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वास्तु और मनी प्लांट का प्रभाव

ऎसी मान्यता है कि जिसके घर मे मनी प्लांट का पौधा लगा होता है उसके घर मे न केवल सुख समृद्धि मे इजाफा होता है बल्कि घर मे धन का भी आगमन होता है। इसी वजह से कुछ लोग घरो मे मनी प्लांट का पौधा लगाते है | लेकिन कई बार मनी प्लांट लगाने के बावजूद भी धनागमन मे कई अंतर नहीं होता बल्कि और आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। घर मे मनी प्लांट लगाने पर सुख-समृद्धि मे होने के साथ धन का आगमन बढ़ता है। इसी के चलते लोग अपने घरो में यह पौधा लगाते है। 

मनीप्लांट दक्षिणपूर्व एशिया मूल (मलेशिया, इण्डोनेशिया) का लता रूप मे पसरने वाला पौधा है। इसकी पत्तियाँ सदा हरी रहतीं है। ये तने पर एकान्तर क्रम मे लगी होती है और हृदय जैसी आकृति वाली होती है। वैसे तो घर मे रखने के लिए आपको पॉम लीव्स, बोनसाई जैसे कई इंडोर प्लांट मिल जाएँगे, लेकिन कम खर्च और अच्छी ग्रोथ के कारण जो रंग मनी प्लांट आपके इंटीरियर मे भरता है, वह किसी अन्य इंडोर प्लांट से संभव नहीं। 

मनी प्लांट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि घर हो या आँगन यह प्लांट कहीं भी आसानी से लग जाता है। साथ ही यह केवल पानी मे भी लगाया जा सकता है और इसके रखरखाव के लिए भी ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है। इसे घर के अंदर व बाहर दोनो जगह ही रखा जा सकता है। जिस कोने मे यह होता है उसकी ओर बरबस ही निगाहे चली जाती है। आप चाहे तो इसकी इन सुनहरी पत्तियों को काँट-छाँट कर इसे और भी आकर्षक बना सकते है।  वास्तु के अनुसार, यदि सही दिशा और सही जगह मे मनी प्लांट का पौधा नहीं लगाया गया तो धनलाभ के बजाय हानि का सामना करना पड़ता है। 

लेकिन वास्तु शास्त्र के अनुसार यह पौधा घर मे उचित दिशा मे नहीं लगाया गया है तो आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। वास्तु शास्त्रीयो का मानना है कि मनी प्लांट के पौधे के घर मे लगाने के लिए आग्नेय दिशा सबसे उचित दिशा है। इस दिशा मे यह पौधा लगाने से सकारात्मक ऊर्जा का भी लाभ मिलता है।

मनी प्लांट को आग्नेय यानि दक्षिण-पूर्व दिशा मे लगाने का कारण ये है इस दिशा के देवता गणेशजी है जबकि प्रतिनिधि शुक्र है। गणेश जी अमंगल का नाश करने वाले है जबकि शुक्र सुख-समृद्धि लाने वाले। यही नहीं बल्कि बेल और लता का कारण शुक्र को माना गया है। इसलिए मनी प्लांट को आग्नेय दिशा मे लगाना उचित माना गया है। मनी प्लांट को कभी भी ईशान यानि उत्तर पूर्व दिशा मे नहीं लगाना चाहिए, यह दिशा इसके लिए सबसे नकारात्मक मानी गई है। क्योंकि ईशान दिशा का प्रतिनिधि देवगुरू बृहस्पति को माना गया है। और शुक्र तथा बृहस्पति मे शत्रुवत संबंध होता है। इसलिए शुक्र से संबंधित यह पौधा ईशान दिशा मे होने पर नुकसान होता है। हालांकी इस दिशा मे तुलसी का लगाया जा सकता है।

♦ आइये जाने कहाँ लगाए मनी प्लांट तो होगा धनलाभ :

