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वास्तु अनुसार ज्योतिषी को अपने ऑफिस/कार्यालय मे कहाँ बैठना चाहिए ???

आजकल हम सभी लोग अपनी आजीविका कमाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करते है। जिसके लिए लोग ऑफिस तथा दुकान का निर्माण करते है । ऑफिस हमारे पेशे या व्यापार, काम के क्रियान्वन, व्यापार मे वृध्दि और धन सृजन का स्थान है।ऑफिस मे हम अपनी आजीविका कमाने, अपनी महत्वाकांक्षाओ को पूरा करने और पेशे या व्यवसाय मे सफलता प्राप्त करने के लिए अपने उत्पादक समय का एक बड़ा हिस्सा व्यतीत करते है। जब भी आप ऑफिस बनवाए तो उसे सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर तरीके से बनाए।

यदि ज्योतिर्विद अपने कार्यालयो मे यदि वास्तु सम्मत नियमो का पालन करे तो परिणाम शुभ मिलने की संभावना बढ़ जाती है। वास्तु के दृष्टिकोण से एक अच्छे ऑफिस मे बैठते हुए यह ध्यान रखना जरूरी है कि स्वामी की कुर्सी ऑफिस के दरवाजे के ठीक सामने ना हो । कमरे के पीछे ठोस दीवार होनी चाहिए। यह भी ध्यान रखे कि ऑफिस की कुर्सी पर बैठते समय आपका मुंह पूर्व या उत्तर दिशा मे रहे।

आपका टेलीफोन आपके सीधे हाथ की तरफ, दक्षिण या पूर्व दिशा मे रहे तथा कम्प्यूटर भी आग्नेय कोण मे (सीधे हाथ की तरफ) हो तो अच्छे परिणाम मिलते है। इसी प्रकार स्वागत कक्ष (रिसेप्शन) आग्नेय कोण मे होना चाहिए लेकिन स्वागतकर्ता (रिसेप्सनिष्ट) का मुंह उत्तर की ओर हो तो परिणाम श्रेष्ठ मिलते है। ज्योतिषी के लिए इशान कोण अत्यंत लाभदायक कोना होता है, इस कोण मे लगातार बैठने या सोने से पूर्वाभास होता है ,इसलिए इस कोण का अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए। ध्यान रखे, किसी भी ज्योतिषी को आफिस के इशान कोण मे बैठने से ज्यादा अंतर्ज्ञान होगा…

वास्तुशास्त्री के लिए वायव्य कोण ज्यादा लाभदायक देखा गया है क्योंकि वायव्य मे बैठने से बाहर वास्तु विसीट मे जाने की सम्भावना बड़ जाती है, वास्तुशास्त्री जब घर से बाहर रहेगा तभी वह लोगो की सेवा कर पायेगा। आज कल एक सामान्य सा प्रचलन है कि सबको नेरित्य मे बिठा दो या नेरित्य के कमरे मे सुला दो,जबकि हमारे वास्तु शोध संस्थान के बच्चो ने रिसर्च किया है कि अलग अलग जातक को अलग अलग व्यापार के अनुसार अलग अलग स्थान मे सफलता मिलती है ।
ज्योतिषी या प्राच्य विद्या का जानकर एक गुरु का काम करता है ,वह ब्रम्हा का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए ज्योतिषी को भवन के इशान कोण मे पूर्व मुखी बैठना चाहिए,क्योंकि इशान कोण मे बेठने या सोने से छटी इंद्रिय कुछ जागृत हो जाती है। ज्योतिषी के लिए पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा अंतर्ज्ञान की ज्यादा आवश्यकता होती है ,ज्योतिषी के मुंह से जो निकले वो जातक को फलना चाहिए।ज्योतिष/वास्तु के जड़ नियम से न बंधकर अपने अंतर्ज्ञान से पुस्तकीय ज्ञान को संतुलित करना चाहिए।
ज्योतिषी/वास्तु शास्त्री के लिए सबसे महत्वपूर्ण है साधना, अगर आप अच्छे साधक नही बन सकते तो आप अच्छे ज्योतिषी भी नही बन सकते। उत्तर मुखी बैठने से धन की प्राप्ति और पूर्व मुखी बेठने से ज्ञान की प्राप्ति होती है,ज्योतिषी को धन की बजाय अपने ज्ञान को महत्व देना चाहिए।
ज्योतिष, वास्तु का यह कार्य हम लोग दुखी जनो की सेवा के लिए करते है ,इसलिए पूर्व मुखी बेठने से हमारे विचार जल्दी सम्प्रेषित होता है ……
मेज के पूर्व मे ताजे फूल रखे। इनमे से कुछ कलियां निकल रही हो तो यह नए जीवन का प्रतीक माना जाता है। फूलो को झड़ने से पहले ही बदल देना शुभ होता है।जब आप मीटिंग रूम मे हो तो नुकीली मेज काम मे न लाएं। कभी भी मीटिंग मे दरवाजे के करीब और उसकी तरफ पीठ करके न बैठे।
ऑफिस मे मंदिर (पूजा स्थल) ईशान कोण मे होना चाहिए। फाइल या किताबो की रेक वायव्य या पश्चिम मे रखना हितकारी होगा। पूर्व की तरफ  मुंह करके बैठते
समय अपने उल्टे हाथ की तरफ ‘कैश बॉक्स’ (धन रखने की जगह) बनाए इससे धनवृद्धि होगी। उत्तर दिशा मे पानी का स्थान बनाए।
अगर ऑफिस घर मे ही बना हो तो यह बेड रूम के पास नही होना चाहिए । पश्चिम दिशा मे प्रमाण पत्र, शिल्ड व मेडल तथा अन्य प्राप्त पुरस्कार को सजा कर रखे। ऐसा करने से आपका ऑफिस निश्चित रूप से वास्तु सम्मत कहलाएगा व आपको शांति व समृद्धि देने के साथ साथ आपकी उन्नति में भी सहायक होगा।
किसी सलाहकार/एडवाइजर का सलाह कक्ष काला, सफेद अथवा नीले रंग का होना चाहिए। जीवन को समृद्धशाली बनाने के लिए व्यवसाय की सफलता महत्वपूर्ण है इसके लिए कार्यालय को वास्तु सम्मत बनाने के साथ साथ विभिन्न रंगों का उपयोग लाभदायक सिद्ध हो सकता है ।

by Pandit Dayanand Shastri.

सफल लेखक बनाने के ज्योतिषीय योग:

जन्मांग चक्र का तृतीय भाव बलवान हो, तृतीय भाव मे कोई ग्रह बली होकर स्थित हो, तृतीयेश स्वराशि या उच्च राशि मे हो तो जातक सफल लेखक होता है। किसी जातक के जीवन के बारे मे जानकारी प्राप्त करने हेतु ज्योतिष शास्त्र मे जन्मांग चक्र का अध्ययन कर बताया जा सकता है कि जातक का सम्पूर्ण जीवन कैसा रहेगा। जन्मांग चक्र के बारह भाव भिन्न भिन्न कारको हेतु निर्धारित है। इन कारको एवं उसके स्वामी ग्रह की स्थिति ही उस कारक के बारे मे सफल फलादेश देने मे समर्थ है।
जन्मांग चक्र के तृतीय भाव से किसी जातक की लेखनी शक्ति के बारे मे जाना जा सकता है। बुध को क्षण प्रतिक्षण मानव मस्तिष्क मे आने वाले विचारो को सुव्यवस्थित रूप से अभिव्यक्ति का कारक ग्रह माना जाता है तो शुक्र को आर्थिक क्षमता का। 

जन्मांग चक्र मे पंचम भाव से जातक की बो़द्धिक एंव तार्किक शक्ति, किसी विषय वस्तु को समझने की शक्ति, ज्ञान व विवेक का विचार किया जाता है। इस प्रकार जन्मांग चक्र के तृतीय भाव, तृतीयेश, पंचम भाव, पंचमेश, बुध व शुक्र की स्थिति के आधार पर जातक की लेखनी शक्ति के बारे मे जाना जाता है किसी भी प्रकार के लेखन हेतु स्मरण शक्ति एंव लेखन अभिव्यक्ति के साथ उसकी मानसिक एकाग्रता एंव उसे आत्मसात करने की क्षमता भी आवश्यक है। इसलिए जन्मांग चक्र का चतुर्थ भाव भी महत्वपूर्ण है। चतुर्थ भाव हृदय का कारक भाव भी माना जाता है। इसलिए कोई जातक किस विषय मे लेखन पूर्णतया लगन से कर पायेगा। इसके लिये चतुर्थ भाव व चतुर्थेश का अध्ययन भी आवश्यक है। चतुर्थ भाव जातक मे किस विषय का लेखन आन्तरिक मनोभावो से प्रेरित होगा। 
 
यदि चतुर्थ भाव पर क्रुर ग्रहो का प्रभाव अधिक बन रहा हो तो जातक क्रांतिकारी विचार अर्थात हिंसात्मक एवं प्रतिक्रियात्मक लेखन मे पुर्ण रूचि रखता है। लेकिन शुभ प्रभाव होने पर शांतिपूर्ण जीवन को ईश्वर का वरदान मानकर उसके अनुसार चलने की हिमायत का पक्षधर लेखन करता है। उसके लेखन मे शांति, सद्भाव, प्रेम, सुख दुःख को जीवन चक्र का अंग मानने का भाव रहता है। लेकिन विपरीत होने पर हमेंशा प्रतिक्रियात्मक विचारो का लेखन करने मे रूचि रखता है। ईश्वर की बनाई सृष्टि मे गलत हस्तक्षेप करने की विचार क्षमता रखता है। यह भी देखा गया है। कि वैज्ञानिक क्रियाकलापो, महत्वपूर्ण खोजो एवं उनके अनुसंधान पर शनि मंगल एवं राहु जैसे ग्रह लेखन क्षमता मे निखार लाते है। इस प्रकार क लेखन के लिये अष्टम भाव एवं भावेश का अध्ययन भी आवश्यक होता है। 

जन्मांग चक्र का तृतीय भाव बलवान हो, तृतीय भाव मे कोई ग्रह बली होकर स्थित हो, तृतीय स्वराशि या उच्च राशि मे हो तो जातक सफल लेखक होता है। तृतीय भाव एवं तृतीयेश पर शुभग्रहो का युति या अन्य प्रभाव हो तो जातक लेखक तो बन सकता है पर शुक्र का बलवान एवं शुभ स्थित होना ही उसे सफल लेखक की संज्ञा दे सकता है क्योंकि शुक्र की बलवान स्थिति ही उसे धन एवं मान-सम्मान की प्राप्ति करा सकती है। वर्तमान मे वही लेखक सफल माना जाता है जिसकी कृतियां पाठक का पूर्णतया मनोंरजन एवं ज्ञान की प्राप्ति कराएं, साथ ही जनमानस मे भी उस कृति को पढने की जागृत होती रहे। किसी कृति के जितने पाठक अधिक होंगे उसमे से जितने पाठक उस कृति से संतुष्ट होंगे एवं लेखक को भी कृति से अप्रत्याशित धन की प्राप्ति हो जाए वही सफल लेखक बन सकता है। 
जन्मांग चक्र मे तृतीय भाव, तृतीयेश के साथ चतुर्थेश एवं पंचमेश की बली स्थिति भी आवश्यक है। चतुर्थेश एवं पंचमेश मे परस्पर योग हो दोनो षडबली होकर स्थिति हो, पंचमेश का लग्नेश से संबंध हो, लग्नेश पूर्णतया बली होकर शुभ भाव मे स्थित हो तो सफलता का प्रतिशत बढ जाता है। किसी जातक के जीवन में लग्न एवं लग्नेश का बली होना उसकी आकर्षण क्षमता मे वृद्धि करता है। लग्न-लग्नेश के बली होने एवं शुभ ग्रहो के युति प्रभाव मे होने पर जातक का व्यक्तित्व निखरता है। उसके व्यक्तित्व मे निखार ही उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे सीढी दर सीढी सफलता की प्राप्ति कराता है। लग्न भाव तृतीय भाव से एकादश भी बनता है। एकादश भाव अर्थात उसके लेखन से कितना लाभ प्राप्त होगा उसके बारे मे जानकारी देने का भाव है। इसलिए लग्न एवं लग्नेश का बली होना ही उसकी लेखन क्षमता की कसौटी का सशक्त माध्यम बनता है।
इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न, तृतीय, चतुर्थ, पंचम भाव व इसके स्वामी ग्रह जन्मांग मे जितने बलवान होकर स्थित होंगे, उसी तारतम्य से जातक को लेखन अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान होगा। इसलिए सफल लेखक हेतु इन सभी कारक ग्रहो बलवान होना, शुभ स्थिति मे होना, नीच एवं अस्त ग्रहों के प्रभाव मे न होंना एवं उचित समय पर आना ही किसी जातक को सफल लेखक बनाने हेतु उत्तम अवसर प्रदान करता है। सफल लेखक बनने हेतु यदि आप भी प्रयत्नशील है तो अपने जन्मांग चक्र का विश्लेषण कर जाने कि कौनसा ग्रह प्रतिकुल परिणाम दे रहा है। उस ग्रह का वैदिक उपाय कर लेने पर उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है।
by Pandit Dayanand Shastri.

“श्री कृष्ण जन्माष्टमी ” होता है जीवन सार्थक करने का पावन पर्व.

जन्माष्टमी अर्थात कृष्ण जन्मोत्सव इस वर्ष जन्माष्टमी का त्यौहार 24/25अगस्त 2016 को मनाया जाएगा। जन्माष्टमी जिसके आगमन से पहले ही उसकी तैयारियां जोर शोर से आरंभ हो जाती है पूरे भारत वर्ष मे इस त्यौहार का उत्साह देखने योग्य होता है। चारो का वातावरण भगवान श्री कृष्ण के रंग मे डूबा हुआ होता है। जन्माष्टमी पूर्ण आस्था एवं श्रद्ध के साथ मनाया जाता है।

पौराणिक धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के ने पृथ्वी को पापियों से मुक्त करने हेतु कृष्ण रुप मे अवतार लिया, भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र मे देवकी और वासुदेव के पुत्ररूप मे हुआ था। जन्माष्टमी को स्मार्त और वैष्णव संप्रदाय के लोग अपने अनुसार अलग-अलग ढंग से मनाते है। श्रीमद्भागवत को प्रमाण मानकर स्मार्त संप्रदाय के मानने वाले चंद्रोदय व्यापनी अष्टमी अर्थात रोहिणी नक्षत्र मे जन्माष्टमी मनाते है तथा वैष्णव मानने वाले उदयकाल व्यापनी अष्टमी एवं उदयकाल रोहिणी नक्षत्र को जन्माष्टमी का त्यौहार मनाते है।

भूलोक पर जब भी असुरों के अत्याचार बढ़े है और धर्म का पतन हुआ है तब तब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और धर्म की स्थापना की है। इसी कड़ी मे भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि केअवजित मुहूर्त मे अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया। एक ऐसा अवतार जिसके दर्शन मात्र से प्राणियो के, घट घट के संताप, दुःख, पाप मिट जाते है। जिन्होने इस श्रृष्टि को गीता का उपदेश दे कर उसका कल्याण किया, जिसने अर्जुन को कर्म का सिद्धांत पढाया, यह उनका जन्मोत्सव है।

हमारे वेदो मे चार रात्रियों का विशेष महातव्य बताया गया है दीपावली जिसे कालरात्रि कहते है, शिवरात्रि महारात्रि है,श्री कृष्ण जन्माष्टमी मोहरात्रि और होली अहोरात्रि है। जिनके जन्म के सैंयोग मात्र से बंदी गृह के सभी बंधन स्वत: ही खुल गए, सभी पहरेदार घोर निद्रा में चले गए, माँ यमुना जिनके चरण स्पर्श करने को आतुर हो उठी, उस भगवान श्री कृष्ण को सम्पूर्ण श्रृष्टि को मोह लेने
वाला अवतार माना  गया है। इसी कारण वश जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात मे योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत “व्रतराज” कहा गया है। इसके सविधि पालन से प्राणी अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्य राशि प्राप्त कर सकते है ।

योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे है। जन्माष्टमी भारत मे हीं नहीं बल्कि विदेशो मे बसे भारतीय भी पूरी आस्था व उल्लास से मनाते है। ब्रजमंडल मे श्री कृष्णाष्टमी “नंद-महोत्सव” अर्थात् “दधिकांदौ श्रीकृष्ण” के जन्म उत्सव का दृश्य बड़ा ही दुर्लभ होता है। भगवान के श्रीविग्रह पर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढा ब्रजवासी उसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते है तथा छप्पन भोग का महाभोग लगते है। वाद्ययंत्रों से मंगल ध्वनि बजाई जाती है। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है। सम्पूर्ण ब्रजमंडल “नन्द के आनंद भयो – जय कन्हैय्या लाल की” जैसे जयघोषो व बधाइयो से गुंजायमान होता है।

हरे कृष्ण ! हरे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! हरे हरे ! हरे राम ! हरे राम ! राम ! राम ! हरे हरे !

