण को जो लोग नहीं मानते है, वे बाद मे पछताते हैं। ग्रहण का प्रभाव पशु-पक्षी पर हो सकता है तो मानव पर क्यों नहीं? ग्रहण का सीधा प्रभाव गर्भ मे पल रहे शिशु पर पड़ता है।
♦ ग्रहण के समय गर्भवती महिलाएं बरते कुछ सावधानियां :
→ गर्भवती महिलाओं को भगवान का ध्यान करना चाहिए। ग्रहण के वक्त पृथ्वी पर पड़ने वाली किरणों का असर बाहर ज्यादा होता है, न कि घर के अंदर। इसलिये बेहतर है गर्भवती घर के अंदर रहे। कोई भी धार्मिक ग्रंथ पढ़े।
→ कुछ भी खाना पीना नहीं चाहिए।ग्रहण के वक्त पानी पीने से गर्भवती को डीहाइड्रेशन हो जाता है। बच्चे की त्वचा सूख जाती है। ग्रहण के वक्त प्रकाश की किरणों मे विवर्तन होता है। इस कारण कई हजार सूक्ष्म जीवणु मरते है और कई हजार पैदा होते हैं। इसलिये पानी दूषित हो सकता है।
→ ग्रहण को देखें नहीं।नग्न आंखों से ग्रहण नहीं देखना चाहिये। जी हां प्रकाश की किरणों मे होने वाले विवर्तन का प्रभाव आंखों पर पड़ सकता है। गर्भवती की आंखे अच्छी रहनी चाहिये।
→ शास्त्रों के अनुसार ग्रहण के समय मल-मूत्र त्यागने से घर मे दरिद्रता आती है। इसलिए ग्रहण के समय मल मूत्र के त्याग से बचना चाहिए। इसलिए ग्रहण से पहले ऐसा भोजन नहीं करें कि ग्रहण के दौरान मल मूल करना पड़े।
→ ग्रहण के वक्त गर्भवती महिला को सोना नहीं चाहिये। बजाये उसके घर के अंदर ऊंचे स्वर मे मंत्रों का जाप किया जाना चाहिये। खुजली नहीं करनी चाहिए।
→ क्रोध और तनाव को स्वयं पर हावी न होने दें। प्रसन्न रहे। ग्रहण के समय किसी भी मंत्र का जाप लाभकारी होता है क्योंकि ग्रहण के वक्त पृथ्वी पर नकारात्मक ऊर्जा पड़ती है। मंत्रों के उच्चारण मे उठने वाली तरंगें घर के अंदर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करती है। पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान अंधेरे मे अगर आप सुई का प्रयोग करेंगी, तो डोरा डालते वक्त आंखों पर स्ट्रेस पड़ेगा। गर्भावस्था मे किसी भी प्रकार का तनाव खराब होता है। ग्रहण के वक्त सुई का प्रयोग करने से होने वाले बच्चे के हृदय मे छिद्र हो सकता है।
→ किसी के ऊपर हाथ न उठाएं विशेषकर किसी बालक पर। झुकने वाले काम न करे।
→ योगासन अथवा व्यायाम नहीं करना चाहिए।ग्रहण के समय भोजन और तेल मालिश करने से व्यक्ति अगले जन्म में कुष्ठ रोग से पीड़ित हो सकता है।
→ चाकू से किसी भी वस्तु को काटना नहीं चाहिए।पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान कई स्थानों पर अंधेरा हो जाता है। धार-दार वस्तुएं गर्भवती महिला को हानि पहुंचा सकती है। इसीलिये इनका प्रयोग वर्जित है।
→ ताला अथवा कुड़ी नहीं लगानी चाहिए। नाड़ा नहीं बांधना चाहिए। ग्रहण के बाद स्नान कोई जरूरी नहीं, लेकिन अगर आप ग्रहण के वक्त बाहर रहे है, तो स्नान से विषाणुओं से दूर रह सकते हैं। वैसे भी गर्भ में पल रहा बच्चा हमेशा सेंसिटिव होता है।ग्रहण के बाद गर्भवती महिला को स्नान करना चाहिये। अन्यथा बच्चे को बीमारी लग सकती है।