वास्तु शास्त्र के अनुसार हर पौधे के लिए एक दिशा निर्धारित होती है। यदि पौधे को उचित दिशा मे लगाया गया तो वह सकारात्मक प्रभाव डालता है वहीँ, यदि उसके उस पौधे का गलत स्थिति मे वृक्षारोपण किया गया तो वह नकारात्मक प्रभाव डालता है जिससे फायदा होने की बजाय नुकसान होने लगता है। 

वास्तु विज्ञान मे मनी प्लांट का पौधा लगाने के लिए आग्नेय दिशा यानी दक्षिण-पूर्व को उत्तम माना गया है। क्योकि इस दिशा के देवता भगवान गणेश जी है और प्रतिनिधि ग्रह शुक्र है और गणेश जी के बारे मे यह कहा जाता है कि वह अमंगल का नाश करके घर मे मंगल करते है जबकि शुक्र सुख-समृद्धि का कारक होता है। बेल और लता का कारक शुक्र होता है इसलिए आग्नेय दिशा मे मनी प्लांट लगाने इस दिशा सकारात्मक प्रभाव प्राप्त होता है। 

वहीँ इस पौधे के लिए ईशान यानी उत्तर पूर्व सबसे नकारात्मक दिशा होती है। इस दिशा मे मनी प्लांट लगाने पर धन वृद्धि की बजाय आर्थिक नुकसान हो सकता है। क्योंकि ईशान का प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है। शुक्र और बृहस्पति मे शत्रुवत संबंध होता है क्योंकि एक राक्षस के गुरू है तो दूसरे देवताओं के गुरू। शुक्र से संबंधित चीज इस दिशा मे होने पर हानि होती है। 

बेल और लता का कारक शुक्र होता है इसलिए आग्नेय दिशा मे मनी प्लांट लगाने इस दिशा सकारात्मक प्रभाव बढ़ता है। मनी प्लांट के लिए सबसे नकारात्मक दिशा ईशान यानी उत्तर पूर्व को माना गया है। इस दिशा मे मनी प्लांट लगाने पर धन वृद्धि की बजाय आर्थिक नुकसान हो सकता है।

मनी प्लांट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि घर हो या आँगन यह प्लांट कहीं भी आसानी से लग जाता है। साथ ही यह केवल पानी मे भी लगाया जा सकता है और इसके रखरखाव के लिए भी ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है। इसे घर के अंदर व बाहर दोनों जगह ही रखा जा सकता है। जिस कोने मे यह होता है उसकी ओर बरबस ही निगाहें चली जाती हैं। आप चाहें तो इसकी इन सुनहरी पत्तियों को काँट-छाँट कर इसे और भी आकर्षक बना सकते है। मनी प्लांट को घर के अंदर गमले मे अथवा बोतल मे पानी भरकर भी लगाया जा सकता है। इससे सुख-समृद्घि प्रदान करने वाले सकारात्मक उर्जा को आकर्षित किया जा सकता है।

by Pandit Dayanand Shastri.