हरे कृष्ण ! हरे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! हरे हरे ! हरे राम ! हरे राम ! राम !राम ! हरे हरे !
♦ जानिए कृष्ण जन्माष्टमी पूजा मुहूर्त :
भगवान श्रीकृष्ण का ५२४३वाँ जन्मोत्सव
» निशिता पूजा का समय = २४:०६+ से २४:५१+
» अवधि = घण्टे ४५ मिनट्स
» मध्यरात्रि का क्षण = २४:२८+
» २६ को, पारण का समय = १०:५२ के बाद पारण के दिन अष्टमी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी
» पारण के दिन रोहिणी नक्षत्र का समाप्ति समय = १०:५२
» दही हाण्डी =  २६, अगस्त को
» अष्टमी तिथि प्रारम्भ = २४/अगस्त/२०१६ को २२:१७ बजे
» अष्टमी तिथि समाप्त = २५/अगस्त/२०१६ को २०:०७ बजे
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जन्माष्टमी  25 अगस्त, 2016
निशिथ पूजा– 00:00 से 00:45 (25 अगस्त)
पारण– 10:35 (26 अगस्त) के बाद
रोहिणी समाप्त- 10:35 (26 अगस्त)
अष्टमी तिथि आरंभ – 22:17 (24 अगस्त)
अष्टमी तिथि समाप्त – 20:07 (25 अगस्त)

🌷 🌷🙏

जन्माष्टमी के दिन किया हुआ जप अनंत गुना फल देता है । उसमे भी जन्माष्टमी की पुरी रात, जागरण करके जप-ध्यान का विशेष महत्व है ।

🙏 भविष्य पुराण मे लिखा है कि जन्माष्टमी का व्रत अकाल मृत्यु नहीं होने देता है। जो जन्माष्टमी का व्रत करते है, उनके धर मे गर्भपात नहीं होता ।
🙏 एकादशी का व्रत हजारो – लाखो पाप नष्ट करनेवाला अदभुत ईश्वरीय वरदान है लेकिन एक जन्माष्टमी का व्रत हजार एकादशी व्रत रखने के पुण्य की बराबरी का है।
🙏 एकादशी के दिन जो संयम होता है उससे ज्यादा संयम जन्माष्टमी को होना चाहिए । बाजारु वस्तु तो वैसे भी साधक के लिए विष है लेकिन जन्माष्टमी के दिन तो चटोरापन, चाय, नाश्ता या इधर – उधर का कचरा अपने मुख में न डालें ।
🙏 इस दिन तो उपवास का आत्मिक अमृत पान करे ।अन्न, जल, तो रोज खाते – पीते रहते है, अब परमात्मा का रस ही पियें । अपने अहं को समाप्त कर दे।
🙏🌷🌹🌻💐🌺🍁🍀🌸🙏
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♦जन्माष्टमी : पूजन सामग्री–
भगवान कृष्‍ण के जन्माष्टमी पर पूजन सामग्री का भी काफी महत्व होता है। आपके लिए पेश है पूजन सामग्री की सूची :-

पूजन सामग्री : श्रीकृष्ण का पाना (अथवा मूर्ति), गणेशजी की मूर्ति, अम्बिका की मूर्ति, सिंहासन (चौकी, आसन), पंच पल्लव, (बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते), पंचामृत, तुलसी दल, केले के पत्ते, (यदि उपलब्ध हों तो खंभे सहित), औषधि, (जटामॉसी, शिलाजीत आदि) दीपक, बड़े दीपक के लिए तेल, बन्दनवार, अर्घ्य पात्र सहित अन्य सभी पात्र।

सुगंधित एवं अन्य सामग्री : इत्र की शीशी, धूप बत्ती (अगरबत्ती), कपूर, केसर, चंदन, यज्ञोपवीत 5, कुंकु, चावल, अबीर, गुलाल, अभ्रक, हल्दी, आभूषण, नाड़ा, रुई, रोली, सिंदूर, सुपारी, मौली, पान के पत्ते, पुष्पमाला, कमलगट्टे-, तुलसीमाला।

धन धान्य : धनिया खड़ा, सप्तमृत्तिका, सप्तधान्य, कुशा व दूर्वा, पंच मेवा, गंगाजल, शहद (मधु), शक्कर, घृत (शुद्ध घी), दही, दूध, ऋतुफल, नैवेद्य या मिष्ठान्न, (पेड़ा, मालपुए इत्यादि), इलायची (छोटी), लौंग, ताम्बूल (लौंग लगा पान का बीड़ा), श्रीफल (नारियल), धान्य (चावल, गेहूं), पुष्प (गुलाब एवं लाल कमल), एक नई थैली मे हल्दी की गांठ आदि।

वस्त्र : श्रीकृष्ण को अर्पित करने हेतु वस्त्र, गणेशजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र, अम्बिका को अर्पित करने हेतु वस्त्र, जल कलश (तांबे या मिट्टी का), सफेद कपड़ा (आधा मीटर), लाल कपड़ा (आधा मीटर), पंच रत्न (सामर्थ्य अनुसार)।

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♦ श्री कृष्ण जन्माष्टमी के व्रत महात्यम:-
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी संपूर्ण भारत मे भाद्रपद मास मे कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन भगवान् श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन लोग उपवास रखते है। शास्त्रो मे बताया गया है कि जो व्यक्ति जन्माष्टमी का व्रत विधि-विधानानुसार करता है, उसके समस्त पाप मिट जाते है व सुख समृद्धि मिलती है। संपूर्ण भारत मे भाद्रपद मास मे कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन भगवान् श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन लोग उपवास रखते है। आरती के बाद दही, माखन, पंजीरी व अन्य प्रसाद भोग लगाकर बांटे जाते है। कुछ लोग रात मे ही पारण करते है और कुछ दूसरे दिन ब्राह्मणो को भोजन करा कर स्वयं पारण करते है।

शास्त्रो मे बताया गया है कि जो व्यक्ति जन्माष्टमी का व्रत विधि-विधानानुसार करता है, उसके समस्त पाप मिट जाते है व सुख समृद्धि मिलती है। भविष्य पुराण के जन्माष्टमी व्रत-माहात्म्य मे यह कहा गया है कि जिस राष्ट्र या प्रदेश मे यह व्रतोत्सव किया जाता है, वहां पर प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का ताण्डव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते है तथा फसल खूब होती है। जनता सुख-समृद्धि प्राप्त करती है। इस व्रतराज के अनुष्ठान से सभी को परम श्रेय की प्राप्ति होती है। व्रतकर्ता भगवत्कृपा का भागी बनकर इस लोक मे सब सुख भोगता है और अन्त मे वैकुंठ जाता है। कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं।दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है।

गृहस्थो को पूर्वोक्त द्वादशाक्षर मंत्र से दूसरे दिन प्रात:हवन करके व्रत का पारण करना चाहिए। जिन भी लोगो को संतान न हो, वंश वृद्धि  न हो, पितृ दोष से पीड़ित हो, जन्मकुंडली मे कई सारे दुर्गुण, दुर्योग हो, शास्त्रों के अनुसार इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाले को एक सुयोग्य,संस्कारी,दिव्य संतान की प्राप्ति होती है, कुंडली के सारे दुर्भाग्य सौभाग्य मे बदल जाते है और उनके पितरो को  नारायण स्वयं अपने हाथो से जल दे के मुक्तिधाम प्रदान करते है ।

देवताओं मे भगवान श्री कृष्ण विष्णु के अकेले ऐसे अवतार हैं जिनके जीवन के हर पड़ाव के अलग रंग दिखाई देते है। उनका बचपन लीलाओं से भरा पड़ा है। उनकी जवानी रासलीलाओं की कहानी कहती है, एक राजा और मित्र के रूप मे वे भगवद् भक्त और गरीबों के दुखहर्ता बनते है तो युद्ध मे कुशल नितिज्ञ। महाभारत मे गीता के उपदेश से कर्तव्यनिष्ठा का जो पाठ भगवान श्री कृष्ण ने पढ़ाया है आज भी उसका अध्ययन करने पर हर बार नये अर्थ निकल कर सामने आते है। भगवान श्री कृष्ण के जन्म लेने से लेकर उनकी मृत्यु तक अनेक रोमांचक कहानियां है। इन्ही श्री कृष्ण के जन्मदिन को हिंदू धर्म मे आस्था रखने वाले और भगवान श्री कृष्ण को अपना आराध्य मानने वाले जन्माष्टमी के रूप मे मनाते है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण की कृपा पाने के लिये भक्तजन उपवास रखते है और श्री कृष्ण की पूजा अर्चना करते है

स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल मे सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग मे भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी मे अट्ठाइसवें युग मे देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात मे कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि मे इस व्रत को करे। भविष्य पुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष मे कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि मे ही उपवास करना कहा गया है। जिन परिवारो मे कलह-क्लेश के कारण अशांति का वातावरण हो, वहां घर के लोग जन्माष्टमी का व्रत करने के साथ निम्न किसी भी मंत्र का अधिकाधिक जप करे-

♦”ॐ नमो नारायणाय” ||

♦”ॐ नमों भगवते वासुदेवाय” ||
♦”श्री कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।प्रणत: क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नम:” ||
♦”श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवाय” ||
उपर्युक्त मंत्र मे से किसी का भी  का जाप करते हुए सच्चिदानंदघन श्रीकृष्णकी आराधना करे। इससे परिवार मे व कुटुंब मे व्याप्त तनाव, समस्त प्रकार की समस्या, विषाद, विवाद और विघटन दूर होगा खुशियां घर मे वापस लौट आएंगी। गौतमी तंत्र मे यह निर्देश है- प्रकर्तव्योन भोक्तव्यं कदाचन।कृष्ण जन्मदिने यस्तु भुड्क्ते सतुनराधम:। निवसेन्नर केघोरे यावदाभूत सम्प्लवम्॥अर्थात- अमीर-गरीब सभी लोग यथाशक्ति-यथासंभव उपचारों से योगेश्वर कृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन कदापि न करे। जो वैष्णव कृष्णाष्टमी के दिन भोजन करता है, वह निश्चय ही नराधम है। उसे प्रलय होने तक घोर नरक मे रहना पडता है।

अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमे केवल पहली अष्टमी है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो ‘जयंती’ नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी मे यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतःउसमे प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास मे हो तो वह जयंती नाम वाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनो का योग अहोरात्र मे असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र मे भी अहोरात्र के योग मे उपवास करना चाहिए। मदन रत्न मे स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक मे करते है। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते है। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी मे जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमे कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापो का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त मे पारणा करे। इसमे केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है।

♦ व्रत-पूजन कैसे करे ???
श्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत सनातन-धर्मावलंबियों के लिए अनिवार्य माना गया है। साधारणतया इस व्रतके विषय मे दो मत है । स्मार्त लोग अर्धरात्रि स्पर्श होनेपर या रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमी सहित अष्टमी मे भी उपवास करते है , किन्तु वैष्णव लोग सप्तमी का किन्चिन मात्र स्पर्श होनेपर द्वितीय दिवस ही उपवास करते है । वैष्णवो मे उदयाव्यपिनी अष्टमी एवं रोहिणी नक्षत्र को ही मान्यता एवं प्रधानता दी जाती है | उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करे और ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ। पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठे। इसके बाद जल, फल, कुश, द्रव्य दक्षिणा और गंध लेकर संकल्प करे-

ॐविष्णुíवष्णुíवष्णु:अद्य शर्वरी नाम संवत्सरे सूर्ये दक्षिणायने वर्षतरै भाद्रपद मासे कृष्णपक्षे श्रीकृष्ण जन्माष्टम्यां तिथौ भौम वासरे अमुकनामाहं (अमुक की जगह अपना नाम बोलें) मम चतुर्वर्ग सिद्धि द्वारा श्रीकृष्ण देवप्रीतये जन्माष्टमी व्रताङ्गत्वेन श्रीकृष्ण देवस्य यथामिलितोपचारै:पूजनं करिष्ये।

यदि उक्त मंत्र का प्रयोग व उच्चारण कठिन प्रतीत हो तो निम्न मंत्र का प्रयोग भी कर सकते है…
“ममखिलपापप्रशमनपूर्वकसर्वाभीष्टसिद्धयेश्रीकृष्णजन्माष्टमी व्रतमहंकरिष्ये॥”

आज के दिन “संतान गोपाल मंत्र”, के जाप व “हरिवंश पुराण”, “गीता”  के पाठ का भी बड़ा ही महत्व है। यह तिथि तंत्र साधको के लिए भी बहु प्रतीक्षित होती है, इस तिथि मे “सम्मोहन”  के प्रयोग सबसे ज्यादा सिद्ध किये जाते है। यदि कोई सगा सम्बन्धी रूठ जाये, नाराज़ हो जाये, सम्बन्ध विच्छेद हो जाये,घर से भाग जाये, खो जाये तो इस दिन उन्हें वापिस बुलाने का प्रयोग अथवा बिगड़े संबंधो को मधुर करने का प्रयोग भी खूब किया जाता है।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी का पूजन फल: 
जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म मे सभी प्रकार के सुखो को भोग कर अंत मे मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते है, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते है। वे उत्तम गति को प्राप्त करते है।
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♦ जन्माष्टमी का महत्व: 
विधि:- श्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत सनातन धर्म के लोगों के लिए अनिवार्य माना जाता है। जो वैष्णव कृष्णाष्टमी के दिन भोजन करता है वो निश्चय ही नराधम है। उसे प्रलय होने तक घोर नरक मे रहना पड़ता है। भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति का दूध,दही,शहद,यमुनाजल आदि से अभिषेक होता है। उसके उपरांत विधिपूर्वक पूजन किया जाता है। कुछ लोग रात्रि को १२ बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीक स्वरुप खीरा चीरते है।

जागरण:- धर्मग्रंथों मे जन्माष्टमी के दिन जागरण का विधान भी बताया गया है। इस रात्री को भगवान के नाम का संकीर्तन या उनके मन्त्र “नमो भगवते वासुदेवाय” का जाप भी करते है। श्रीकृष्ण का जाप करते हुए सारी रात जागने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जन्मोत्सव के पश्चात घी की बत्ती,कपूर आदि से आरती करते है। इस दिन वैसे तो पूरा दिन व्रत रखते है लेकिन असमर्थ फलाहार कर सकते है।

पुराणो मे यह कहा जाता है कि जिस राष्ट्र या राज्य मे यह व्रतोत्सव किया जाता है वहां पर प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का तांडव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते है तथा फसल खूब होती है। सभी को सुख-समृधि प्राप्त होती है। व्रतकर्ता भगवान की कृपा पाकर इस लोक मे सब सुख भोगता है और अंत मे वैकुंठ जाता है। व्रत करने वालों के सब क्लेश दूर हो जाते है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा जाता है। इस रात मे योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान,नाम अथवा मन्त्र जपते हुए जागने से संसार की मोह-माया से मुक्ति मिलती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इस व्रत का पालन करना चाहिए।

जय श्री कृष्ण ।
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♦ जन्माष्टमी के विभिन्न रंग रुप : 
यह त्यौहार विभिन्न रुपों मे मान्या जाता है कहीं रंगों की होली होती है तो कहीं फूलों और इत्र की सुगंन्ध का उत्सव होता तो कहीं दही हांडी फोड़ने का जोश और कहीं इस मौके पर भगवान कृष्ण के जीवन की मोहक छवियां देखने को मिलती है।मंदिरों को विशेष रुप से सजाया जाता है। कृष्ण भक्त इस अवसर पर व्रत एवं उपवास का पालन करते है इस दिन मंदिरो मे झांकियां सजाई जाती है भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है तथा कृष्ण रासलीलाओं का आयोजन होता है।

श्री जन्माष्टमी के शुभ अवसर समय भगवान कृष्ण के दर्शनो के लिएए दूर दूर से श्रद्धालु मथुरा पहुंचते है। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर ब्रज कृष्णमय हो जाता है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। मथुरा के सभी मंदिरों को रंग बिरंगी लाइटो व फूलो से सजाया जाता है। भगवन श्री कृष्ण की जन्म स्थली  मथुरा मे जन्माष्टमी पर आयोजित होने वाले श्रीकृष्ण जन्मोत्सव को देखने के लिए देश से ही नहीं बल्कि विदेशो से लाखो की संख्या मे कृष्ण भक्त पंहुचते है।  भगवान के विग्रह पर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर लोग उसका एक दूसरे पर छिडकाव करते है। इस दिन मंदिरों मे झांकियां सजाई जाती है तथा भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है और रासलीला का आयोजन किया जाता है।

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♦इस जन्माष्टमी पर इन सरल उपायो से करे अपनी समस्या का समाधान:
⇒ दारिद्रय निवारण के लिए :
‘ श्री हरये नम:’ मंत्र का यथाशक्ति जप करे तथा श्रीकृष्ण भगवान के विग्रह का पंचोपचार पूजन कर पंचामृत का नेवैद्य लगाएं।

⇒ कस्ट नाश व सुख-शांति के लिए:

‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जप करे। श्रीकृष्ण भगवान के विग्रह का पंचामृत से अभिषेक कर मेवे का नेवैद्य लगाएं । यह मंत्र कल्पतरु है।

⇒विपत्ति-आपत्ति से बचने के लिए :

‘श्रीकृष्ण शरणं मम्’ इस मंत्र का जप करे।

⇒ शांति तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए- ‘

‘ ॐ क्लीं हृषिकेशाय नम:’ इस मंत्र का जप करे।

⇒ विवाहादि के लिए :

‘श्री गोपीजन वल्लभाय स्वाहा’ मंत्र का जप करें तथा राधाकृष्ण के‍ विग्रह का पूजन करे।

⇒ घर मे सुख-शांति के लिए : 

‘ॐ नमो भगवते रुक्मिणी वल्लभाय स्वाहा’ मंत्र का जप करे तथा कृष्ण-रुक्मणी का चित्र सामने रखे।

⇒ संतान प्राप्ति के लिए:

 ‘ॐ देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत:।।’ 

निम्न मंत्र की 1 माला नित्य करे। निश्चित ही संतान प्राप्ति होती है तथा उच्चारण का विशेष ध्यान रखे।

⇒धन-संपत्ति के लिए: 

‘ॐ श्रीं लक्ष्मी वासुदेवाय नम:’। श्री लक्ष्मी-विष्णु की प्रतिमा रखकर पंचोपचार पूजन कर जपें।

⇒ शत्रु शांति के लिए :

 ‘ॐ उग्र वीरं महाविष्णुं ज्वलंतं सर्वतोमुखम्।
नृ‍सिंह भीषणं भद्रं, मृत्युं-मृत्युं नमाम्यहम्।।’

भगवान नृ‍सिंह की सेवा अत्यंत लाभदायक है। निम्न मंत्र की एक माला नित्य करने से शत्रु शांति, टोने-टोटके, भूत-प्रेत आदि से बचाव होता है !