→ शास्त्रो के अनुसार ग्रहण के समय मैथुन करने से व्यक्ति अगले जन्म मे सूअर की योनि में जन्म लेता है।
→ ग्रहण के समय किसी से धोखा या ठगी करने से अगले जन्म में सर्प की योनि मिलती है।
→ जीव-जंतु या किसी जीव जंतु को मारने से कीड़े-मकड़ों जैसी नीच योनियों में जन्म मिलता है।
उपरोक्त लिखी हिदायते कपोल कल्पनाएं नहीं है बल्कि जीवन का अटूट सच है जिसे गर्भवती स्त्रियों को स्वीकार करना चाहिए। ऐसा करने से स्वाभाविक रूप से स्वस्थ, सुन्दर और विचारवान संतान होगी। यह मत सोचिये कि गर्भवती महिलाएं अंधविश्वासी होती है, या इन बातों से डरती है। सच तो यह है कि वो अगर 9 महीने तक गर्भ मे पल रहे बच्चे की रक्षा कर सकती है, तो दो-चार घंटे के ग्रहण कौन सी बड़ी बात है।
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♦ धर्म के अनुसार सूर्य ग्रहण:
मत्स्य पुराण में सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण की कथा का संबंध राहु-केतु और उनके अमृत पाने की कथा से है। कथा के अनुसार जब मोहनी रूप धारण कर विष्णु जी देवताओं को अमृत और असुरों को वारुणी (एक प्रकार की शराब) बांट रहे थे तब एक दैत्य स्वरभानु रूप बदलकर देवताओं के बीच जा बैठा। वह सूर्य और चन्द्रमा के बीच बैठा था। जैसे ही वह अमृत पीने लगा सूर्य और चन्द्रमा ने उसे पहचान लिया और विष्णु जी को बता दिया।
विष्णु जी ने तत्काल उस राक्षस का सर धण से अलग कर दिया। राक्षस का सर राहु कहलाया और धण केतू। कहा जाता है कि जैसे राहु का सर अलग हुआ वह चन्द्रमा और सूर्य को लीलने के लिए दौड़ने लगा लेकिन विष्णुजी ने ऐसा नहीं होने दिया। उस दिन से माना जाता है कि जब भी सूर्य और चन्द्रमा निकट आते हैं तब उन्हें ग्रहण लग जाता है।
♦ सूर्य ग्रहण के समय क्या न करे:
घर मे रखे अनाज या खाने को ग्रहण से बचाने के लिए दूर्वा या तुलसी के पत्ते का प्रयोग करना चाहिए। ग्रहण समाप्त होने के बाद तुरंत स्नान कर लेना चाहिए। इसके साथ ही ब्राह्मण को अनाज या रुपया दान मे देना चाहिए। ग्रहण के समय भोजन नहीं करना चाहिए। मान्यता है कि गर्भवती स्त्री को ग्रहण नहीं देखना चाहिए। भगवान शिव को छोड़ अन्य सभी देवताओं के मंदिर ग्रहण काल में बंद कर दिए जाते है।
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♦ ग्रहण के वक्त क्या करे क्या न करे-
सूर्यग्रहण हो या चंद्रग्रहण, सूतक लगने के बाद से और सूतक समाप्त होने तक भोजन नहीं करना चाहिये। ग्रहण के वक्त पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ने चाहिए। ग्रहण के वक्त बाल नहीं कटवाने चाहिये। ग्रहण के सोने से रोग पकड़ता है किसी कीमत पर नहीं सोना चाहिए। ग्रहण के वक्त संभोग, मैथुन, आदि नहीं करना चाहिये। ग्रहण के वक्त दान करना चाहिये। इससे घर में समृद्धि आती है। कोइ भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिये और नया कार्य शुरु नहीं करना चाहिये। अगर संभव हो सके तो पके हुए भोजन को ग्रहण के वक्त ढक कर रखें, साथ ही उसमें तुलसी की पत्ती डाल दें। ग्रहण के वक्त किसी भी मंत्र का जाप एवं अपने ईष्ट देव की पूजा करना लाभकारी होता है। ग्रहण के वक्त पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये। ग्रहण के समय मूत्र एवं मल – त्यागने से घर मे दरिद्रता आती है। शौच करने से पेट में क्रीमी रोग पकड़ सकता है।