नवरात्र मे माँ बगलामुखी का जितना अधिक जप हो सके उतना ही अच्छा …

01 अक्टूबर 2016 से माँ के नवरात्र के साथ ही नया उत्‍साह नई उमंग जाग गई, सोया मार्किट जाग गया। वही यह समय सभी साधको के लिए बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस काल में की गयी उपासना का विशेष फल प्राप्त होता है। जो लोग अभी तक किसी कारण से कोई अनुष्ठान अथवा पुरश्चरण नहीं कर सके है उन्हे कल से वह अवश्य शरू कर देना चाहिए। यह जरुरी नहीं है कि नवरात्र में केवल माँ दुर्गा की ही उपासना की जाती है बल्कि इस समय आप किसी भी इष्ट देवता के मंत्रो का अनुष्ठान कर सकते है।
नवरात्र के पहले दिन अपने गुरु देव से मंत्र दीक्षा लेकर, उसका अनुष्ठान करना चाहिए। कुछ साधको के मन में एक प्रश्न रहता है कि क्या नवरात्र में शरू किया गया अनुष्ठान नवरात्र मे ही पूर्ण करना जरुरी है , नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है। ये अनुष्ठान आप २१ अथवा ४० दिन में भी पूर्ण कर सकते है लेकिन यदि हो सके तोअंतिम नवरात्र तक पूर्ण कर लेना चाहिए। यदि किसी कारण से अनुष्ठान करना सम्भव नहीं है तो नवरात्र में जितना अधिक जप हो सके उतना ही अच्छा है।
ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।
नवरात्र मे अपने इष्ट देव के सहस्रनाम से अर्चन करना चाहिए। सहस्त्रनाम मे देवी/देवता के एक हजार नाम होते है। इसमे उनके गुण व कार्य के अनुसार नाम दिए गए हैं। सर्व कल्याण व कामना पूर्ति हेतु इन नामो से अर्चन करने का प्रयोग अत्यधिक प्रभावशाली है। जिसे सहस्त्रार्चन के नाम से जाना जाता है। सहस्र नामावली के एक-एक नाम का उच्चारण करके देवी की प्रतिमा पर, उनके चित्र पर, उनके यंत्र पर या देवी का आह्वान किसी सुपारी पर करके प्रत्येक नाम के उच्चारण के पश्चात नमः बोलकर देवी की प्रिय वस्तु चढ़ाना चाहिए। जिस वस्तु से अर्चन करना हो वह शुद्ध, पवित्र, दोष रहित व एक हजार से अधिक संख्या में होनी चाहिए।अर्चन मे बिल्वपत्र, हल्दी, केसर या कुंकुम से रंग चावल, इलायची, लौंग, काजू, पिस्ता, बादाम, गुलाब के फूल की पंखुड़ी, मोगरे का फूल, चारौली, किसमिस, सिक्का आदि का प्रयोग शुभ व देवी को प्रिय है। यदि अर्चन एक से अधिक व्यक्ति एक साथ करें तो नाम का उच्चारण एक व्यक्ति को तथा अन्य व्यक्तियों को नमः का उच्चारण अवश्य करना चाहिए।सहस्त्रनाम के पाठ करने का फल भी महत्वपूर्ण है। अर्चन की सामग्री प्रत्येक नाम के पश्चात, प्रत्येक व्यक्ति को अर्पित करनी चाहिए। अर्चन के पूर्व पुष्प, धूप, दीपक व नैवेद्य देवी/देवता को अर्पित करना चाहिए। दीपक पूरी अर्चन प्रक्रिया तक प्रज्वलित रहना चाहिए। जो लोग शत्रु बाधा,व्यापार का ठप होना अथवा ऊपरी बाधा गृह क्लेश एवं अन्य उपद्रवों एवं तंत्र प्रयोगो से ग्रस्त हैं उन्हें नवरात्र में माँ बगलामुखी अथवा माँ प्रत्यंगिरा का अनुष्ठान अवश्य कराना चाहिए।