⇒विशेष : परोल्लिखित मंत्रों मे पूजन मे तुलसी का प्रयोग अवश्य करे। पूर्वाभिमुख होकर। कुशासन तथा श्वेत वस्त्र का उपयोग करे।

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आप सभी को ‘भगवान श्री कृष्ण जन्माष्टमी’ के पावन पर्व की “हार्दिक शुभकामनाएँ…..”।
by Pandit Dayanand Shastri.

ज्योतिषशास्त्र से जानिए की केसा है आपका मित्र…फ्रेंड या दोस्त….???

संसार मे खून के रिश्ते ईश्वर बनाता है। ये रिश्ते ऐसे होते है, जिन्हे हम स्वयं नहीं चुन सकते, इन्हे स्वीकार करना हमारी नियति होती है, लेकिन एक रिश्ता ऐसा भी होता है, जो हम स्वयं बनाते है, वह रिश्ता है ‘मित्रता’ का। यह रिश्ता दो व्यक्तियो के मध्य समान विचारधारा, समान रुचियों के कारण बनता है।

मित्रों, किसी भी जन्मपत्री मे मुख्य रूप से मित्र का विचार पंचम भाव से किया जाता है तथा एकादश भाव से मित्र की प्रकृति एवं तृतीय भाव से मित्र से होने वाले हानि-लाभ का विचार किया जाता है।

प्रत्येक प्राणी किसी न किसी ग्रह, राशि व लग्न के प्रभाव मे होता है और मित्रता जातक की कुंडली तय करती है। ज्योतिष के अनुसार नौ ग्रहों में पांच प्रकार की मित्रता होती है। परम मित्र, मित्र, शत्रु, अधिशत्रु एवं ग्रहों की स्थिति के अनुसार तात्कालिक मैत्री।

इसी प्रकार राशियो मे भी आपसी मैत्री संबंध होते है। कुंडली के प्रथम, चतुर्थ, द्वितीय, पंचम, सप्तम व एकादश भाव और बुध ग्रह प्रमुख रूप से मित्रता के कारक होते है। कुंडली का सीधा संबंध भाव, ग्रह व राशियो से होता है। तीनो प्रकार के संबंध जीवन की दिशा तय करते है।

मनुष्य जीवन के सारे महत्वपूर्ण रिश्ते जन्म से मिलते है जो हमारे हाथ मे नही होते है लेकिन जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और करीबी रिश्ता जो हम बनाते है वह दोस्ती का रिश्ता होता है यह रिश्ता कब और किससे बनता है साथ ही आप और आपके दोस्त के आचार-विचार, रहन-सहन सब कुछ सितारों से बनते है इसलिए आपकी जन्मकुंडली, आपका लग्न व आपकी राशि बताती है कौन आपका सच्चा दोस्त होगा ।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हमारी कुंडली मे स्थित सभी नौ ग्रहों की भी आपस मे मित्रता और शत्रुता होती है। इनके संबंधों का भी प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है।

प्रत्येक प्राणी किसी न किसी ग्रह, राशि व लग्न के प्रभाव मे होता है और मित्रता जातक की कुंडली तय करती है। ज्योतिष के अनुसार नौ ग्रहों में पांच प्रकार की मित्रता होती है। परम मित्र, मित्र, शत्रु, अधिशत्रु एवं ग्रहों की स्थितिनुसार तात्कालिक मैत्री। इसी प्रकार राशियों में भी आपसी मैत्री संबंध होते है। 

कुंडली के प्रथम, चतुर्थ, द्वितीय, पंचम, सप्तम व एकादश भाव और बुध ग्रह प्रमुख रूप से मित्रता के कारक होते है। कुंडली का सीधा संबंध भाव, ग्रह व राशियों से होता है। तीनों प्रकार के संबंध जीवन की दिशा तय करते है।  उग्र व गर्म मिजाज….

दो विभिन्न व्यक्तियों, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी का आपसी संबंध राशियों के तत्व पर आधारित होता है। हमारा शरीर पंच तत्त्वों से बना है और 12 राशियां इन्हीं में से 4 तत्वों मे विभाजित की गई है। अग्नि, भूमि, वायु (इसमे आकाश तत्व भी शामिल है) व जल। 

मेष, सिंह व धनु राशियां अग्नि तत्व प्रधान अर्थात ये उग्र व गर्म मिजाज वाली राशियां होती है। वृष, कन्या व मकर राशियां भूमि या पृथ्वी तत्त्व प्रधान होने के कारण धैर्यशाली व ठंडे मिजाज वाली, मिथुन, तुला व कुंभ राशियां वायु तत्त्व प्रधान होने के कारण अस्थिर चित्त व द्विस्वभाव वाली होती है।

> राशियों मे गहरी मित्रता—-

कर्क , वृश्चिक व मीन राशियां जल तत्व प्रधान है। ये धीर-गंभीर व विशाल हृदया होती है। ज्योतिष के मुताबिक एक ही तत्व की राशियों मे गहरी मित्रता होती है। पृथ्वी, जल तत्त्व और अग्नि, वायु तत्वो वाले जातको की भी पटरी अच्छी बैठती है। अग्नि व वायु तत्त्व वालों की मित्रता भी होती है। लेकिन पृथ्वी, अग्नि तत्त्व, जल तथा अग्नि तत्व एवं जल तथा वायु तत्त्वों वाले जातको मे शत्रुता के संबंध होते है। 

तत्व के अलावा राशियों के स्वभाव पर भी मित्रता का असर होता है। राशियो के हिसाब से देखें तो स्वयं की राशि के अलावा मेष, सिंह व धनु राशि वालो की मित्रता मिथुन, तुला व कुंभ राशि वाले लोगों से होती है। वृष, कन्या व मकर राशि वाले लोगों की मित्रता कर्क, वृश्चिक व मीन राशि वाले लोगों से ज्यादा पटती है। 

सिर्फ राशिया ही नहीं ग्रहों की भी मित्रता में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नव ग्रहों मे सूर्य-सिंह राशि, चंद्रमा-कर्क राशि, मंगल-मेष व वृश्चिक, बुध-मिथुन व कन्या, गुरु-धनु व मीन राशि, शुक्र-वृष व तुला तथा शनि-मकर व कुंभ राशि के स्वामी होते है। शास्त्रों मे इनमे नैसर्गिक मैत्री संबंध बताए गए है। 

किसी भी जातक की जन्म कुंडली मे मौजूद नवमांश कुंडली के अनुसार मनुष्य का आचरण या स्वभाव जाना जा सकता है । 

इस संसार मे मोजुद प्राणियों मे मनुष्य बड़ा विचित्र प्राणी है । इसके चेहरे पर कुछ और होता है और अंदर मन मे कुछ और होता है ।

मनुष्य के स्वभाव को जानना बहुत मुश्किल काम है । कुछ मनुष्य देखने मे बहुत सुंदर होते है लेकिन मन से बहुत काले कपटी और घमंड या ईगो तथा गंदगी से भरे होते है । इसको जानने के लिए किसी भी जातक की नवमांश कुंडली का प्रयोग करना चाहिए ।
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> ज्योतिष अनुसार राशियां भी जिम्मेदार : 

दो विभिन्न व्यक्तियों, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी का आपसी संबंध राशियो के तत्व पर आधारित होता है। हमारा शरीर पंच तत्वों से बना है और 12 राशियां इन्हीं में से 4 तत्वों में विभाजित की गई हैं। ‘अग्नि’ ‘भूमि’, ‘वायु’ (इसमें आकाश तत्व भी शामिल है) व जल। मेष, सिंह व धनु राशियां अग्नि तत्व प्रधान अर्थात ये उग्र व गर्म मिजाज वाली राशियां होती हैं। वृष, कन्या व मकर राशियां भूमि या पृथ्वी तत्व प्रधान होने के कारण धैर्यशाली व ठंडे मिजाज वाली, मिथुन, तुला व कुंभ राशियां वायु तत्व प्रधान होने के कारण अस्थिर चित्त व द्विस्वभाव वाली होती हैं। कर्क, वृश्चिक व मीन राशियां जल तत्व प्रधान हैं। ये धीर-गंभीर व विशाल हृदया होती हैं।

एक ही तत्व की राशियों मे गहरी मित्रता होती है। पृथ्वी, जल तत्व और अग्नि, वायु तत्वों वाले जातकों की भी पटरी अच्छी बैठती है। अग्नि व वायु तत्व वालों की मित्रता भी होती है लेकिन पृथ्वी, अग्नि तत्व, जल तथा अग्नि तत्व एवं जल तथा वायु तत्वों वाले जातकों मे शत्रुता के संबंध होते है। तत्व के अलावा राशियों के स्वभाव पर भी मित्रता का असर होता है। राशियों के हिसाब से देखें तो स्वयं की राशि के अलावा मेष, सिंह व धनु राशि वालों की मित्रता मिथुन, तुला व कुंभ राशि वाले लोगों से होती है। वृष, कन्या व मकर राशि वाले लोगों की मित्रता कर्क, वृश्चिक व मीन राशि वाले लोगों से ज्यादा पटती है।
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> दोस्ती मे होता है ग्रहो का बोलबाला : 

ज्योतिषशास्त्र सिर्फ राशियां ही नहीं, ग्रहो की भी मित्रता मे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नवग्रहो मे सूर्य-सिंह राशि, चंद्रमा-कर्क राशि, मंगल-मेष व वृश्चिक, बुध-मिथुन व कन्या, गुरु-धनु व मीन राशि, शुक्र-वृष व तुला तथा शनि-मकर व कुंभ राशि के स्वामी होते है। शास्त्रों में इनमे नैसर्गिक मैत्री संबंध बताए गए है। इसके अलावा ग्रहों मे तात्कालिक मैत्री भी होती है, जो इनकी कुंडली मे स्थिति के अनुसार होती है जैसे मंगल व शनि कुंडली मे एक साथ बैठे हो तो इनमे तात्कालिक मैत्री संबंध होते हैं। मोटे तौर पर हम ग्रहो की तीन प्रकार-मित्रता, शत्रुता व साम्यता के बारे मे जानकारी लेते है। 

» आइए देखे ग्रहो के नैसर्गिक मैत्री संबंध क्या है : 
♦ सूर्य :

सूर्य के चंद्रमा, मंगल व गुरु मित्र होते है। शनि-शुक्र शत्रु व बुध से साम्यता के संबंध है। इस प्रकार सिंह राशि वाले की मित्रता मेष, कर्क, वृश्चिक, धनु व मीन राशि वालो से व मकर, कुंभ, वृष व तुला वाले लोगों से शत्रुता होती है। सूर्य तेज व अधिकारिता के स्वामी हैं अत: इनकी चाहत रखने वाले से मैत्री संबंध व शनि व शुक्र क्रमश: सेवा व आराम पसंद होते हैं इसलिए इनसे शत्रुता होती है।

♦ चंद्र :

चंद्र ग्रह के अधिकांश ग्रह मित्र होते है परंतु बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतू इन्हे पसंद नहीं करते। बुध, शुक्र, गुरु, शनि मित्र व सिर्फ मंगल से शत्रुता होती है। चंद्रमा जल प्रधान व मंगल अग्नि तत्व प्रधान होते हैं। जाहिर है कि आग और पानी में मित्रता नहीं हो सकती।

♦ मंगल :

मंगल के मित्र शनि व सूर्य होते है। चंद्र व गुरु से साम्यता व शुक्र व बुध से शत्रुता के संबंध होते हैं। इस प्रकार मेष व वृश्चिक राशि वाले लोगों की मित्रता कर्क, धनु व मीन से तथा वृष, तुला, मिथुन व कन्या राशि से शत्रुता होती है।

♦ बुध :

इस ग्रह के सूर्य, गुरु व चंद्र मित्र होते है। शनि से इनकी शत्रुता होती है। इस प्रकार मिथुन व कन्या राशि वाले लोगों की मित्रता सिंह, कर्क, धनु व मीन राशि के लोगो से होती है। मकर व कुंभ राशि से असामान्य संबंध होते है।

♦ गुरु :

गुरु के मंगल, चंद्र, शनि मित्र व शुक्र तथा बुध से शत्रुता होती है। इस प्रकार धनु व मीन राशि के लोगों की मेष, वृश्चिक, कर्क, मकर व कुंभ से मित्रता तथा वृष, तुला व मिथुन, कन्या से शत्रुतापूर्ण संबंध होते है। गुरु स्वयं मर्यादा मे रहना सिखाते है जबकि बुध व शुक्र दोनों ही आदतन इससे दूर रहने वाले होते है।

♦ शुक्र :

इसके गुरु, सूर्य मित्र व मंगल शत्रु होते है। इस प्रकार शुक्र की राशि वृष व तुला वाले लोगों की मित्रता, सिंह, धनु व मीन राशि वालों से तथा मेष व वृश्चिक राशि के लोगो से शत्रुतापूर्ण संबंध होते हैं। चंद्रमा, बुध व शनि के साथ इनके समानता के संबंध होते है। 

♦ शनि :

इस ग्रह की गुरु, चंद्र, मंगल से मित्रता व शनि सूर्य से शत्रुता रखते है। अत: मकर व कुंभ राशि वाले लोगों की मित्रता मेष, वृश्चिक, कर्क, धनु व मीन राशि के लोगो से होती है। सिंह राशि के लोगो से मित्रता नहीं होती है।

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» ज्योतिष के अनुसार मैत्री के प्रमुख भाव :

मित्रता का प्रमुख भाव एकादश भाव है जो आय भाव भी है जिसके जितने अच्छे मित्र होंगे, आय भाव उतना ही मजबूत होगा। अन्यथा कमजोर होगा। इस भाव मे यदि सूर्य हो तो ऐसे जातक की उच्च पदासीन, सत्तासीन व राजनीतिक लोगों से मित्रता होगी। चंद्रमा इस भाव में होने पर मित्र कलाकार, वायुयान चालक, जहाज के कैप्टन, नाविक आदि मित्र होंगे। 

यदि एकादश भाव मे मंगल है तो मित्र खिलाड़ी, पहलवान, कुक आदि प्रकृति के लोग होंगे व बुध इस भाव में होने पर व्यावसायिक वृत्ति के लोग, गुरु इस भाव मे होने पर बैंकिंग, वित्त धार्मिक आस्था, दार्शनिक आदि मित्र होंगे। शुक्र इस भाव मे होने पर अभिनय क्षेत्र, स्त्री जातक, कलाकार आदि मित्रों की संख्या अधिक होगी। 

शनि एकादश भाव मे होने पर नौकरी पेशा, सेवावृत्ति, अपनी आयु से अधिक उम्र वाले लोगो से मैत्री संबंध होते है। यदि इस भाव में राहु या केतू हो तो ऐसे व्यक्ति के छद्म मित्रों व अपनी जाति से इतर लोगों से मित्रों की संख्या अधिक होती है। वह अपने लोगो से दूर-दूर रहता है।
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» जानिए बुध ग्रह और दोस्ती/मैत्री /फ्रेंडशिप का सम्बन्ध :