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♦ ग्रहण के समय तीर्थ स्थलों मे जल स्नान का महत्व :
स्नान के लिये प्रयोग किये जाने वाले जलों में समुद्र का जल स्नान के लिये सबसे श्रेष्ठ कहा गया है। ग्रहण मे समुद्र नदी के जल या तीर्थों की नदी में स्नान करने से पुन्य फल की प्राप्ति होती है। किसी कारण वश अगर नदी का जल स्नान करने के लिये न मिल पाये तो तालाब का जल प्रयोग किया जा सकता है.वह भी न मिले तो झरने क जल लेना चाहिए। इसके जल श्रेष्ठता मे इसके बाद भूमि में स्थित जल को स्नान के लिये लिया जा सकता है।
by Pandit Dayanand Shastri.
शनिदेव को प्रसन्न करने के उपाय :
यदि आप शनि देव की कृपा प्राप्त करना चाहते है तो आप यह छोटे-छोटे प्रयोग करे। इन प्रयोगो से शनि निश्चित ही आप पर प्रसन्न होगे और आपको मनोवांछित फल प्रदान करेगा।
ज्योतिष विज्ञान के अनुसार शनि की टेढ़ी नजर यानि वक्र दृष्टि हर व्यक्ति के जीवन मे हलचल मचाती है। जहां शुभ ग्रह के प्रभाव से शनि दशा शुभ फल भी दे सकती है, लेकिन अशुभ ग्रहों के असर से शनि दशा के बुरे नतीजे भी दिखाई देते है। इसलिए शास्त्रों मे शनि दशा चाहे वह ढैय्या, महादशा सा साढ़े साती हो, के लिए कुछ मंत्र विशेष के जप का महत्व बताया गया है।
शास्त्रो के मुताबिक शनिदेव का स्वभाव क्रूर है। लोक व्यवहार मे शनिदेव से जुड़ी आस्था का एक कारण ऐसा ही भय और संशय भी है कि शनि की टेढ़ी चाल और नजर से जीवन मे उथल-पुथल मच जाती है। इसलिए अक्सर यह देखा भी जाता है कि शनि की दशा ज्ञात होने पर व्यक्ति व्यर्थ परेशानियों से बचने के लिए शनि की शांति के उपाय अपनाते है।
असल मे, शनि के स्वभाव का दूसरा पहलू यह भी है कि शनि के शुभ प्रभाव से रंक भी राजा बन सकता है। शनि को तकदीर बदलने वाला भी माना गया है। इसलिए अगर सुख के दिनो मे भी शनि भक्ति की जाए तो उसके शुभ फल से सुख-समृद्धि बनी रहती है। शास्त्रो मे शनि की प्रसन्नता के लिए ऐसा ही एक मंत्र बताया गया है। इसके प्रभाव से घर-परिवार मे हमेशा खुशहाली बनी रहती है। वहीं जीवन का कठिन या तंगहाली का दौर भी आसानी से कट जाता है।
शनि अमावस्या के दिन शनि का पूजन विशेष फलदायी होता है। जिन जातक की कुंडली या राशियों पर सा़ढ़ेसाती व ढैया का प्रभाव है वे अच्छे फल प्राप्त करने के लिए शनिश्चरी अमावस्या पर शनिदेव का विधिवत पूजन कर पर्याप्त लाभ उठा सकते है।
» ढैया व साढ़ेसाती मे लाभ :