माँ बगलामुखी रोग शोक और शत्रु को समूल नष्ट कर देती है,,प्रबल से प्रबल शत्रु भी इनके साधक और उपासको के आगे पानी भरते हैं,और कोई इनके उपासको का बाल भी बंका नही कर सकता है, कलियुग में इनकी साधना उपासना तुरंत फलदायी होती है तथा यह विजय की देवी हैं इनके भक्त कभी पराजय का मुंह नही देखते,देश के जाने माने अधिकांश राजनेता और राजनीती करने वाले व्यक्ति इनके उपासक है, जो अपनी चुनाव विजय तथा शत्रुओ के पराभव के लिए गुप्त रूप से इनके तांत्रिक अनुष्ठान हवन पूजन आदि कराते है। ये स्तम्भन की देवी भी है। कहा जाता है कि सारे ब्रह्मांड की शक्ति मिलकर भी इनका मुकाबला नहीं कर सकती। शत्रु नाश, वाक सिद्धि, वाद-विवाद में विजय के लिए देवी बगलामुखी की उपासना की जाती है।
♦ बगलामुखी देवी को प्रसन्न करने के लिए 36 अक्षरों का बगलामुखी महामंत्र :
‘ऊं हल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय, जिहवां कीलय बुद्धिं विनाशय हल्रीं ऊं स्वाहा’ का जप करे।
हल्दी की माला पर करना चाहिए।सभी मनुष्यो को जीवन में एक बार माँ बगलामुखी का अनुष्ठान ,हवन ,पूजन अवश्य कराना चाहिए।इनके हवन में पिसी हुई शुद्ध हल्दी,मालकांगनी, काले तिल,गूगल,पीली हरताल,पीली सरसो, नीम का तेल, सरसो का तेल,बेर की लकड़ी,सूखी साबुत लाल मिर्च आदि भिन्न 2 सामग्रियों का उपयोग भिन्न 2 कामनाओ के लिए किया जाता है।
तांत्रिक पद्धति से किया गया माँ बगलामुखी का यज्ञ/हवन-पूजन त्वरित और तीव्र परिणाम देता है।नलखेड़ा (मध्यप्रदेश) स्थित प्राचीन माँ बगलामुखी सिद्धपीठ पर यह अनुष्ठान संपन्न होते है। इस सिद्ध पीठ की स्थापना महाभारत युद्ध के समय भगवान श्री कृष्ण के सुझाव पर पांडव वंश के युवराज युधिष्ठिर  द्वारा की गयी थी।  यह शमशान क्षेत्र मे स्थित स्वयंभू प्रतिमा बहुत चमत्कारी हैं।
जिला आगर  (म.प्र.) स्थित नलखेड़ा नगर का धार्मिक एवं तांत्रिक द्रिष्टि से महत्त्व है। तांत्रिक साधना के लिए उज्जैन के बाद नलखेड़ा का नाम आता है। कहा जाता है की जिस नगर में माँ बगलामुखी विराजित हो , उस नगर , को संकट देख भी नहीं पाता। बताते है की यहाँ स्वम्भू माँ बगलामुखी की मूर्ति महाभारत काल की है। पुजारी के दादा परदादा ही पूजन करते चले आ रहे हैं | यहाँ श्री पांडव युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण के निर्देशन पर साधना कर कौरवों पर विजय प्राप्त की थी | यह स्थान आज भी चमत्कारो मे अपना स्थान बनाये हुए है | देश विदेश से कई साधू- संत आदि आकर यहाँ तंत्र –मन्त्र साधना करते है , माँ बगलामुखी की साधना करते है। माँ बगलामुखी की साधना जितनी सरल है तो उतनी जटिल भी है। माँ बगलामुखी वह शक्ति है, जो रोग शत्रुकृत अभिचार तथा समस्त दुखो एवं पापो का नाश करती है। 