> बुध को मित्रता का नैसर्गिक ग्रह माना जाता है। इस प्रकार बुध इन भावो से संबंध बना ले, तो जातक के जीवन मे मित्रो की संख्या अधिक होती है। इन भावो तथा बुध के अतिरिक्त जब  दो जातको के राशि स्वामी, लग्न स्वामी, नक्षत्र स्वामी आदि एक ही हो जाएं अथवा उनमे मित्रता हो, तो उन जातको के मध्य मित्रता होना स्वाभाविक है।

> पंचम भाव मे यदि दो या उससे अधिक पाप ग्रह स्थित हो या उसे देखते हो, तो जातक के जीवन मे मित्रो का सुख नहीं होता। पंचमेश यदि पंचम, नवम, एकादश अथवा तृतीय भाव में स्थित हो और उसको पाप ग्रह नहीं देखते हों और न ही युति करते हो, तो जातक को मित्रों का सुख होता है।

> एकादश तथा पंचम भाव के स्वामी यदि युति करते हुए त्रिकोण या केंद्र भावो मे स्थित हो, तो जातक की मित्रता श्रेष्ठ व्यक्तियो से होती है। यदि तृतीयेश की स्थिति शुभ हो, तो उसे मित्रों से लाभ भी होता है।

> तृतीयेश यदि बली तथा शुभ ग्रहो से युक्त होकर शुभ स्थानो मे स्थित हो अथवा तृतीयेश का शुभ संबंध पंचमेश या एकादशेश से हो जाए, तो तत्सम्बन्धी ग्रह की राशि वाले जातकों की मित्रता से उसको अधिक लाभ की प्राप्ति होगी।

> बुध एवं मंगल पंचम भाव के विशेष योगकारी ग्रह है। यदि किसी जातक की कुंडली में बुध अथवा मंगल योगकारी अथवा मित्रक्षेत्री होकर पंचम में स्थित हो, तो उस जातक के जीवन में मित्रों की कमी नही होती है।

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» जानिए अपनी जन्म कुंडली अनुसार कौन सा ग्रह किस दूसरे ग्रह का मित्र, शत्रु तथा सम (न मित्र और न शत्रु) है-

♦ सूर्य ग्रह की मित्रता चंद्र, मंगल और गुरु से है, शुक्र तथा शनि से इसकी शत्रुता है और बुध ग्रह से सम भाव है।

 ♦ चंद्र के बुध, सूर्य मित्र है । मंगल, शुक्र, शनि तथा गुरु समय है।

♦ मंगल ग्रह के सूर्य, चंद्र और गुरु मित्र है, बुध शत्रु है और शुक्र तथा शनि से इसका सम भाव है।

♦ बुध ग्रह की मित्रता सूर्य तथा शुक्र मित्र है, चंद्र शत्रु है और मंगल गुरु तथा शनि सम है।

♦ गुरु की मित्रता सूर्य, चंद्र और मंगल से है। कुछ ज्योतिष के विद्वान गुरु और चंद्र एक-दूसरे को शत्रु भी मानते है।

♦ शुक्र के बुध और शनि मित्र हैं, सूर्य और चंद्र शत्रु हैं तथा मंगल और गुरु समय हैं।

♦ शनि ग्रह बुध और शुक्र से मित्रता रखता है जबकि सूर्य, चंद्र, मंगल को शत्रु मानता है। गुरु से सम भाव है।

♦ राहु और केतु छाया ग्रह माने जाते है, विद्वानो के अनुसार राहु और केतु दोनो शुक्र और शनि से मित्रता रखते है एवं सूर्य, चंद्र मंगल तथा गुरु इन चारो ग्रह से शत्रुता रखते है। बुध इन दोनो ग्रहो से सम भाव रखता है।

♦ सूर्य, चंद्र, मंगल और गुरु ये चारो ग्रह राहु तथा केतु से शत्रुता मानते है जबकि शुक्र और शनि राहु-केतु के मित्र है। बुध इन दोनों से सम भाव रखता है।

♦ जेसे यदि किसी जातक की कुंडली मे लग्न का स्वामी ग्रह शुभ हो और नवमांश मे नीच या अशुभ हो या 6,8,12 मे बैठा हो तथा शनि राहू केतू से पीड़ित हो तो जातक बाहर से सुंदर तथा अंदर से काला होता है । 

♦जेसे यदि किसी जातक की लग्न कुंडली मे लग्न का स्वामी ग्रह शुभ हो और नवमांश मे भी शुभ हो तथा शुभ ग्रहो से युति या दृष्टि मे हो तो ऐसा जातक बाहर से भी सुंदर और अंदर से भी सुंदर होता है । 

♦ जेसे यदि किसी जातक की लग्न कुंडली मे लग्न का स्वामी ग्रह क्रूर या पापी हो तथा नवमांश मे शुभ दृष्टि हो या शुभ राशि मे या वर्गोत्तम हो तो ऐसा जातक बाहर से कुरूप या स्पष्टवादी तथा अंदर से भी सुंदर होता है ।

♦ जेसे यदि किसी जातक की लग्न कुंडली मे लग्न का स्वामी ग्रह क्रूर या पापी हो और नवमांश मे भी पापी नीच या 6,8,12 मे हो या अशुभ राशि मे हो तो ऐसा जातक बाहर से भी कुरूप तथा अंदर से भी कुरूप और गंदगी से भरा होता है। 

by Pandit Dayanand Shastri.

संतान दोष : जानिए ज्योतिषीय कारण और  उपाय/निवारण

हर विवाहित स्त्री चाहती है कि उसका भी कोई अपना हो जो उसे मां कहकर पुकारे ।  सामान्यत: अधिकांश महिलाएं भाग्यशाली होती है जिन्हे यह सुख प्राप्त हो जाता है। फिर भी काफी महिलाएं ऐसी है जो मां बनने के सुख से वंचित है। यदि पति-पत्नी दोनो ही स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम है फिर भी उनके यहां संतान उत्पन्न नही हो रही है। ऐसे मे संभव है कि ज्योतिष संबंधी कोई अशुभ फल देने वाला ग्रह उन्हे इस सुख से वंचित रखे हुए है। यदि पति स्वास्थ्य और ज्योतिष के दोषो से दूर है तो स्त्री की कुंडली मे संतान संबंधी कोई रुकावट हो सकती है।

ज्योतिष के अनुसार संतान उत्पत्ति में रुकावट पैदा करने वाले योग :

♦ जब पंचम भाव मे का स्वामी सप्तम मे तथा सप्तमेश सभी क्रूर ग्रह से युक्त हो तो वह स्त्री मां नहीं बन पाती ।

♦ पंचम भाव यदि बुध से पीडि़त हो या स्त्री का सप्तम भाव मे शत्रु राशि या नीच का बुध हो तो स्त्री संतान उत्पन्न नही कर पाती ।

♦ पंचम भाव मे राहु हो और उस पर शनि की दृष्टि हो तो, सप्तम भाव पर मंगल और केतु की नजर हो, तथा शुक्र अष्टमेश हो तो संतान पैदा करने मे समस्या उत्पन्न होती है।

♦सप्तम भाव मे सूर्य नीच का हो अथवा शनि नीच का हो तो संतानोत्पत्ती मे समस्या आती है।

♦ संतान प्राप्ति हेतु क्या करे ज्योतिषीय उपाय—–

〉  यदि किसी युवती की कुंडली यह ग्रह योग है तो इन बुरे ग्रह योग से बचने के लिए उन्हे यह उपाय करने चाहिए—-

» पहला उपाए: 
 संतान गोपाल मंत्र के सवा लाख जप शुभ मुहूर्त मे शुरू करे। साथ ही बालमुकुंद (लड्डूगोपाल जी) भगवान की पूजन करे। उनको माखन-मिश्री का भोग लगाएं। गणपति का स्मरण करके शुद्ध घी का दीपक प्रज्जवलित करके निम्न मंत्र का जप करे।
⇒ मंत्र :
” ऊं क्लीं देवकी सूत गोविंदो वासुदेव जगतपते देहि मे । तनयं कृष्ण त्वामहम्श रणंगता: क्लीं ऊं।। “
» दूसरा उपाए :
 सपत्नीक कदली (केले) वृक्ष के नीचे बालमुकुंद भगवान की पूजन करें। कदली वृक्ष की पूजन करे, गुड़, चने का भोग लगाएं। 21 गुरुवार करने से संतान की प्राप्ती होती है।
» तीसरा उपाए : 
 11 प्रदोष का व्रत करे, प्रत्येक प्रदोष को भगवान शंकर का रुद्राभिषेक करने से संतान की प्राप्त होती है।

» चौथा उपाए :
 गरीब बालक, बालिकाओं को गोद लें, उन्हे पढ़ाएं, लिखाएं, वस्त्र, कापी, पुस्तक, खाने पीने का खर्चा दो वर्ष तक उठाने से संतान की प्राप्त होती है।
» पांचवां उपाए :
 आम, बील, आंवले, नीम, पीपल के पांच पौधे लगाने से संतान की प्राप्ति होती है।

 

♦ कुछ अन्य प्रभावी  उपाय :- 

♦ हरिवंश पुराण का पाठ करे।
♦ गोपाल सहस्रनाम का पाठ करे।
♦ पंचम-सप्तम स्थान पर स्थित क्रूर ग्रह का उपचार करे।
♦ दूध का सेवन करे।
♦ सृजन के देवता भगवान शिव का प्रतिदिन विधि-विधान से पूजन करे।
♦ किसी बड़े का अनादर करके उसकी बद्दुआ ना ले। पूर्णत: धार्मिक आचरण रखे।
♦ गरीबो और असहाय लोगो की मदद करे। उन्हें खाना खिलाएं, दान करे।
♦ किसी अनाथालय मे गुप्त दान दे।

 

by Pandit Dayanand Shastri.

​राखी /रक्षा बंधन 18 अगस्त 2016  (गुरुवार) को  मनाया जाएगा

हमारा देश भारत त्योहारो का देश है । यहाँ विभिन्न प्रकार के त्योहार मनाए जाते है। हर त्योहार अपना विशेष महत्त्व रखता है । रक्षाबंधन भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक त्योहार है । यह भारत की गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक त्योहार भी है । यह दान के महत्त्व को प्रतिष्ठित करने वाला पावन त्योहार है । हम सभी जानते है की रक्षा बंधन का त्यौहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। उत्तरी भारत मे यह त्यौहार भाई-बहन के अटूट प्रेम को समर्पित है और इस त्यौहार का प्रचलन सदियों पुराना बताया गया है। इस दिन बहने अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधती है और भाई अपनी बहनों की रक्षा का संकल्प लेते हुए अपना स्नेहाभाव दर्शाते है।

रक्षाबंधन का त्योहार श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है । इस वर्ष 2016 मे रक्षा बंधन का त्यौहार 18 अगस्त (गुरुवार) को मनाया जायेगा । वैदिक काल मे श्रावण मास मे ऋषिगण आश्रम मे रहकर अध्ययन और यज्ञ करते थे । श्रावण-पूर्णिमा को मासिक यज्ञ की पूर्णाहुति होती थी । यज्ञ की समाप्ति पर यजमानो और शिष्यों को रक्षा-सूत्र बाँधने की प्रथा थी । इसलिए इसका नाम रक्षा-बंधन प्रचलित हुआ । इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए ब्राह्मण आज भी अपने यजमानों को रक्षा-सूत्र बाँधते है। इसी दिन ब्राह्मण वर्ग आज भी श्रावणी उपक्रम भी संपन्न करता हैं  अर्थात जनेऊ/यग्योपवीत बदलने का कार्य करता है। बाद मे इसी रक्षा-सूत्र को राखी कहा जाने लगा ।

हिन्दू धर्म मे प्रत्येक पूजा कार्य मे हाथ मे कलावा ( धागा ) बांधने का विधान है। यह धागा व्यक्ति के उपनयन संस्कार से लेकर उसके अन्तिम संस्कार तक सभी संस्करों में बांधा जाता है। राखी का धागा भावनात्मक एकता का प्रतीक है।  स्नेह व विश्वास की डोर है। धागे से संपादित होने वाले संस्कारों में उपनयन संस्कार, विवाह और रक्षा बंधन प्रमुख है।

पुरातन काल से वृक्षो को रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा है। बरगद के वृक्ष को स्त्रियां धागा लपेटकर रोली, अक्षत, चंदन, धूप और दीप दिखाकर पूजा कर अपने पति के दीर्घायु होने की कामना करती है। आंवले के पेड़ पर धागा लपेटने के पीछे मान्यता है कि इससे उनका परिवार धन धान्य से परिपूर्ण होगा।

वह भाइयों को इतनी शक्ति देता है कि वह अपनी बहन की रक्षा करने मे समर्थ हो सके। श्रवण का प्रतीक राखी का यह त्यौहार धीरे-धीरे राजस्थान के अलावा अन्य कई प्रदेशो मे भी प्रचलित हुआ और सोन, सोना अथवा सरमन नाम से जाना गया ।

♦ कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधते हुए ब्राह्मण निम्न मंत्र का उच्चारण करते है :

” येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबल: ।
तेन त्वां प्रति बच्चामि, रक्षे! मा चल, मा चल ।। “

अर्थात् रक्षा के जिस साधन (राखी) से अतिबली राक्षसराज बली को बाँधा गया था, उसी से मै तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षासूत्र! तू भी अपने कर्तव्यपथ से न डिगना अर्थात् इसकी सब प्रकार से रक्षा करना ।

रक्षा बंधन का उल्लेख हमारी पौराणिक कथाओं व महाभारत मे मिलता है और इसके अतिरिक्त इसकी ऐतिहासिक व साहित्यिक महत्ता भी उल्लेखनीय है। रक्षाबंधन से सम्बंधित पूजा के लिए हिन्दू पंचांग अनुसार दोपहर के बाद का समय (अपराह्न ) ही सर्वश्रेठ माना गया है।अपराह्न के बाद रक्षाबंधन के लिए केवल प्रदोष काल ही उपयुक्त  है ।

रक्षाबंधन के लिए सबसे अधिक अनुपयुक्त समय भद्रा माना गया है। भद्रा काल हिन्दू वेदो के अनुसार किसी भी तरह के शुभ कार्यों के लिए वर्जित माना गया है, इसीलिए जहाँ तक हो सके भद्रा काल में रक्षा बंधन से सम्बंधित कोई भी पूजा नहीं करनी चाहिए ।

उत्तर भारत के कई प्रान्तो मे प्रातः काल मे राखी/ रक्षा सूत्र बंधने की प्रथा है। यहाँ ये बात ध्यान देने लायक है कि पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्थ मे भद्रा काल होता है। अतः रक्षा सूत्र या राखी बंधने और पूजन के समय के लिए भद्रा काल के समाप्त हो जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए ।

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♦ राखी /रक्षाबंधन 2016 के लिए शुभ महूर्त :

इस वर्ष 2016 मे रक्षा बंधन का त्यौहार 18 अगस्त, को मनाया जाएगा। पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 17 अगस्त 2016 को दोपहर बाद से आरंभ होगा किंतु भद्रा व्याप्त रहेगी। इसलिए शास्त्रानुसार यह त्यौहार 18 अगस्त को संपन्न किया जाए तो अच्छा रहेगा। परंतु परिस्थितिवश यदि भद्रा काल मे यह कार्य करना हो तो भद्रा मुख को त्यागकर भद्रा पुच्छ काल मे इसे करना चाहिए।

जब भी कोई कार्य शुभ समय मे किया जाता है, तो उस कार्य की शुभता मे वृ्द्धि होती है। भाई- बहन के रिश्ते को अटूट बनाने के लिये इस राखी बांधने का कार्य शुभ मुहूर्त समय मे करना चाहिए। वर्ष 2016  मे श्रावणी पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 17 अगस्त 2016 को हो जाएगा । परन्तु भद्रा व्याप्ति रहेगी । इसलिए शास्त्रानुसार यह त्यौहार 18 अगस्त को 5:55 से 14:56 या 13:42 से 14:56 तक मनाया जा सकता है ।

सामान्यत: उतरी भारत जिसमे पंजाब, दिल्ली, हरियाणा आदि मे प्रात: काल मे ही राखी बांधने का शुभ कार्य किया जाता है। परम्परा वश अगर किसी व्यक्ति को परिस्थितिवश भद्रा-काल मे ही रक्षा बंधन का कार्य करना हो, तो भद्रा मुख को छोड्कर भद्रा-पुच्छ काल मे रक्षा – बंधन का कार्य करना शुभ रहता है। शास्त्रों के अनुसार मे भद्रा के पुच्छ काल मे कार्य करने से कार्यसिद्धि और विजय प्राप्त होती है। परन्तु भद्रा के पुच्छ काल समय का प्रयोग शुभ कार्यों के के लिये विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए ।

♦ 18 अगस्त (बृहस्पतिवार), 2016  को रक्षा बंधन मुहूर्त :

» 05:55 से 14:56 तक

♦ अपराह्न काल में रक्षाबंधन 2016  के लिए शुभ महूर्त:

» 13:42 से 14:56

(वर्ष 2016 में रक्षाबंधन के दिन भद्रा सूर्योदय से पूर्व ही समाप्त हो जाएगी)
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आइए रक्षाबंधन के इस पावन पर्व पर जानें कैसे बांधे अपने भाई को राखी : 

» प्रातः स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।

» अब दिनभर मे किसी भी शुभ मुहूर्त मे घर मे ही किसी पवित्र स्थान पर गोबर से लीप दे। लिपे हुए स्थान पर स्वस्तिक बनाएं।

»  स्वस्तिक पर तांबे का पवित्र जल से भरा हुआ कलश रखे।

»  कलश मे आम के पत्ते फैलाते हुए जमा दे।

»  इन पत्तो पर नारियल रखे।

»  कलश के दोनो ओर आसन बिछा दे। (एक आसन भाई के बैठने के लिए और दूसरा स्वयं के बैठने के लिए)

»  अब भाई-बहन कलश को बीच मे रख आमने-सामने बैठ जाएं।

»  इसके पश्चात कलश की पूजा करे।

»  फिर भाई के दाहिने हाथ मे नारियल तथा सिर पर टॉवेल या टोपी रखे।

» अब भाई को अक्षत सहित तिलक करे।

»  इसके बाद भाई की दाहिनी कलाई पर राखी बांधे।

» पश्चात भाई को मिठाई खिलाएं, आरती उतारे और उसकी तरक्की व खुशहाली की कामना करे।

» अगर भाई आपसे उम्र मे बड़ा हो तो भाई के चरण स्पर्श करे और अगर बहन उम्र मे बड़ी हो तो भाई राखी बंधने के पश्चात बहन के चरण छूकर आशीर्वाद प्राप्त करे।

» इसके पश्चात घर की प्रमुख वस्तुओ को भी राखी बांधे। जैसे- कलम, झूला, दरवाजा आदि।

शुभम भवतु… कल्याण हो….

by Pandit Dayanand Shastri. 