शनि स्त्रोत, शनि मंत्र, शनि वज्रपिंजर कवच तथा महाकाल शनि मृत्युंजय स्त्रोत का पाठ करने से जिन जातको को शनि की साढ़ेसाती व ढैया चल रहा है, उन्हें मानसिक शांति, कवच की प्राप्ति तथा सुरक्षा के साथ भाग्य उन्नति का लाभ होता है। सामान्य जातक जिन्हे ढैया अथवा साढ़ेसाती नहीं है, वे शनि कृपा प्राप्ति के लिए अपंग आश्रम मे भोजन तथा चिकित्सालय मे रुग्णों को ब्रेड व बिस्किट बांट सकते है।
♦ कम से कम 9 शनिवार गरीबो को भोजन कराएं, भोजन मे शनिदेव के प्रिय भोज्य सामग्री रखे।
♦ घर के नौकरो, धोबी, ड्रायवर आदि से अच्छा व्यवहार रखे। क्योंकि शनि गरीबो का प्रतिनिधित्व करता है। गरीबो के खुश होने पर शनि देव स्वत: खुश हो जाते है।
♦ प्रति शनिवार शनि के निमित्त व्रत-उपवास करे।
♦ प्रति शनिवार शनि देव के लिए विशेष पूजा-अर्चना अवश्य कराएं।
♦ शुभ मुहूर्त देखकर शनि कवच धारण करे।
♦ सात मुखी रुद्राक्ष धारण करे।
♦ प्रति शनिवार आपके खाने तिल से बनी सामग्री अवश्य खाएं।
♦शनि का रत्न नीलम धारण करे। नीलम धारण करने से पूर्व किसी ज्योतिष विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य ले।
♦ शनि संबंधी दान या उपहार बिल्कुल ग्रहण ना करे।
♦ प्रतिदिन हनुमानजी की विशेष पूजा-अर्चना करे। हनुमानजी के भक्तो पर शनि बुरा प्रभाव नहीं डालता है।
♦ प्रतिदिन या हर शनिवार इष्टदेवता को काले या नीले रंग के फूल अवश्य चढ़ाएं।
♦ शनैश्चरी अमावस्या पर नदी मे स्नान कर शनि के निमित्त दान पुण्य करे।
♦ पुरुष परस्त्री और स्त्री परपुरुष का साथ तुरंत छोड़ दे अन्यथा शनि और क्रूर हो जाएगा और आपको उसके बहुत बुरे फल प्राप्त होगे।
♦ सारे अधार्मिक कार्य छोड़ दे।
♦ इस दिन पीपल के पेड़ पर सात प्रकार का अनाज चढ़ाएं और सरसों के तेल का दीपक जलाएं।
♦ तिल से बने पकवान, उड़द से बने पकवान गरीबो को दान करे।
♦ उड़द दाल की खिचड़ी दरिद्रनारायण को दान करे।
♦ अमावस्या की रात्रि मे 8 बादाम और 8 काजल की डिब्बी काले वस्त्र मे बांधकर संदूक मे रखे।
♦ शनि यंत्र, शनि लॉकेट, काले घोड़े की नाल का छल्ला धारण करे।
♦ इस दिन नीलम या कटैला रत्न धारण करे। जो फल प्रदान करता है।
♦ काले रंग का श्वान इस दिन से पाले और उसकी सेवा करे।
♦शनि अमावस्या के दिन या रात्रि मे शनि चालीसा का पाठ, शनि मंत्रो का जाप एवं हनुमान चालीसा का पाठ करे।
उपरोक्त सभी प्रयोग शनि को प्रसन्न करने वाले है और यह सहज ही किए जा सकते है। इन प्रयोगो से आप पर शनि की कृपा जरूर होगी और अशुभ समय दूर हो जाएगा।
उपरोक्त प्रयोग से न केवल शनि दशा मे कष्टो और अकाल मृत्यु के भय से रक्षा करते है, बल्कि धन, विद्या, बल, स्वास्थ्य और साहस देते है। धार्मिक दृष्टि यह मंत्र व्यक्ति को मोक्ष देने वाले भी है। इन विशेष मे शनि कवच मंत्र और शनि का पौराणिक मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र बहुत ही प्रभावी माने गऐ है। इन मंत्रों की भी अलग-अलग जप संख्या तय है। जानते है इन मंत्रो को –
♦ शनि का पौराणिक मंत्र :
ऊँ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम् ।।
by Pandit Dayanand Shastri.