इस मंदिर में त्रिशक्ति माँ विराजमान है , ऐसी मान्यता है की मध्य मे माँ बगलामुखी दायें माँ लक्ष्मी तथा बायें माँ सरस्वती है।  त्रिशक्ति माँ का मंदिर भारत वर्ष में कहीं नहीं है। मंदिर मे बेलपत्र , चंपा , सफ़ेद आकड़े ,आंवले तथा नीम एवं पीपल ( एक साथ ) पेड़ स्थित है जो माँ बगलामुखी के साक्षात् होने का प्रमाण है | मंदिर के पीछे नदी ( लखुन्दर पुरातन नाम लक्ष्मणा ) के किनारे कई समाधियाँ ( संत मुनिओं की ) जीर्ण अवस्था में स्थित है , जो इस मंदिर मे संत मुनिओं का रहने का प्रमाण है | मंदिर के बाहर सोलह खम्भों वाला एक सभामंडप भी है जो आज से 252 वर्षों से पूर्व संवत 1816 मे पंडित ईबुजी दक्षिणी कारीगर श्रीतुलाराम ने बनवाया था | इसी सभामंड़प मे माँ की ओर मुख करता हुआ कछुआ बना हुआ है , जो यह सिद्ध करता है की पुराने समय मे माँ को बलि चढ़ाई जाती थी मंदिर के ठीक सम्मुख लगभग 80 फीट ऊँची एक दीप मालिका बनी हुई है | यह कहा जाता है की मंदिरों में दीप मालिकाओं का निर्माण राजा विक्रमादित्य द्वारा ही किया गया था | मंदिर के प्रांगन में ही एक दक्षिणमुखी हनुमान का मंदिर एक उत्तरमुखी गोपाल मंदिर तथा पूर्वर्मुखी भैरवजी का मंदिर भी स्थित है , मंदिर का मुख्या द्वार सिंह्मुखी है , जिसका निर्माण 18 वर्ष पूर्व कराया गया था | माँ की कृपा से सिंहद्वार भी अपने आप मे अद्वितिए बना है , श्रद्धालु यहाँ तक कहते हैं की माँ के प्रतिमा के समक्ष खड़े होकर जो माँगा है , वह हमें मिला है हम माँ के द्वार से कभी खाली हाथ नहीं लौटे है |
व्यक्ति को अपने जीवन में माँ बगलामुखी(ब्रह्मास्त्र विद्या) का एक बार आश्रय लेकर इनकी शक्ति का प्रमाण और परिणाम अवश्य देखना चाहिए!
माँ बगलामुखी का एक प्रसिद्ध नाम श्री पीताम्बरा भी है। यह त्रिपुर सुंदरी शक्ति श्री विष्णु की आराधना से ही माता बगला के रूप मे प्रकट हुईं। यह वैष्णवी शक्ति हैं।यह शिव मृत्युंजय की शक्ति कहलाती है। यह सिद्ध विद्या श्रीकुल की ब्रह्म विद्या है। दश महाविद्या में आद्या महाकाली ही प्रथम उपास्य है। इनकी कृपा हो तो साधना में शीघ्र लाभ प्राप्त होता है। इनकी साधना वाम या दक्षिण मार्ग से किया जाता है, परंतु बगला शक्ति विशेषकर दक्षिण मार्ग से ही उपास्य हैं। श्री बगला पराशक्ति की साधना अति गोपनीयता के साथ की जाती है। इनकी उपासना ऋषि-मुनि के अतिरिक्त देवता भी करते है। श्री स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक ‘श्री बगलामुखी रहस्य’ अति सुंदर और साधकों के लिए कृपा स्वरूप है। श्री बगलामुखी के साधक को गंभीर एवं निडर होने के साथ-साथ शुद्ध एवं सरल चित्त का होना चाहिए।
❄ श्री बगला स्तंभन की देवी भी है त्रिशक्ति रूप के कारण स्तंभन के साथ-साथ भोग एवं मोक्षदायिनी भी है।
❄ बगलामुखी की साधना बिना गुरु के भूल कर भी नहीं करनी चाहिए, अन्यथा थोड़ी सी भी चूक से साधक के समक्ष गंभीर संकट उपस्थित हो जाता है।
❄ मणिद्वीप वासिनी काली भुवनेश्वरी माता ही बगलामुखी हैं।
❄ इनकी अंग पूजा में शिव, मृत्युंजय, श्री गणेश, बटुक भैरव और विडालिका यक्षिणी का पूजन किया जाता है। कई जन्मों के पुण्य प्रताप से ही इनकी उपासना सिद्ध होती है।