जानिए वास्तु दोष और कर्ज का सम्बन्ध:

कई बार परिस्थितियो के आगे मजबूर होकर व्यक्ति को कर्ज लेने की नौबत आ जाती है और फिर कर्ज खत्म होने का नाम नही लेते। इसका कारण वास्तु दोष भी हो सकता है। एक कर्ज उतरा नही कि दूसरा लेने की नौबत आ जाए और इस स्थिति से छुटकारा न मिल रहा हो तो वास्तु से जुड़े तथ्यों पर ध्यान दे। इससे भी कर्ज से छुटकारा मिल सकता है। न चाहते भी कर्ज खत्म होने का नाम नही लेता। जिंदगी मे ऐसे कई उत्तर चढ़ाव आते है जिसमे उलझकर व्यक्ति अपने घुटने टेक देता है। उन परिस्थितियो से निकलने के लिए वह कर्ज का सहारा लेता है और उस कर्ज मे इतना डूब जाता है की उसमे से निकल पाना मुश्किल हो जाता है। कई बार व्यक्ति कर्ज के चलते अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर लेते है। लेकिन वे इस स्थिति का पता नही लगते की यह सब किन कारणों के चलते हुआ। इसका कारण वास्तु दोष भी है, जिसके कारण कर्ज का बोझ परेशान करता है। एक कर्ज उतरा नही, दूसरा लेने की नौबत आ जाती है तथा इस स्थिति से छुटकारा नही मिलता ।

दुनिया मे अधिकांश लोग कर्ज़ मे डूबे हुए रहते है । उनकी लाख प्रयत्न करने के बाद भी वो कर्ज़ से मुक्ति नही पा पाते है । वो लाख कोशिश के बाद भी उधारी के बोझ मे ही दबे रहते है । कई बार कर्ज पर कर्ज चढ़ता जाता है और जीवन मे तनाव घिर आता है, ऐसा वास्तु दोष के कारण भी संभव है। यदि छोटे-छोटे उपाय कर लिए जाएं तो कर्ज के बोझ को कम किया जा सकता है।

इस सबका कारण आपकी वास्तु दोष संबंधी आदत है जो आपको कर्ज़ से मुक्त करने मे रुकावट बनी हुई है। इसलिए आज आपको गरीबी एवं कर्ज से बचने के लिए कुछ आसान वास्तु उपाय बता रहे है —-

♦दो ऊँचे भवनों घिरा हुआ भवन या भारी भवनों के बीच दबा हुआ भवन भूखण्ड खरीदने से बचें क्योंकि दबा हुआ भवन भूखंड गरीबी एवं कर्ज का सूचक है।

♦ दक्षिण-पश्चिम के कोने मे पीतल या ताँबे का घड़ा लगा दें।

♦ उत्तर या पूर्व की दीवार पर उत्तर-पूर्व की ओर लगे दर्पण लाभदायक होते है।

♥ दर्पण के फ्रेम पर या दर्पण के पीछे लाल, सिंदूरी या मैरून कलर नहीं होना चाहिए।

♦दर्पण जितना हलका तथा बड़े आकार का होगा, उतना ही लाभदायक होगा, व्यापार तेजी से चल पड़ेगा तथा कर्ज खत्म हो जाएगा। दक्षिण तथा पश्चिम की दीवार के दर्पण हानिकारक होते है।

♦ उत्तर-पूर्व का तल कम से कम 2 से 3 फीट तक गहरा करवा दे।

♦ उत्तर या पूर्व की दीवार पर उत्तर-पूर्व की ओर लगे दर्पण लाभदायक होते है। दक्षिण और पश्चिम की दीवार के दर्पण हानिकारक होते है।

♦ दक्षिण-पश्चिम व दक्षिण दिशा मे भूमिगत टैंक, कुआँ या नल होने पर घर मे दरिद्रता का वास होता है।

♦अगर आपने किसी से किस्त पे रुपये लिये है तो आपको हमेशा कर्ज़ की पहली किस्त मंगलवार को चुकाना चाहिए। अगर ऐसा आप करेंगे तो आप कर्ज से बहुत जल्द मुक्त हो सकते है ।

♦ अगर आप के घर या दुकान मे काँच लगा हुआ है या लगाना चाहते है तो ध्यान रहे की काँच हमेशा उत्तर-पूर्व दिशा मे हो । ऐसा करने से ये लाभप्रद साबित होता है और कर्ज़ से भी छुटकारा मिलता है ।

♦अगर आप घर बनाना चाह रहे है या बना रहे है तो ध्यान रहे की घर मे बाथरूम दक्षिण-पश्चिम हिस्से मे नही होना चाहिए । अगर इस दिशा मे बाथरूम बनाए तो आप कर्ज़ मे ओर डूब सकते है। लेकिन आपने घर बना लिया है और बाथरूम की दिशा दक्षिण-पश्चिम मे है तो बाथरूम मे एक नमक का कटोरा रखे, इससे वास्तु
दोष कम होता है।

♦ अगर आपके घर मे कांच का फ्रेम हो तो ध्यान रहे की वो लाल या सिंदूरी रंग का ना हो। और अगर कांच हल्का तथा बड़े आकर का हो तो ये आपके लिए उतना ही फ़ायदेमंद होगा ।

♦ घर के दक्षिण-पश्चिम हिस्से मे टॉइलट कभी ना बनवाएं। ऐसा होने पर व्यक्ति पर कर्ज का बोझ बढ़ता ही जाता है।

♦ सभी के घर मे या दुकानो मे पानी पीने की व्यवस्था तो होती है, लेकिन हमे ये नही पता होता है की हम अपने घर मे पानी की व्यवस्था किस दिशा मे रखे, जिस कारण-वश हम कर्ज़ मे डूबते जाते है।  इसलिए अगर आपके घर या दुकान मे पानी की व्यवस्था है तो उसकी रखने की दिशा उत्तर की और कर दे। तो इससे कर्ज़ से छुटकारा पाने मे मदद  मिलेगी क्योंकि ये कर्ज़ से मुक्त दिलाने मे लाभ दायक होता है।

♦अगर आपके घर या दुकान मे सीढ़ियाँ है और वो पश्चिम दिशा की और है या पश्चिम दिशा की तरफ से नीचे की और आती है तो आप कर्ज़ मे डूब सकते है या कर्ज़ मुक्ति से परेशान हो सकते है। इसके लिए आप अपने घर या दुकान के सीढ़ियों के नीचे क्रिस्टल को लटका दे ।  इससे आप कर्ज़ से मुक्त हो सकते है ।

♦हम हमेशा से अपने किचन को सजाने मे कोई भी कसर नही छोड़ते है। उसको अच्छा करने के लिए क्या-क्या नही करते है लेकिन हम आपको एक बात बताते है। जो आप ना करे तो आप कर्ज़ से मुक्त हो सकते है और आपकी परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी हो सकती है। इसके लिए आप अपने किचन मे नीले रंग का उपयोग ना करे क्योंकि इससे आपके घर की आर्थिक स्थिति तो खराब होती ही है साथ-साथ परिवार के सदस्यों का स्वस्थ भी खराब हो सकता है।

♦ उत्तर दिशा की ओर ढलान जितनी अधिक होगी संपत्ति मे उतनी ही वृद्धि होगी।

♦ यदि कर्ज से अत्यधिक परेशान है तो ढलान ईशान दिशा की ओर करा दे, कर्ज से मुक्ति मिलेगी।

♦ पूर्व तथा उत्तर दिशा मे भूलकर भी भारी वस्तु न रखे अन्यथा कर्ज, हानि व घाटे का सामना करना पड़ेगा।

♦ भवन के मध्य भाग मे अंडर ग्राउन्ड टैंक या बेसटैंक न बनवाएँ।

♦ उत्तर व दक्षिण की दीवार बिलकुल सीधी बनवाएँ।

♦ उत्तर की दीवार हलकी नीची होनी चाहिए।

♦कोई भी कोना कटा हुआ न हो, न ही कम होना चाहिए। गलत दीवार से धन का अभाव हो जाता है।

♦ यदि कर्ज अधिक है और परेशान है तो ईशान कोण को 90 डिग्री से कम कर दे।

♦उत्तर-पूर्व भाग मे भूमिगत टैंक या टंकी बनवा दे। टंकी की लम्बाई, चौड़ाई व गहराई के अनुरूप आय बढ़ेगी।

♦अपने घर या दुकान मे देवी लक्ष्मी तथा भगवान कुबेर की प्रतिमा उत्तर दिशा मे स्थापित करे और नियमित रूप से माता लक्ष्मी और कुबेर की पूजा करे । ऐसा करने से आपकी सारी उधारी और कर्ज़ समाप्त हो जाएँगे ।

♦ मकान का मध्य भाग थोड़ा ऊँचा रखे। इसे नीचा रखने से बिखराव पैदा होगा।

♦ यदि उत्तर दिशा में ऊँची दीवार बनी है तो उसे छोटा करके दक्षिण में ऊँची दीवार बना दे।
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♦ कर्ज मुक्ति हेतु कुछ जरुरी सुझाव: 

कई बार आप मेहनत करने के बावजूद भी घर मे बरकत को लेकर परेशान रहते है। कहा जाता है घर मे सुख-समृद्धि घर के वास्तु या वातावरण पर भी निर्भर करती है इसलिए आज हम आपको घर मे पड़े उस सामान के बारे मे बता रहे है कि जो कि आपको घर मे नहीं रखना चाहिए।

कभी भी घर मे टूटे-फूटे बर्तन नहीं रखने चाहिए। शास्त्रों के अनुसार, यदि ऐसे बर्तन घर मे रखे जाते है तो इससे मां लक्ष्मी असप्रसन्न होती है और घर मे दरिद्रता का प्रवेश हो सकता है।

♦ कहा जाता है कि घर में टूटा हुआ शीशा रखना एक दोष है। इससे नकारात्मक ऊर्जा घर मे सक्रिय हो जाती है और परिवार के सदस्यों को इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है।

♦पूजा करते समय दीपक, देवी-देवताओं की मूर्तियां, यज्ञोपवीत (जनेऊ), सोना और शंख, इन 7 चीजो को कभी भी सीधे जमीन पर नहीं रखना चाहिए। इन्हें नीचे रखने से पहले कोई कपड़ा बिछाएं या किसी ऊंचे स्थान पर रखे।

♦ आजकल कई लोग रात मे बेडरूम मे खाना खाते है और झूठे बर्तन वहीं छोड़ देते है। लेकिन ऐसा करना अशुभ होता है  इसलिए जब कभी भी बेडरूम में खाना खाएं तो झूठे बर्तनों को किचन मे या कही और रखे। कहा जाता है ऐसा करने से धन की हानि होती है।

♦ बर्तन और शीशे की तरह खराब घड़ी भी घर मे नहीं रखनी चाहिए। घड़ी की स्थिति से ही हमारे घर परिवार की उन्नति होती है, इसलिए घर मे खराब और बंद घड़ी को घर मे न रखे।

♦ कभी भी तिजोरी मे किसी विवाद से संबंधित पेपर नही रखने चाहिए। कहा जाता है कि तिजोरी मे विवादित पेपर रखने से विवाद जल्दी खत्म नही होता और दरिद्रता बढ़ती जाती है।

♦ वही घर के स्टोर रूम के पास या बाथरूम के बगल मे पूजा घर नहीं होना चाहिए। ऐसा करना वास्तु के अनुसार सबसे अशुभ होता है।

♦ घर की रसोई हमेशा अग्रि कोण मे हो, गैस चूल्हा भी अग्रि कोण (साऊथ ईस्ट) मे, खाना पूर्व की ओर मुंह करके बनाएं, शैंक (बर्तन धोने वाला) हमेशा नार्थ ईस्ट (ईशान कोण) में रखें। शयन कक्ष या रसोई मे रात को झूठे बर्तन मत छोड़े। हमेशा धो-मांज कर रखे।

♦शयन कक्ष मे मदिरापान तथा कोई दूसरा व्यसन न करे, बैडरूम मे कोई डरावना चित्र न लगाएं, अपने बड़े बुजुर्गों के चित्र सिर्फ लॉबी या ड्राइंगरूम मे दक्षिण दिशा मे लगाएं।

♦ शयनकक्ष मे आपका पलंग कमरे के दरवाजे के सामने न हो, पलंग का सर दक्षिण
दिशा मे और पैर उत्तर दिशा की ओर रहने चाहिए।

♦ घर मे 3 दरवाजे आमने-सामने एक ही सीध मे न हो।

♦सीढ़ी के नीचे कोई बिजली का उपकरण न हो, न ही कोई खाने-पीने का सामान होना चाहिए। सीढ़ी कभी भी पश्चिम या दक्षिण मे न खुलती हो, इसके बहुत भयावह
नुक्सान है।

♦ एस हो घर का ढलान :

घर का उत्तर-पूर्व भाग का ताल ज्यादा ढलान मे होना चाहिए। उत्तर-पूर्व भाग जितना गहरा और जितना ढलान मे रहेगा घर मे उतनी अधिक सम्पति आएगी।

♦ कहाँ पर हो टैंक, कुआं या नल :

घर के दक्षिण दिशा मे कभी भी नल, कुआ, हेण्डपम्प, या अन्य कोई जल स्तोत नहीं होना चाहिए। जिस घर्म में ऐसा होता है उस घर में दरिद्रता का वास होता है।

♦ कहाँ रखे भारी वस्तु :

घर की उत्तर दिशा एवं पूर्व दिशा मे कभी भी भारीवस्तुए को न रखे। ऐसा करने से व्यक्ति कर्ज में और भी डूबता जाता है।

♦ दीवार सीधी बनवाएं :

घर बनवाते समय इस बात का खास ध्यान रखे की उत्तर व दक्षिण की दीवार बिलकुल सीधी हो किसी भी प्रकार से वह दीवार टेडी मेडी न बने। घर के सभी कोने एक सामान होना चाहिए। साथ इस बात का भी खास ध्यान रखना चाहिए की घर की उत्तर की दीवार थोड़ी सी नीची होनी चाहिए।

♦ कहाँ पर नहीं हो टॉयलेट :

घर के दक्षिण व पश्चिम भाग में कभी भी टॉयलेट नहीं बनवाना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति और भी कर्जा लेना पड़ता है। बाथरूम भूल कर भी नार्थईस्ट (ईशान कोण) में न हो, हमेशा दक्षिण-पश्चिम, पश्चिम-उत्तर पश्चिम टायलेट की सीट पर पूर्व या उत्तर की तरफ मुंह करके बैठें, टायलेट मे कांच के बाऊल मे क्रिस्टल साल्ट (दरदरा नमक) भर कर रखें, 15 दिन बाद बदल दे, पहला टायलेट के सिंक में डाल दें। अगर किसी कारण टायलेट उत्तर-पूर्व में हो तो इसके दरवाजे पर रोअरिंग लायन का फोटो पेस्ट कर दे।
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यदि आप उपरोक्त सभी उपाय किसी योग्य एवं अनुभवी वास्तुशास्त्री के दिशा निर्देश मे  करेंगे तो आप हमेशा कर्ज़ से मुक्त हो सकते है।

शुभम भवतु ।। कल्याण हो ।।

by Pandit Dayanand Shastri.