वास्तु अनुसार ज्योतिषी को अपने ऑफिस/कार्यालय मे कहाँ बैठना चाहिए ???
आजकल हम सभी लोग अपनी आजीविका कमाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करते है। जिसके लिए लोग ऑफिस तथा दुकान का निर्माण करते है । ऑफिस हमारे पेशे या व्यापार, काम के क्रियान्वन, व्यापार मे वृध्दि और धन सृजन का स्थान है।ऑफिस मे हम अपनी आजीविका कमाने, अपनी महत्वाकांक्षाओ को पूरा करने और पेशे या व्यवसाय मे सफलता प्राप्त करने के लिए अपने उत्पादक समय का एक बड़ा हिस्सा व्यतीत करते है। जब भी आप ऑफिस बनवाए तो उसे सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर तरीके से बनाए।
यदि ज्योतिर्विद अपने कार्यालयो मे यदि वास्तु सम्मत नियमो का पालन करे तो परिणाम शुभ मिलने की संभावना बढ़ जाती है। वास्तु के दृष्टिकोण से एक अच्छे ऑफिस मे बैठते हुए यह ध्यान रखना जरूरी है कि स्वामी की कुर्सी ऑफिस के दरवाजे के ठीक सामने ना हो । कमरे के पीछे ठोस दीवार होनी चाहिए। यह भी ध्यान रखे कि ऑफिस की कुर्सी पर बैठते समय आपका मुंह पूर्व या उत्तर दिशा मे रहे।
आपका टेलीफोन आपके सीधे हाथ की तरफ, दक्षिण या पूर्व दिशा मे रहे तथा कम्प्यूटर भी आग्नेय कोण मे (सीधे हाथ की तरफ) हो तो अच्छे परिणाम मिलते है। इसी प्रकार स्वागत कक्ष (रिसेप्शन) आग्नेय कोण मे होना चाहिए लेकिन स्वागतकर्ता (रिसेप्सनिष्ट) का मुंह उत्तर की ओर हो तो परिणाम श्रेष्ठ मिलते है। ज्योतिषी के लिए इशान कोण अत्यंत लाभदायक कोना होता है, इस कोण मे लगातार बैठने या सोने से पूर्वाभास होता है ,इसलिए इस कोण का अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए। ध्यान रखे, किसी भी ज्योतिषी को आफिस के इशान कोण मे बैठने से ज्यादा अंतर्ज्ञान होगा…
वास्तुशास्त्री के लिए वायव्य कोण ज्यादा लाभदायक देखा गया है क्योंकि वायव्य मे बैठने से बाहर वास्तु विसीट मे जाने की सम्भावना बड़ जाती है, वास्तुशास्त्री जब घर से बाहर रहेगा तभी वह लोगो की सेवा कर पायेगा। आज कल एक सामान्य सा प्रचलन है कि सबको नेरित्य मे बिठा दो या नेरित्य के कमरे मे सुला दो,जबकि हमारे वास्तु शोध संस्थान के बच्चो ने रिसर्च किया है कि अलग अलग जातक को अलग अलग व्यापार के अनुसार अलग अलग स्थान मे सफलता मिलती है ।