❄ विद्वानों का मत है कि विश्व की अन्य सारी शक्तियां संयुक्त होकर भी माता बगला की बराबरी नहीं कर सकती है। इनके मंत्र का जप सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। इनके मंत्र के जप से अनेक प्रकार की चमत्कारिक अनुभूतियां होने लगती हैं। अलग-अलग कामनाओं की सिद्धि हेतु जप के लिए हरिद्रा, पीले हकीक या कमलगट्टे की माला का प्रयोग करना चाहिए। देवी को चंपा, गुलाब, कनेल और कमल के फूल विशेष प्रिय हैं। इनकी साधना किसी शिव मंदिर या माता मंदिर मे अथवा किसी पर्वत पर या पवित्र जलाशय के पास गुरु के सान्निध्य में विशेष सिद्धिप्रद होता है।
❄ वैसे घर में भी किसी एकांत स्थान पर दैनिक उपासना की जा सकती है। श्री बगला के एकाक्षरी, त्रयाक्षरी, चतुराक्षरी, पंचाक्षरी, अष्टाक्षरी, नवाक्षरी, एकादशाक्षरी और षट्त्रिंशदाक्षरी मंत्र विशेष सिद्धिदायक हैं। सभी मंत्रों का विनियोग, न्यास और ध्यान अलग-अलग हैं। इनके अतिरिक्त 80, 100, 126 अक्षरों मंत्रों के साथा 514 अक्षरों के बगला माला मंत्र की भी विशेष महिमा है। 666 अक्षर का ब्रह्मास्त्र माला मंत्र भी है। इसके अलावा और भी अनेकानेक मंत्र हैं, जिनका उल्लेख सांखयायन तंत्र में मिलता है।
❄मनोकामना की सिद्धि के लिए बगला स्तोत्र, कवच और बगलास्त्र का गोपनीय पाठ भी किया जाता है।
❄साथ ही बगला गायत्री और कीलक भी है। घृत, शक्कर, मधु और नमक से हवन करने पर आकर्षण होता है।
❄शहद, शक्कर मिश्रित दूर्वा, गुरुच और धान के लावा से हवन करने पर रोगों से मुक्ति मिलती है। कार्य विशेष के लिए विशेष माला, विशेष मंत्र और विशेष हवन का विशेष प्रयोग होता है।
यदि आप के भी शत्रु औकात से बाहर हों दुश्मन आप पर भारी पड़ रहे हों, पानी सर के ऊपर से गुज़र रहा हो व्यापर बिलकुल ठप हो गया हो, उच्च अधिकारी उत्पीड़न कर रहे हो,भुत प्रेत उपद्रव कर रहे हो कही से कोई आशा की किरण नही नज़र आ रही हो कोई मार्ग नही सूझ रहा हो तो आप भी माँ बगलामुखी की साधना पूजा, हवन,अर्चना,एवं अनुष्ठान करके माँ की कृपा प्राप्त करे और अपने गुप्त प्रत्यक्ष सूक्ष्म स्थूल समस्त शत्रुओ को माँ की कृपा से नष्ट करते हुए विषम परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करते हुए ईश्वरीय ऊर्जा से परिपूर्ण नवरात्रि में माँ की विशेष शक्ति का अनुभव करे ।
बगलामुखी स्तोत्र के अनुसार देवी समस्त प्रकार के स्तंभन कार्यों हेतु प्रयोग मे लायी जाती हैं जैसे, अगर शत्रु वादी हो तो गूगा, छत्रपति हो तो रंक, दावानल या भीषण अग्नि कांड शांत करने हेतु, क्रोधी का क्रोध शांत करवाने हेतु,धावक को लंगड़ा बनाने हेतु, सर्व ज्ञाता को जड़ बनाने हेतु, गर्व युक्त के
गर्व भंजन करने हेतु। साधारण तौर पर व्यक्ति कितना भी अच्छा कर्म करे निंदा चर्चा करने वाले या अहित कहने वाले उस के बनेंगे ही, ऐसे परिस्थिति में देवी बगलामुखी की कृपा ही समस्त निंदको, अहित कहने वालों के मुख या कार्य का स्तंभन करती है।
*कही तीव्र वर्षा हो रही हो या भीषण अग्नि कांड हो गया हो, देवी का साधक बड़ी ही सरलता से समस्त प्रकार के कांडो का स्तंभन कर सकता है।