जानिए स्वस्तिक और वास्तुशास्त्र का सम्बन्ध:

घर को बुरी नजर से बचाने व उसमे सुखसमृद्धि के वास के लिए मुख्य द्वार के दोनो तरफ स्वस्तिक चिह्न् बनाया जाता हैस्वस्तिक चक्र की गतिशीलता बाईं से दाईं ओर हैइसी सिद्धान्त पर घड़ी की दिशा निर्धारित की गयी हैपृथ्वी को गति प्रदान करने वाली ऊर्जा का प्रमुख स्रोत उत्तरायण से दक्षिणायण की ओर है।

इसी प्रकार वास्तुशास्त्र मे उत्तर दिशा का बड़ा महत्व हैइस ओर भवन अपेक्षाकृत अधिक खुला रखा जाता है जिससे उसमे चुम्बकीय ऊर्जा व दिव्य शक्तियो का संचार रहेवास्तुदोष क्षय करने के लिए स्वस्तिक को बेहद लाभकारी माना गया है।

मुख्य द्वार के ऊपर सिन्दूर से स्वस्तिक का चिह्न् बनाना चाहिएयह चिह्न् नौ अंगुल लम्बा व नौ अंगुल चौड़ा होघर में जहांजहां वास्तुदोष हो वहां यह चिह्न् बनाया जा सकता हैयह वास्तु का मूल चिह्न् है।

जानिए की कैसे प्रयोग करे स्वस्तिक सफलता प्राप्ति के लिए:

1. पञ्च धातु का स्वस्तिक बनवा के प्राण प्रतिष्ठा करके चौखट पर लगवाने से अच्छे परिणाम मिलते है।

2. चांदी मे नवरत्न लगवाकर पूर्व दिशा मे लगाने पर वास्तु दोष व लक्ष्मी प्राप्त होती है ।

3. वास्तु दोष दूर करने के लिये 9 अंगुल लंबा और चौड़ा स्वस्तिक सिन्दूर से बनाने से नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा मे बदल देता है।

4. धार्मिक कार्यो मे रोली, हल्दी,या सिन्दूर से बना स्वस्तिक आत्मसंतुष्टि देता है।

5. गुरु पुष्य या रवि पुष्य मे बनाया गया स्वस्तिक शांति प्रदान करता है।

6. त्योहारो मे द्वार पर कुमकुम सिन्दूर अथवा रंगोली से स्वस्तिक बनाना मंगलकारी होता है ऐसी मान्यता है की देवी – देवता घर मे प्रवेश करते है इसीलिए उनके स्वागत के लिए द्वार पर इसे बनाया जाता है।

7. अगर कोई 7 गुरुवार को ईशान कोण मे गंगाजल से धोकर सुखी हल्दी से स्वस्तिक बनाए और उसकी पंचोपचार पूजा करे साथ ही आधा तोला गुड का भोग भी लगाए तो बिक्री बढती है।

8. स्वस्तिक बनवाकर उसके ऊपर जिस भी देवता को बिठा के पूजा करे तो वो शीघ्र प्रसन्न होते है।

9. देव स्थान में स्वस्तिक बनाकर उस पर पञ्च धान्य का दीपक जलाकर रखने से कुछ समय में इच्छित कार्य पूर्ण होते है ।

10. भजन करने से पहले आसन के नीचे पानी , कंकू, हल्दी अथवा चन्दन से स्वस्तिक बनाकर उस स्वस्क्तिक पर आसन बिछाकर बैठकर भजन करने से सिद्धी शीघ्र प्राप्त होती है।

11. सोने से पूर्व स्वस्तिक को अगर तर्जनी से बनाया जाए तो सुख पूर्वक नींद आती है, बुरे सपने नहीं आते है।

12. स्वस्तिक मे अगर पंद्रह या बीसा का यन्त्र बनाकर लोकेट या अंगूठी मे पहना जाए तो विघ्नों का नाश होकर सफलता मिलती है।

13. मनोकामना सिद्धी हेतु मंदिरों मे गोबर और कंकू से उलटा स्वस्तिक बनाया जाता है।

14. होली के कोयले से भोजपत्र पर स्वास्तिक बनाकर धारण करने से बुरी नजर से बचाव होता है और शुभता आती है।

15. पितृ पक्ष मे बालिकाए संजा बनाते समय गोबर से स्वस्तिक भी बनाती है शुभता के लिए और पितरो का आशीर्वाद लेने के लिए।

16. वास्तु दोष दूर करने के लिए पिरामिड मे भी स्वस्तिक बनाकर रखने की सलाह दी जाती है।

अतः स्वस्तिक हर प्रकार से से फायदेमंद है , मंगलकारी है, शुभता लाने वाला है, ऊर्जा देने वाला है, सफलता देने वाला है इसे प्रयोग करना चाहिए।

हिन्दू मान्यता के अनुसार स्वस्तिक :-

किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म मे स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व हैमान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता हैस्वस्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है– स्वस्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना अर्थात स्वस्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो’।

असल मे स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता हैहिन्दू धर्मं मे मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं – पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैंलेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैंकुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती है।

हिन्दुओ के समान जैन, बौद्ध और इसाई भी स्वस्तिक को मंगलकारी और समृद्धि प्रदान करने वाला चिन्ह मानते है। बौद्ध मान्यता के अनुसार वनस्पति सम्पदा की उत्पत्ति का कारण स्वस्तिक है बुद्ध के मूर्तियों में और उनके चिन्हों पर स्वस्तिक का चिन्ह मिलता हैइससे पूर्व सिन्धु घाटी से प्राप्त मुद्रा में और बर्तनों में भी स्वस्तिक के चिन्ह खुदे मिलते हैउदयगिरी और खंडगिरी के गुफा में भी स्वस्तिक चिन्ह मिले है।

स्वस्तिक को 7 अंगुल, 9 अंगुल या 9 इंच के प्रमाण मे बनाया जाने का विधान है मंगल कार्यो के अवसर पर पूजा स्थान तथा दरवाजे की चौखट पर स्वस्तिक बनाने की परम्परा है।

स्वस्तिक का आरंभिक आकार पूर्व से पश्चिम एक खड़ी रेखा और उसके ऊपर दूसरी दक्षिण से उत्तर आडी रेखा के रूप में तथा इसकी चारो भुजाओं के सिरों पर पूर्व से एक एक रेखा जोड़ी जाती है तथा चारो रेखाओं के मध्य में एक एक बिंदु लगाया जाता है और स्वस्तिक के मध्य में भी एक बिंदु लगाया जाता है. इसके लिए विभिन्न प्रकार की स्याही का उपयोग होता है।

भारतीय दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की चार रेखाओं की चार वेद, चार पुरुषार्थ, चार वर्ण, चार आश्रम, चार लोक तथा चार देवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा गणेश से तुलना की गई है। प्रतीकात्मक विचार के इन सूत्रों में स्वस्तिक चतुर्दल कमल का सूचक भी माना गया है। अतः यह गणपति देव का निवास स्थान भी है। इसी तथ्य को मूर्धन्य मनीषियों ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने भी कमल को स्वस्तिक का ही पर्याय माना है। इसलिए कमल का प्रतीक भी स्वस्तिक हो गया और इसे भी मंगल व पुण्यकर्म मे प्रयुक्त किया जाने लगा।

कुछ विद्वान कमलापति भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर विद्यमान कौस्तुभ मणि को स्वस्तिक के आकार रूप मे मानते है।

सिंबोलिज्म ऑफ दि ईस्ट एंड वेस्ट’ नामक ग्रंथ मे प्रतिपादित किया गया है कि वैदिक प्रतीको मे गहनगंभीर एवं गूढ़ अर्थ निहित है। यही प्रतीक संसार के विभिन्ना धर्मों मे भिन्नभिन्न ढंग से परिलक्षित प्रकट होते है तथा देशकाल, परिस्थिति के अनुरूप इनके स्वरूपों में रूपांतर एवं परिवर्तन होता रहता है। अतः स्वस्तिक प्रतीक की गतिप्रगति की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा है।

जैन धर्म मे स्वस्तिक उनके सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के प्रतीक चिन्ह के रूप मे लोकप्रिय है। जैन अनुयायी स्वस्तिक की चार भुजाओं को संभावित पुनर्जन्मों के स्थलस्थानो के रूप मे मानते है। ये स्थल हैवनस्पति या प्राणिजगत, पृथ्वी, जीवात्मा एवं नरक। बौद्ध मठो मे भी स्वस्तिक का अंकन मिलता है। जॉर्ज वडंउड ने बौद्धो के धर्मचक्र को यूनानी क्रॉस को तथा स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना है। उनके अनुसार यह अत्यंत प्राचीनतम प्रतीक है, जिसमे गहन अर्थ निहित है। तिब्बत के लामाओं के निवास स्थान तथा मंदिरों मे स्वस्तिक की आकृति बनी हुई मिलती है। क्रॉस की उत्पत्ति का आधार ही स्वस्तिक है।

बौद्ध धर्म मे स्वस्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया हैयह भगवान बुद्ध के पग चिन्हो को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है– यही नहीं, स्वस्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है ।

हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वस्तिक का जैन धर्म मे है– जैन धर्म मे यह सातवं जिन का प्रतीक हैजिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते है श्वेताम्बर जैनी स्वस्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते है।

यह प्रतीक चिन्ह विभिन्न रूपो मे विभिन्न अर्थों मे प्रयोग होता है। इसे प्रजनन प्रतीक, उर्वरता प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न, अलंकरणअभिप्राय, अग्नि, विद्युत, वज्र, जल आदि का सांकेतिक स्वरूप, ज्योतिष प्रतीक, उड़ते हुए पक्षी आदि अन्यान्य रूपो मे माना गया है।

एक अन्य प्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी ने बड़ी ही उदारतापूर्वक स्वीकार किया है कि ऋषियो एवं विद्वानो के आर्यस्थल वैदिक भारत मे जिस मंगलदायक एवं शुभसूचक स्वस्तिक की कल्पना की गई थी, वही अन्यान्य रूपो मे विश्व की अन्य सभ्यताओ द्वारा अपना ली गई है, उसे मान्यता प्रदान कर दी गई है।

स्वस्तिक मे सद्भावना ही नहीं है, वरन् सद्ज्ञान व सद्विचार का संपुट भी लगा हुआ है। इसमे वैयक्तिक विकास व विस्तार के साथ ही समाज की प्रगति एवं विश्वकल्याण की अनंत संभावनाएँ सन्निाहित है।

वर्तमान मे आवश्यकता है एक ऐसी दृष्टि की, जो इसे साक्षात्कार कर सके और इस प्रतीक की शुभकामना को अभिव्यक्त कर सके। जिससे हमारे विचार व मंगलमय एवं कल्याणकारी बन सके।

by Pandit Dayanand Shastri.

जानिए की कब, कैसे और क्यों करे मंगला गोरी व्रत ???

श्रावण मास मे श्रावण सोमवार के दूसरे दिन यानी मंगलवार के दिन ‘मंगला गौरी व्रत’ मनाया जाता है। श्रावण माह के हर मंगलवार को मनने वाले इस व्रत को मंगला गौरी व्रत (पार्वतीजी) नाम से ही जाना जाता है। धार्मिक पुराणो के अनुसार इस व्रत को करने से सुहागिन महिलाओ को अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। अत: इस दिन माता मंगला गौरी का पूजन करके मंगला गौरी की कथा सुनना फलादायी होता है।

ऐसा माना जाता है कि श्रावण मास मे मंगलवार को आने वाले सभी व्रत-उपवास मनुष्य के सुख-सौभाग्य मे वृद्धि करता है । अपने पति व संतान की लंबी उम्र एवं सुखी जीवन की कामना के लिए महिलाएं खास तौर पर इस व्रत को करती है सौभाग्य से जुडे़ होने की वजह से नवविवाहित दुल्हनें भी आदरपूर्वक एवं आत्मीयता से इस व्रत को करती है।

जिन युवतियो और महिलाओ की कुंडली मे वैवाहिक जीवन मे कम‍ी‍ महसूस होती है अथवा शादी के बाद पति से अलग होने यातलाक हो जाने जैसे अशुभ योग निर्मित हो रहे हो, तो उन महिलाओ के लिए मंगलागौरी व्रत विशेष रूप से फलदायी है। अत: ऐसी महिलाओ को सोलह सोमवार के साथ-साथ मंगला गौरी का व्रत अवश्य रखना चाहिए।

इस वर्ष 2016 के श्रवण मास का  मंगला गौरी का  व्रत 9 अगस्त 2016  (षष्टी, तुला राशि और चित्र नक्षत्र मे) मंगलवार से शुरू होकर, दूसरा 16 अगस्त 2016 (त्रयोदशी,मकर राशि,उत्तराषाढा नक्षत्र मे) को इसका समापन होगा। ज्ञात हो कि एक बार यह व्रत प्रारंभ करने के पश्चात इस व्रत को लगातार पांच वर्षों तक किया जाता है। तत्पश्चात इस व्रत का विधि-विधान से उद्यापन कर देना चाहिए।

शास्त्रो के अनुसार जो नवविवाहित स्त्रियां सावन मास मे मंगलवार के दिन व्रत रखकर मंगला गौरी की पूजा करती है उनके पति पर आने वाला संकट टल जाता है और वह लंबे समय तक दांपत्य जीवन का आनंद प्राप्त करती है। आज यही शुभ व्रत है। इस व्रत से दोष की शांति कर सकते है और दांपत्य जीवन को खुशहाल बना सकते है। मंगला गौरी व्रत श्रावण मास मे पडने वाले सभी मंगलवार को रखा जाता है।  श्रावण मास में आने वाले सभी व्रत-उपवास व्यक्ति के सुख- सौभाग्य मे वृ्द्धि करते है। सौभाग्य से जुडे होने के कारण इस व्रत को विवाहित महिलाएं और नवविवाहित महिलाएं करती है। इस उपवास को करने का उद्धेश्य अपने पति व संतान के लम्बें व सुखी जीवन की कामना करना है। 

 इस व्रत मे मंगलवार के दिन शिव की पत्नी गौरी अर्थात् पार्वती  की पूजा की जाती है। इसी कारण इसे मंगलागौरी-व्रत कहते है। यह व्रत विवाह पश्चात् प्रत्येक विवाहिता द्वारा पाँच वर्षों तक करना शुभफलदायक माना गया है। इस व्रत को विवाह के प्रथम श्रावण में पिता के घर (पीहर) में तथा शेष चार वर्ष पति के घर (ससुराल) में करने का विधान है।

प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त मे उठकर तथा नित्यकर्मो से निवृत हो नये वस्त्र धारणकर घर के ईशानकोण (पूर्व एवं उत्तर दिशा के बीच का कोण) में पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुखकर शुद्ध आसन ग्रहण कर निम्न संकल्प करना चाहिए – ‘मम पुत्रापौत्रासौभाग्यवृद्धये श्रीमंगलागौरीप्रीत्यर्थं पंचवर्षपर्यन्तं मंगलागौरीव्रतमहं करिष्ये।’ उक्त प्रकार संकल्प कर शुद्ध आसन पर भगवती गौरी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए तथा उनके सम्मुख सोलह बत्तियों वाला घी का दीपक प्रज्वलित करना चाहिए।

तत्पश्चात् स्वस्तिवाचन एवं गणेश-पूजन कर सोलह-सोलह प्रकार के पुष्प, मालाएँ, दूर्वादल, वृक्ष के पत्ते, धतूरे के पत्ते, अनाज, सुपारी, पान, इलाइची, धनिया तथा जीरा आदि भगवती गौरी को समर्पित करे। ताँबे के पात्र में जल, अक्षत एवं पुष्प रखकर माँ गौरी को अघ्र्य दे प्रणाम करे तथा सौभाग्य-सूचक वस्तुएँ एक बाँस की टोकरी में रखकर श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान करे। पूजा के अन्त मे सोलहमुखी दीपक से भगवती गौरी की आरती कर उक्त प्रतिमा को किसी पवित्र तालाब, सरोवर या कूएँ में विसर्जित करना चाहिए। ऐसा करने वाली व्रती स्त्री को अखण्‍ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

इस प्रकार उक्त व्रत करते हुए पाँचवे वर्ष इसका उद्यापन करना चाहिए अन्यथा यह
व्रत निष्फल हो जाता है। चार वर्ष के सोलह मंगलवारों के पश्चात् पाँचवे वर्ष के किसी भी मंगलवार को उद्यापन किया जा सकता है। उद्यापन मे गौरी पूजा के पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मण द्वारा हवन करवाना चाहिए तथा सोलह ब्राह्मणो को उनकी पत्नी सहित भोजन कराकर सौभाग्यपिटारी एवं दक्षिणा प्रदान करे। अन्त मे अपनी सासजी को सोलह लड्डुओं का वायना देकर उनके चरण स्पर्श कर अक्षयसौभाग्य का आर्शीबाद प्राप्त करना चाहिए।

इस व्रत को प्रत्येक विवाहिता को करना आवश्‍यक माना गया है। इस व्रत को करने से पति से कभी भी वियोग नहीं होता तथा पति-पत्नी दोनों को ही दीर्घ आयु व
सर्वसुख की प्राप्ति होती है। पति-पत्‍नी दोनों का प्रेम अक्षय, अटल व चिर-‍स्‍थाई बना रहता है।

» जानिए पुरूष क्या करे मंगला गोरी व्रत मे ??