ज्योतिषी या प्राच्य विद्या का जानकर एक गुरु का काम करता है ,वह ब्रम्हा का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए ज्योतिषी को भवन के इशान कोण मे पूर्व मुखी बैठना चाहिए,क्योंकि इशान कोण मे बेठने या सोने से छटी इंद्रिय कुछ जागृत हो जाती है। ज्योतिषी के लिए पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा अंतर्ज्ञान की ज्यादा आवश्यकता होती है ,ज्योतिषी के मुंह से जो निकले वो जातक को फलना चाहिए।ज्योतिष/वास्तु के जड़ नियम से न बंधकर अपने अंतर्ज्ञान से पुस्तकीय ज्ञान को संतुलित करना चाहिए।
ज्योतिषी/वास्तु शास्त्री के लिए सबसे महत्वपूर्ण है साधना, अगर आप अच्छे साधक नही बन सकते तो आप अच्छे ज्योतिषी भी नही बन सकते। उत्तर मुखी बैठने से धन की प्राप्ति और पूर्व मुखी बेठने से ज्ञान की प्राप्ति होती है,ज्योतिषी को धन की बजाय अपने ज्ञान को महत्व देना चाहिए।
ज्योतिष, वास्तु का यह कार्य हम लोग दुखी जनो की सेवा के लिए करते है ,इसलिए पूर्व मुखी बेठने से हमारे विचार जल्दी सम्प्रेषित होता है ……
मेज के पूर्व मे ताजे फूल रखे। इनमे से कुछ कलियां निकल रही हो तो यह नए जीवन का प्रतीक माना जाता है। फूलो को झड़ने से पहले ही बदल देना शुभ होता है।जब आप मीटिंग रूम मे हो तो नुकीली मेज काम मे न लाएं। कभी भी मीटिंग मे दरवाजे के करीब और उसकी तरफ पीठ करके न बैठे।
ऑफिस मे मंदिर (पूजा स्थल) ईशान कोण मे होना चाहिए। फाइल या किताबो की रेक वायव्य या पश्चिम मे रखना हितकारी होगा। पूर्व की तरफ मुंह करके बैठते
समय अपने उल्टे हाथ की तरफ ‘कैश बॉक्स’ (धन रखने की जगह) बनाए इससे धनवृद्धि होगी। उत्तर दिशा मे पानी का स्थान बनाए।
अगर ऑफिस घर मे ही बना हो तो यह बेड रूम के पास नही होना चाहिए । पश्चिम दिशा मे प्रमाण पत्र, शिल्ड व मेडल तथा अन्य प्राप्त पुरस्कार को सजा कर रखे। ऐसा करने से आपका ऑफिस निश्चित रूप से वास्तु सम्मत कहलाएगा व आपको शांति व समृद्धि देने के साथ साथ आपकी उन्नति में भी सहायक होगा।
किसी सलाहकार/एडवाइजर का सलाह कक्ष काला, सफेद अथवा नीले रंग का होना चाहिए। जीवन को समृद्धशाली बनाने के लिए व्यवसाय की सफलता महत्वपूर्ण है इसके लिए कार्यालय को वास्तु सम्मत बनाने के साथ साथ विभिन्न रंगों का उपयोग लाभदायक सिद्ध हो सकता है ।
by Pandit Dayanand Shastri.