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार इस व्रत से मंगलिक योग का कुप्रभाव भी काम होता है।पुरूषो को इस दिन मंगलवार का व्रत रखकर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करनी चाहिए। इससे उनकी कुण्डली में मौजूद मंगल का अशुभ प्रभाव कम होता है और दांपत्य जीवन मे खुशहाली आती है।

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विवाह के पांच वर्ष तक प्रत्येक श्रावण मास मे मंगला गोरी यह व्रत करना चाहिए। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-

♦ सुबह जल्दी उठकर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर यह संकल्प लें-

मै पुत्र, पौत्र, सौभाग्य वृद्धि एवं श्री मंगला गौरी की कृपा प्राप्ति के लिए मंगला गौरी व्रत करने का संकल्प लेती हूं। इसके बाद मां मंगला गौरी(पार्वतीजी) का चित्र या प्रतिमा एक चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर स्थापित करें। चित्र के सामने आटे से बना एक घी का दीपक जलाएं, जिसमें सोलह बत्तियां हो।

♦ इसके बाद यह मंत्र बोले-

 “कुंकुमागुरुलिप्तांगा सर्वाभरणभूषिताम्।
 नीलकण्ठप्रियां गौरीं वन्देहं मंगलाह्वयाम्।। “

अब माता मंगला गौरी का षोडशोपचार पूजन करे। पूजन के बाद माता को सोलह माला, लड्डू, फल, पान, इलाइची, लौंग, सुपारी, सुहाग का सामान व मिठाई चढ़ाएं। उसके बाद मंगला गौरी की कथा सुने।

» इस प्रकार करे पूजन : 

यह मंत्र बोलते हुए माता मंगला गौरी का षोडशोपचार पूजन किया जाता है। माता के पूजन के पश्चात उनको (सभी वस्तुएं सोलह की संख्या में होनी चाहिए) 16 मालाएं, लौंग, सुपारी, इलायची, फल, पान, लड्डू, सुहाग क‍ी सामग्री, 16 चुडि़यां तथा मिठाई चढ़ाई जाती है। इसके अलावा 5 प्रकार के सूखे मेवे, 7 प्रकार के अनाज धान्य (जिसमें गेहूं, उड़द, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर) आदि होना चाहिए। पूजन के बाद मंगला गौरी की कथा सुनी जाती है।

» मां मंगला गौरी कथा  :

पुराने समय की बात है। एक शहर में धरमपाल नाम का एक व्यापारी रहता था। उसकी पत्नी खूबसूरत थी और उनके पास बहुत सारी धन-दौलत थी। लेकिन उनको कोई संतान नहीं थी, इस वजह से पति-पत्नी दोनो ही हमेशा दुखी रहते थे। फिर ईश्वर की कृपा से उनको पुत्र प्राप्ति हुई, लेकिन वह अल्पायु था। उसे यह श्राप मिला हुआ था कि सोलह वर्ष की उम्र मे सर्प दंश के कारण उसकी मौत हो जाएगी।

ईश्वरीय संयोग से उसकी शादी सोलह वर्ष से पहले ही एक युवती से हुई, जिसकी माता मंगला गौरी व्रत किया करती थी। परिणामस्वरूप उसने अपनी पुत्री के लिए एक ऐसे सुखी जीवन का आशीर्वाद प्राप्त किया था, जिसके कारण वह कभी विधवा नहीं हो सकती। इसी कारण धरमपाल के पुत्र ने 100 साल की लंबी आयु प्राप्त होती है।

यह मंगला गौरी व्रत नियमानुसार करने से प्रत्येक मनुष्य के वैवाहिक सुख मे बढ़ोतरी होकर पुत्र-पौत्रादि भी अपना जीवन सुखपूर्वक गुजारते है। ऐसी है इस मंगल गोरी व्रत की महिमा ।

» कैसे करे मंगला गौरी विधि :

♦मंगला गौरी उपवास रखने के लिये सुबह स्नान आदि कर व्रत का प्रारम्भ किया जाता है।

♦  एक चौकी पर सफेद लाल कपडा बिछाना चाहिये ।

♦ सफेद कपडे पर चावल से नौ ग्रह बनाते है, तथा लाल कपडे पर षोडश माताएं गेंहू से बनाते है।

♦ चौकी के एक तरफ चावल और फूल रखकर गणेश जी की स्थापना की जाती है।

♦  दूसरी और गेंहू रख कर कलश स्थापित करते है।

♦  कलश मे जल रखते है।

♦ आटे से चौमुखी दीपक बनाकर कपडे से बनी 16-16 तार कि चार बतियां जलाई जाती है।

♦ सबसे पहले श्री गणेश जी का पूजन किया जाता है।

♦पूजन मे श्री गणेश पर जल, रोली, मौली, चन्दन, सिन्दूर, सुपारी, लोंग, पान,चावल, फूल, इलायची, बेलपत्र, फल, —मेवा और दक्षिणा चढाते है।

♦ इसके पश्चात कलश का पूजन भी श्री गणेश जी की पूजा के समान ही किया जाता है।

♦फिर नौ ग्रहों तथा सोलह माताओं की पूजा की जाती है. चढाई गई सभी सामग्री ब्राह्माण को दे दी जाती है ।

♦मंगला गौरी की प्रतिमा को जल, दूध, दही से स्नान करा, वस्त्र आदि पहनाकर रोली, चन्दन, सिन्दुर, मेंहन्दी व काजल लगाते है. श्रंगार की सोलह वस्तुओं से माता को सजाया जाता है ।

♦ सोलह प्रकार के फूल- पत्ते माला चढाते है, फिर मेवे, सुपारी, लौग, मेंहदी, शीशा, कंघी व चूडियां चढाते है ।

♦ अंत मे मंगला गौरी व्रत की कथा सुनी जाती है ।

♦ कथा सुनने के बाद विवाहित महिला अपनी सास तथा ननद को सोलह लड्डु देती है । इसके बाद वे यही प्रसाद ब्राह्मण को भी देती है ।अंतिम व्रत के दूसरे दिन बुधवार को देवी मंगला गौरी की प्रतिमा को नदी या पोखर मे  विर्सिजित करदिया जाता है ।

» मंगला गोरी व्रत के उद्यापन की  विधि  : 

श्रावण माह के मंगलवारो का व्रत करने के बाद उसका उद्यापन करना चाहिए ।उद्यापन मे खाना वर्जित है। मेहंदी लगाकर पूजा करनी चाहिए । पूजा चार ब्राह्मणो  से करनी चाहिए । एक चौकी के चार कोनो पर केले के चार थम्ब लगाकर मण्डप पर एक ओढ़नी बांधनी चाहिए । साड़ी, नथ व सुहाग की सभी वस्तुएँ रखनी चाहिएँ ।हवन के उपरांत कथा सुनकर आरती करनी चाहिए । चाँदी के बर्तन मे आटे के सोलह लड्डू, रूपया व साड़ी सासुजी को देकर उनके पाँव छूने  चाहिएँ । पूजा कराने वाले पंडितो को भी धोती ब अंगोछा देना चाहिए । अगले दिन सोलह ब्राह्मणों को जोड़े सहित भोजन करवाकर धोती, अंगोछा तथा ब्राह्मणियों को, सुहाग-पिटारी देनी चाहिए। सुहाग पिटारी मे सुहाग का समान व साड़ी होती है । इतना सब करने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए ।

» मंगला गौरी(मंगल) व्रत और ज्योतिष : 

ज्योतिष के अनुसार कुंडली में कई प्रकार के दोष बताए गए है जैसे कालसर्प योग, पितृदोष, नाड़ीदोष, गणदोष, चाण्डालदोष, ग्रहणयोग, मंगलदोष या मांगलिक दोष आदि। इनमे मंगल दोष एक ऐसा दोष है जिसकी वजह से व्यक्ति को विवाह संबंधी परेशानियो, रक्त संबंधी बीमारियों और भूमि-भवन के सुख मे कमियां रहती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नौ ग्रह बताए गए है जो कुंडली मे अलग-अलग स्थितियो के अनुसार हमारा जीवन निर्धारित करते है।  70% लोग मंगल दोष से प्रभावित या पीड़ित मिलेंगे। बिना सोचे समझे या जाने ज्योतिष के फंडे न लगाये सिर्फ लैपटॉप लेके सॉफ्टवेयर से कुंडली बना लेने से राशी भाव और गृह देख लेने मात्र से कोई ज्योतिषी नहीं हो जाता, उसके लिये गहरे ज्ञान की आवश्यकता भी होती है ।  हमे जो भी सुख-दुख, खुशियां और सफलताएं या असफलताएं प्राप्त होती है, वह सभी ग्रहों की स्थिति के अनुसार मिलती है। इन नौ ग्रहों का सेनापति है मंगल ग्रह।मंगल ग्रह से ही संबंधित होते है मंगल दोष। मंगल दोष ही व्यक्ति को मंगली बनाता है।

जिन युवतियो और महिलाओं की कुंडली मे  वैवाहिक जीवन में कम‍ी‍ महसूस होती है, अथवा शादी के बाद पति से अलग होने या तलाक हो जाने जैसे अशुभ योग निर्मित हो रहे हो, तो उन महिलाओं के लिए मंगला गौरी व्रत विशेष रूप से फलदायी है। अत: ऐसी महिलाओं को सोलह सोमवार के साथ-साथ मंगला गौरी का व्रत अवश्य रखना चाहिए।

» पाप ग्रह है मंगल :

मंगल ग्रह को पाप ग्रह माना जाता है। ज्योतिष मे मंगल को अनुशासन प्रिय, घोर स्वाभिमानी, अत्यधिक कठोर माना गया है। सामान्यत: कठोरता दुख देने वाली ही होती है। मंगल की कठोरता के कारण ही इसे पाप ग्रह माना जाता है। मंगलदेव भूमि पुत्र है और यह परम मातृ भक्त है। इसी वजह से माता का सम्मान करने वाले सभी पुत्रों को विशेष फल प्रदान करते है। मंगल बुरे कार्य करने वाले लोगों को बहुत बुरे फल प्रदान करता है।

» जानिए मंगल के प्रभाव:

मंगल से प्रभावित कुंडली को दोषपूर्ण माना जाता है। जिस व्यक्ति की कुंडली मे मंगल अशुभ फल देने वाला होता है उसका जीवन परेशानियों में व्यतीत होता है। अशुभ मंगल के प्रभाव की वजह से व्यक्ति को रक्त संबंधी बीमारियां होती है। साथ ही, मंगल के कारण संतान से दुख मिलता है, वैवाहिक जीवन परेशानियो भरा होता है, साहस नहीं होता, हमेशा तनाव बना रहता है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली मे मंगल ज्यादा अशुभ प्रभाव देने वाला है तो वह बहुत कठिनाई से जीवन गुजरता है। मंगल उत्तेजित स्वभाव देता है, वह व्यक्ति हर कार्य उत्तेजना में करता है और अधिकांश समय असफलता ही प्राप्त करता है।  मंगल ग्रह दोष से मिलने वाली रोग, पीड़ा और बाधा दूर करने के लिए मंगलवार का व्रत बहुत ही प्रभावकारी माना जाता है,  कितु दैनिक जीवन की आपाधापी मे चाहकर भी अनेक लोग धार्मिक उपायो को अपनाने में असमर्थ हो जाते हैं। इसलिए यहां मंगलवार के लिए ऐसे उपाय बताए जा रहे हैं, जिनको आप दिनचर्या के दौरान अपनाकर मंगल दोष शांति कर सकते है –

अगर आपकी कुण्डली मे मंगल उच्च का और शुभ हो तो मंगलवार के दिन हनुमान मंदिर मे बताशे चढ़ाएं और बहते जल या नदी में बहा दे। मंगल दोष के बुरे असर से बचाव होगा ।

अगर कुण्डली मे मंगल दोष का निवारण ग्रहो के मेल से नहीं होता है तो व्रत और अनुष्ठान द्वारा इसका उपचार करना चाहिए। मंगला गौरी और वट सावित्री का व्रतसौभाग्य प्रदान करने वाला है । अगर जाने अनजाने मंगली कन्या का विवाह इस दोष से रहित वर से होता है तो दोष निवारण हेतु इस व्रत का अनुष्ठान करना लाभदायी होता है ।

जिस कन्या की कुण्डली मे मंगल दोष होता है वह अगर विवाह से पूर्व गुप्त रूप से घट से अथवा पीपल के वृक्ष से विवाह करले फिर मंगल दोष से रहित वर से शादी करे तो दोष नहीं लगता है। प्राण प्रतिष्ठित विष्णु प्रतिमा से विवाह के पश्चात अगर कन्या विवाह करती है तब भी इस दोष का परिहार हो जाता है । 

मंगलवार के दिन व्रत रखकर सिन्दूर से हनुमान जी की पूजा करने एवं हनुमान चालीसा का पाठ करने से मंगली दोष शांत होता है । कार्तिकेय जी की पूजा से भी इस दोष में लाभ मिलता है ।  महामृत्युजय मंत्र का जप सर्व बाधा का नाश करने वाला है ।इस मंत्र से मंगल ग्रह की शांति करने से भी वैवाहिक जीवन में मंगल दोष का प्रभाव कम होता है । लाल वस्त्र में मसूर दाल, रक्त चंदन, रक्त पुष्प, मिष्टान एवं द्रव्य लपेट कर नदी में प्रवाहित करने से मंगल अमंगल दूर होता है। जहां तक हो मांगलिक से मांगलिक का संबंध करे।

ऐसे मे अन्य कई कुयोग है। जैसे वैधव्य विषागना आदि दोषों को दूर रखे। यदिऐसी स्थिति हो तो ‘पीपल’ विवाह, कुंभ विवाह, सालिगराम विवाह तथा मंगल यंत्र कापूजन आदि कराके कन्या का संबंध अच्छे ग्रह योग वाले वर के साथ करे। मंगल यंत्र विशेष परिस्थिति में ही प्रयोग करे। देरी से विवाह, संतान उत्पन्न की समस्या, तलाक, दाम्पत्य सुख में कमी एवं कोर्ट केस इत्या‍दि में ही इसे प्रयोग करें। छोटे कार्य के लिए नहीं।

» विशेष सावधानी :

विशेषकर जो मांगलिक है उन्हें इसकी पूजा अवश्य करनी चाहिए। चाहे मांगलिक दोष भंग आपकी कुंडली में क्यों न हो गया हो फिर भी मंगल पूजन यंत्र मांगलिको को सर्वत्र जय, सुख, विजय और आनंद देता है। मंगलवार का दिन हनुमान जी की आराधना का विशेष दिन माना जाता है। इसके साथ ही ज्योतिष के अनुसार ये दिन मंगल ग्रह के निमित्त पूजा करने का विधान बताया गया है। मंगल देव की खास पूजा उन लोगों को करनी चाहिए जिनकी कुंडली में मंगल दोष होता है।  यदि आपकी जन्म कुंडली में मंगल दोष है तो निश्चित ही आपको बहुत सारी परेशानियां घेरे रहती होगी। समय पर विवाह नहीं होता, धन के संबंध में समस्याएं चलती रहती है, घर-जमीन-जायदाद को लेकर तनाव झेलना पड़ता है। मंगल भूमि पुत्र है और भूमि से संबंधित कार्य करने वालों को सबसे अधिक प्रभावित करता है। आप प्रापर्टी के संबंध में सौदे या व्यवसाय करते है और अच्छा लाभ कमाना चाहते है तो मंगल देवता को खुश रखना बहुत जरूरी है।

♦ मंगली कन्याये गौरी पूजन तथा श्रीमद्भागवत के 18 वें अध्याय के नवें श्लोक का जप अवश्य  करे ।  प्रत्येक मंगलवार को मंगल स्नान करे ।  विवाह के समय कुंडली मिलान अवश्य करे ।

by Pandit Dayanand Shastri.

आईए जाने नागपंचमी 2016  पर कैसे करे  कालसर्प योग/कालसर्प दोष पूजन-

श्रावण शुक्ल पंचमी के दिन ‘नागपंचमी का पर्व’ परंपरागत श्रद्धा एवं विश्वास के साथ मनाया जाता है। इस दिन नागो का पूजन किया जाता है। इस दिन नाग दर्शन का विशेष महत्व है। इस वर्ष  07 अगस्त 2016  (रविवार) को नागपंचमी मनाई जाएगी |
इस दिन सांप मारना मना है। पूरे श्रावण माह विशेष कर नागपंचमी  07 अगस्त 2016  (रविवार) को धरती खोदना निषिद्ध है। इस दिन व्रत करके सांपो को खीर व दूध पिलाया जाता है जबकि यह गलत है। कहीं-कहीं सावन माह की कृष्ण पक्ष की पंचमी को भी नागपंचमी मनाई जाती है। 
प्रत्येक वर्ष  शुक्ल श्रावण पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता  है। इस दिन नाग देवता का पूजन होता है। इस दिन काष्ठ पर एक कपड़ा बिछाकर उस पर रस्सी की गांठ लगाकर सर्प का प्रतीक रूप बनाकर, उसे काले रंग से रंग दिया जाता है। कच्चा दूध, घृत और शर्करा तथा धान का लावा इत्यादि अर्पित किया जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश मे इस दिन दीवारो पर गोबर से सर्पाकार आकृति का निर्माण कर सविधि पूजन किया जाता है। प्रत्येक तिथि के स्वामी देवता है। पंचमी तिथि के स्वामी देवता सर्प है। इसलिए यह कालसर्पयोग की शांति का उत्तम दिन है।
♦जानिए नागपंचमी क्यो है कालसर्प जनित अनिष्ट की शांति का उत्तम दिन:-
इस तिथि को चंद्रमा की राशि कन्या होती है और राहु का स्वगृह कन्या राशि है। राहु के लिए प्रशस्त तिथि, नक्षत्र एव स्वगृही राशि के कारण नागपंचमी सर्पजन्य दोषो की शांति के लिए उत्तम दिन माना जाता है। कालसर्प योग की शांति विधियां अधिकांशत: नागपूजा एव श्राद्ध बलि पर आधारित है। पंचमी तिथि को भगवान आशुतोष भी सुस्थानगत होते है। इसलिए इस दिन सर्प शांति के अंतर्गत राहु-केतु का जप, दान, हवन आदि उपयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त अन्य दुर्योगो के लिए भगवान शिव का अभिषेक, महामृत्युंजय मंत्र का जप, यज्ञ, शिव सहस्रनाम का पाठ, गाय और बकरे के दान का भी विधान है। 
♦ जानिए क्यो मनाते है नागपंचमी?
धर्मग्रंथों के अनुसार नागपंचमी के दिन नाग अर्थात सर्प के दर्शन व उसके पूजन का विशेष फल मिलता है। जो भी व्यक्ति नागपंचमी के दिन नाग की पूजा करता है उसे कभी भी नाग अर्थात सांप का भय नहीं होता और न ही उसके परिवार मे किसी को नागो द्वारा काटे जाने का भय सताता है। नागपंचमी का पर्व मनाए जाने के पीछे जो कथा प्रचलित है वह संक्षेप में इस प्रकार है। एक किसान जब अपने खेतों मे हल चला रहा था उस समय उसके हल से कुचल कर एक नागिन के बच्चे मर गए। अपने बच्चो को मरा देखकर क्रोधित नागिन ने किसान, उसकी पत्नी और लड़को को डस लिया। जब वह किसान की कन्या को डसने गई तब उसने देखा किसान की कन्या दूध का कटोरा रखकर नागपंचमी का व्रत कर रही है। यह देख नागिन प्रसन्न हो गई। उसने कन्या से वर मांगने को कहा। किसान कन्या ने अपने माता-पिता और भाइयो को जीवित करने का वर मांगा। नागिन ने प्रसन्न होकर किसान परिवार को जीवित कर दिया। और तभी से यह परम्परा चली आ रही है कि श्रावण शुक्ल पंचमी को नागदेवता का पूजन करने से किसी प्रकार का कष्ट और भय नहीं रहता।
♦जानिए क्यों इसी दिन नाग देवता की होती है विशिष्ट पूजा? 
श्रावण के महीने मे सूर्य कर्क राशिगत मित्रगृही होता है। इस महीने का संबंध भगवान शिव से है और शिव का आभूषण सर्प देवता है। अत: इस तिथि पर सर्प (नाग) पूजन से नागो के साथ ही भगवान आशुतोष की भी असीम कृपा प्राप्त होती है। पुराणो मे नागलोक की राजधानी के रूप मे भोगवतीपुरी विख्यात संस्कृत कथा साहित्य मे विशेष रूप से (कथासरित्सागर) नागलोक व वहां के निवासियों की कथाओ से ओतप्रोत है। गरुण पुराण, भविष्य पुराण, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भावप्रकाश आदि ग्रंथों में नाग संबंधी विविध विषयों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में यक्ष, किन्नर और गंधर्वों के साथ नागो का भी वर्णन मिलता है। भगवान विष्णु की शैय्या की शोभा नागराज शेष बढ़ाते है। 
♦जानिए यह नागपंचमी विशिष्ट क्यो है?
इस बार की नागपंचमी अपने आपमें बहुत विशिष्ट है। उसका मुख्य कारण यह है कि आजकल ज्योतिष जगत मे जिस कालसर्प दोष को लेकर बडी-बडी चर्चाएं हो रही है वही दोष ग्रहों के मध्य इस विशेष तिथि के दिन निर्मित हो रहा है। सबसे मजेदार बात यह है कि इस तिथि को कालसर्प दोष निवारण करने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यानी दोष निवारण करने वाली तिथि के दिन दोष का निर्माण होना एक दुर्लभ योग है। वैसे तो यह योग कुछ सालो के अंतराल मे बन जाता है लेकिन राहू, केतू के लिए नीच कही जाने वाली राशियो क्रमश: वृश्चिक और बृष राशि में नाग पंचमी के साथ-साथ सोमवार के दिन इस योग का होना बहुत ही दुर्लभ और खास है। ऐसे कालसर्प योग के बनने की शुरुआत शनिवार के दिन से होना इसे और खास बना देता है। अर्थात कालसर्प योग, नीच राशि के राहू-केतू और सोमवार का दिन होने के कारण इस बार की नाग पंचमी का दिन बहुत ही विशिष्ट फलदायी रहेगा।
♦ कैसे मनाए नाग पंचमी :- 
♦ इस दिन नागदेव के दर्शन जरूर करे।
♦ बांबी (नागदेव का निवास स्थान) की पूजा करनी चाहिए।
♦ नागदेव को दूध नहीं पिलाना चाहिए। उन पर दूध चढ़ा सकते है।
♦ नागदेव की सुगंधित पुष्प व चंदन से ही पूजा करनी चाहिए क्योंकि नागदेव को सुगंध प्रिय है।
♦इस मंत्र “ॐ कुरुकुल्ये हुं फट् स्वाहा” का जाप करने से सर्प दोष दूर होने की सम्भावना होती  है।
♦इस दिन घरो मे तवे पर रोटी नहीं बनाई जाती है, कहते है कि तवा नाग के फन का प्रतिरूप होने से हिन्दू धर्म मे तवे को अग्नि पर रखना वर्जित है। इस दिन दाल-बाटी-चूरमे के लड्डू बना कर नाग देवता का पूजन किया जाता है। 
♦ध्यान रहे कि नाग पूजन करते वक्त नाग को दूध नहीं पिलाना चाहिए, क्योंकि नाग कभी भी तरल पदार्थ सेवन नहीं करता यदि भुलवश चढ़ा भी जाए तो वह उसके लिए प्राणघातक होता है। जिस प्रकार हमारे फेफड़ों मे पानी या कोई भी वस्तु चली जाए तो हमारे प्राण संकट मे पड़ जाते है, ठीक उसी प्रकार नाग पर भी प्रभाव होता है। 
♦ इसके लिए हमे अपने घर मे ही शुद्ध घी से दीवार पर नाग बनाना चाहिए एवं फिर उनका विधि-विधान से पूजना करना चाहिए। इस प्रकार करने से नाग देवता प्रसन्न होने के साथ-साथ शुभ प्रभाव देते हैं व नाग दंश का भय भी नहीं रहता है। 
♦ नागपंचमी पर अधिकांश परिवार वाले काले रंग या कोयले से नाग बनाते है एवं फिर पूजन करते है, लेकिन काला अशुभ होता है। अतः घी के ही नाग बनाकर पूजन करना चाहिए। 
♦ कालसर्प योग वाले व्यक्ति इस दिन विधि-विधान से उज्जैन सिद्धवट पर या फिर त्र्यंबकेश्वर जाकर पूजन करवाने से अशुभ प्रभाव खत्म होकर शुभ प्रभाव मे वृद्धि होती है। 
हां, एक बात का अवश्य ध्यान रखे की कभी भी नाग आकृति वाली अंगूठी कदापि ना पहने व जिसे भी इस प्रकार का दोष है वे गोमेद भी ना धारण करे। 
♦जानिए आप किस दोष से है पीडि़त और क्या है इन दोषो के लक्षण ???
स्वप्न में सर्प दिखाई देना, नींद से घबराकर उठना और भय से काम्पने लगना, नजऱ टोना टोटका होना, कार्य व्यापार नोकरी मे मन न लगना, लडक़े-लडक़ी का विवाह समय पर न होना, मेहनत का फल न मिलना, सर्प को मारना व् मरते देखना, आपके वाहन के आगे गाय,बछड़ा,बिल्ली का दुर्घटना होना, सपने मे झोटा,बैल, हाथी, कुत्ता, बिल्ली या सर्प का आप पर झपटते दिखना। कोए गीध ऊँचे पहाड से गिरना, नदी मे डूबता दिखना, शरीर मे कई रोग अचानक आना और बच्चो के पैदा होते ही बीमार होना, संतान का कहने से बाहर होना, कोर्ट कचहरी मे झूठे मुकदमे मे फंसना भूत-प्रेत से परेशानी, पति-पत्नी और संतान का व्यवहार ठीक न होना दोनों शंका में पडकर अपनी ग्रहस्थी को खराब करना, मृत्यु का भय, बार-बार गर्भ खराब होना, प्रमोशन में बाधा आना।  
अगर ये लक्षण किसी भी प्रकार से आप में है तो आपकी कुंडली या आप इन दोषो से शापित है।
ज्योतिष के अनुसार जिन लोगो की कुंडली मे कालसर्प दोष हो, वे अगर इस दिन इस दोष के निवारण के लिए उपाय व पूजन करे तो शुभ फलों की प्राप्ति होती है तथा कालसर्प दोष के दुष्प्रभाव में कमी आती है।
ज्योतिष के अनुसार कालसर्प दोष मुख्य रूप से 12 प्रकार का होता है, इसका निर्धारण जन्म कुंडली देखकर ही किया जा सकता है। प्रत्येक कालसर्प दोष के निवारण के लिए अलग-अलग उपाय है। यदि आप जानते है कि आपकी कुंडली मे कौन का कालसर्प दोष है तो उसके अनुसार आप नागपंचमी के दिन उपाय कर सकते है। कालसर्प दोष के प्रकार व उनके उपाय इस प्रकार है-
1- अनन्त कालसर्प दोष:- अनन्त कालसर्प दोष होने पर नागपंचमी के दिन एकमुखी, आठमुखी अथवा नौ मुखी रुद्राक्ष धारण करे। यदि इस दोष के कारण स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, तो नागपंचमी के दिन रांगे (एक धातु) से बना सिक्का नदी में प्रवाहित करे।
2- कुलिक कालसर्प दोष:- कुलिक नामक कालसर्प दोष होने पर दो रंग वाला कंबल अथवा गर्म वस्त्र दान करे। चांदी की ठोस गोली बनवाकर उसकी पूजा करें और उसे अपने पास रखे।
3- वासुकि कालसर्प दोष:- वासुकि कालसर्प दोष होने पर रात को सोते समय सिरहाने पर थोड़ा बाजरा रखे और सुबह उठकर उसे पक्षियों को खिला दे। नागपंचमी के दिन लाल धागे में तीन, आठ या नौ मुखी रुद्राक्ष धारण करे।
4- शंखपाल कालसर्प दोष :- शंखपाल कालसर्प दोष के निवारण के लिए 400 ग्राम साबूत बादाम बहते जल मे प्रवाहित करे। नागपंचमी के दिन शिवलिंग का दूध से अभिषेक करे।
5- पद्म कालसर्प दोष:- पद्म कालसर्प दोष होने पर नागपंचमी के दिन से प्रारंभ करते हुए 40 दिनो तक रोज सरस्वती चालीसा का पाठ करे। जरूरतमंदो को पीले वस्त्र का दान करे और तुलसी का पौधा लगाएं।
6- महापद्म कालसर्प दोष:- महापद्म कालसर्प दोष के निदान के लिए हनुमान मंदिर में जाकर सुंदरकांड का पाठ करे। नागपंचमी के दिन गरीब, असहायों को भोजन करवाकर दान-दक्षिणा दे।
7- तक्षक कालसर्प दोष:- तक्षक कालसर्प योग के निवारण के लिए 11 नारियल बहते हुए जल मे प्रवाहित करे। सफेद वस्त्र और चावल का दान करे।
8- कर्कोटक कालसर्प दोष:- कर्कोटक कालसर्प योग होने पर बटुकभैरव के मंदिर मे जाकर उन्हें दही-गुड़ का भोग लगाएं और पूजा करे। नागपंचमी के दिन शीशे के आठ टुकड़े नदी मे प्रवाहित करे।
9- शंखचूड़ कालसर्प दोष:- शंखचूड़ नामक कालसर्प दोष की शांति के लिए नागपंचमी के दिन रात को सोने से पहले सिरहाने के पास जौ रखे और उसे अगले दिन पक्षियों को खिला दे।  पांचमुखी, आठमुखी या नौ मुखी रुद्राक्ष धारण करें।
10- घातक कालसर्प दोष:- घातक कालसर्प के निवारण के लिए पीतल के बर्तन में गंगाजल भरकर अपने पूजा स्थल पर रखे। चार मुखी, आठमुखी और नौ मुखी रुद्राक्ष हरे रंग के धागे में धारण करे।
11- विषधर कालसर्प दोष:- विषधर कालसर्प के निदान के लिए परिवार के सदस्यों की संख्या के बराबर नारियल लेकर एक-एक नारियल पर उनका हाथ लगवाकर बहते हुए जल में प्रवाहित करे। नागपंचमी के दिन भगवान शिव के मंदिर में जाकर यथाशक्ति दान-दक्षिणा दें।
12- शेषनाग कालसर्प दोष:- शेषनाग कालसर्प दोष होने पर नागपंचमी की पूर्व रात्रि को लाल कपड़े में थोड़े से बताशे व सफेद फूल बांधकर सिरहाने रखें और उसे अगले दिन सुबह उन्हें नदी में प्रवाहित कर दे। नागपंचमी के दिन गरीबों को दूध व अन्य सफेद वस्तुओं का दान करे।
♦पूजन विधि –
नागपंचमी पर सुबह जल्दी उठकर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर सबसे पहले भगवान शंकर का ध्यान करे इसके बाद नाग-नागिन के जोड़े की प्रतिमा (सोने, चांदी या तांबे से निर्मित) के सामने यह मंत्र बोले-
अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शंखपाल धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रात:काले विशेषत:।।
तस्मै विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।
इसके बाद व्रत-उपवास एवं पूजा-उपासना का संकल्प ले। नाग-नागिन के जोड़े की प्रतिमा को दूध से स्नान करवाएं। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान कराकर गंध, पुष्प, धूप, दीप से पूजन करे तथा सफेद मिठाई का भोग लगाएं। यह प्रार्थना करे-
सर्वे नागा: प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले।।
ये च हेलिमरीचिस्था येन्तरे दिवि संस्थिता।
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिन:।
ये च वापीतडागेषु तेषु सर्वेषु वै नम:।।
♦प्रार्थना के बाद नाग गायत्री मंत्र का जाप करे-
ऊँ नागकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नो सर्प: प्रचोदयात्।
♦ इसके बाद सर्प सूक्त का पाठ करे-
ब्रह्मलोकुषु ये सर्पा: शेषनाग पुरोगमा:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
कद्रवेयाश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
इंद्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
पृथिव्यांचैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
ग्रामे वा यदिवारण्ये ये सर्पा प्रचरन्ति च।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
समुद्रतीरे ये सर्पा ये सर्पा जलवासिन:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
रसातलेषु या सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
नागदेवता की आरती करे और प्रसाद बांट दे। इस प्रकार पूजन करने से नागदेवता प्रसन्न होते हैं और हर मनोकामना पूरी करते है।
Pandit Dayanand Shastri.