सफल लेखक बनाने के ज्योतिषीय योग:
जन्मांग चक्र का तृतीय भाव बलवान हो, तृतीय भाव मे कोई ग्रह बली होकर स्थित हो, तृतीयेश स्वराशि या उच्च राशि मे हो तो जातक सफल लेखक होता है। किसी जातक के जीवन के बारे मे जानकारी प्राप्त करने हेतु ज्योतिष शास्त्र मे जन्मांग चक्र का अध्ययन कर बताया जा सकता है कि जातक का सम्पूर्ण जीवन कैसा रहेगा। जन्मांग चक्र के बारह भाव भिन्न भिन्न कारको हेतु निर्धारित है। इन कारको एवं उसके स्वामी ग्रह की स्थिति ही उस कारक के बारे मे सफल फलादेश देने मे समर्थ है।
जन्मांग चक्र मे पंचम भाव से जातक की बो़द्धिक एंव तार्किक शक्ति, किसी विषय वस्तु को समझने की शक्ति, ज्ञान व विवेक का विचार किया जाता है। इस प्रकार जन्मांग चक्र के तृतीय भाव, तृतीयेश, पंचम भाव, पंचमेश, बुध व शुक्र की स्थिति के आधार पर जातक की लेखनी शक्ति के बारे मे जाना जाता है किसी भी प्रकार के लेखन हेतु स्मरण शक्ति एंव लेखन अभिव्यक्ति के साथ उसकी मानसिक एकाग्रता एंव उसे आत्मसात करने की क्षमता भी आवश्यक है। इसलिए जन्मांग चक्र का चतुर्थ भाव भी महत्वपूर्ण है। चतुर्थ भाव हृदय का कारक भाव भी माना जाता है। इसलिए कोई जातक किस विषय मे लेखन पूर्णतया लगन से कर पायेगा। इसके लिये चतुर्थ भाव व चतुर्थेश का अध्ययन भी आवश्यक है। चतुर्थ भाव जातक मे किस विषय का लेखन आन्तरिक मनोभावो से प्रेरित होगा।
जन्मांग चक्र का तृतीय भाव बलवान हो, तृतीय भाव मे कोई ग्रह बली होकर स्थित हो, तृतीय स्वराशि या उच्च राशि मे हो तो जातक सफल लेखक होता है। तृतीय भाव एवं तृतीयेश पर शुभग्रहो का युति या अन्य प्रभाव हो तो जातक लेखक तो बन सकता है पर शुक्र का बलवान एवं शुभ स्थित होना ही उसे सफल लेखक की संज्ञा दे सकता है क्योंकि शुक्र की बलवान स्थिति ही उसे धन एवं मान-सम्मान की प्राप्ति करा सकती है। वर्तमान मे वही लेखक सफल माना जाता है जिसकी कृतियां पाठक का पूर्णतया मनोंरजन एवं ज्ञान की प्राप्ति कराएं, साथ ही जनमानस मे भी उस कृति को पढने की जागृत होती रहे। किसी कृति के जितने पाठक अधिक होंगे उसमे से जितने पाठक उस कृति से संतुष्ट होंगे एवं लेखक को भी कृति से अप्रत्याशित धन की प्राप्ति हो जाए वही सफल लेखक बन सकता है। जन्मांग चक्र मे तृतीय भाव, तृतीयेश के साथ चतुर्थेश एवं पंचमेश की बली स्थिति भी आवश्यक है। चतुर्थेश एवं पंचमेश मे परस्पर योग हो दोनो षडबली होकर स्थिति हो, पंचमेश का लग्नेश से संबंध हो, लग्नेश पूर्णतया बली होकर शुभ भाव मे स्थित हो तो सफलता का प्रतिशत बढ जाता है। किसी जातक के जीवन में लग्न एवं लग्नेश का बली होना उसकी आकर्षण क्षमता मे वृद्धि करता है। लग्न-लग्नेश के बली होने एवं शुभ ग्रहो के युति प्रभाव मे होने पर जातक का व्यक्तित्व निखरता है। उसके व्यक्तित्व मे निखार ही उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे सीढी दर सीढी सफलता की प्राप्ति कराता है। लग्न भाव तृतीय भाव से एकादश भी बनता है। एकादश भाव अर्थात उसके लेखन से कितना लाभ प्राप्त होगा उसके बारे मे जानकारी देने का भाव है। इसलिए लग्न एवं लग्नेश का बली होना ही उसकी लेखन क्षमता की कसौटी का सशक्त माध्यम बनता है।