* बामा ख्यपा ने अपने माता के श्राद्ध कर्म में इसी प्रकार तीव्र वृष्टि का स्तंभन किया था।
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 ♦ श्री बगलामुखी देवी के दुर्लभ मंत्र :
 इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते है जैसे : 
मधु. शर्करा युक्त तिलों से होम करने पर मनुष्य वश में होते है। मधु. घृत तथा शर्करा युक्त लवण से होम करने पर आकर्षण होता है। तेल युक्त नीम के पत्तों से होम करने पर विद्वेषण होता है।हरिताल, नमक तथा हल्दी से होम करने पर शत्रुओं का स्तम्भन होता है। भय नाशक मंत्र : 
अगर आप किसी भी व्यक्ति वस्तु परिस्थिति से डरते है और अज्ञात डर सदा आप पर हावी रहता है तो देवी के भय नाशक मंत्र का जाप करना चाहिए…
ॐ ह्लीं ह्लीं ह्लीं बगले सर्व भयं हन।।
पीले रंग के वस्त्र और हल्दी की गांठें देवी को अर्पित करें। पुष्प,अक्षत,धूप दीप से पूजन करे। रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करे। दक्षिण दिशा की और मुख रखे।
♦ शत्रु नाशक मंत्र :
अगर शत्रुओं नें जीना दूभर कर रखा हो, कोर्ट कचहरी पुलिस के चक्करों से तंग हो गए हों, शत्रु चैन से जीने नहीं दे रहे, प्रतिस्पर्धी आपको परेशान कर रहे है तो देवी के शत्रु नाशक मंत्र का जाप करना चाहिए।
ॐ बगलामुखी देव्यै ह्लीं ह्रीं क्लीं शत्रु नाशं कुरु ।
नारियल काले वस्त्र में लपेट कर बगलामुखी देवी को अर्पित करे।मूर्ती या चित्र के सम्मुख गुगुल की धूनी जलाये।रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करे।मंत्र जाप के समय पश्चिम कि ओर मुख रखे।
♦ जादू टोना नाशक मंत्र :
यदि आपको लगता है कि आप किसी बुरु शक्ति से पीड़ित हैं, नजर जादू टोना या तंत्र मंत्र आपके जीवन मे जहर घोल रहा है, आप उन्नति ही नहीं कर पा रहे अथवा भूत प्रेत की बाधा सता रही हो तो देवी के तंत्र बाधा नाशक मंत्र का जाप करना चाहिए।
ॐ ह्लीं श्रीं ह्लीं पीताम्बरे तंत्र बाधाम नाशय नाशय।।
आटे के तीन दिये बनाये व देसी घी ड़ाल कर जलाएं।
कपूर से देवी की आरती करे।रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करे। मंत्र जाप के समय दक्षिण की और मुख रखे।
♦ प्रतियोगिता परीक्षा मे सफलता का मंत्र :
आपने कई बार इंटरव्‍यू या प्रतियोगिताओं को जीतने की कोशिश की होगी और आप सदा पहुँच कर हार जाते हैं, आपको मेहनत के मुताबिक फल नहीं मिलता, किसी क्षेत्र में भी सफल नहीं हो पा रहे, तो देवी के साफल्य मंत्र का जाप करे।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं बगामुखी देव्यै ह्लीं साफल्यं देहि देहि स्वाहा: ।।
बेसन का हलवा प्रसाद रूप में बना कर चढ़ाएं।देवी की प्रतिमा या चित्र के सम्मुख एक अखंड दीपक जला कर रखे।रुद्राक्ष की माला से 8 माला का मंत्र जप करे। मंत्र जाप के समय पूर्व की और मुख रखें।
♦ बच्चों की रक्षा का मंत्र :
यदि आप बच्चों की सुरक्षा को ले कर सदा चिंतित रहते हैं, बच्चों को रोगों से, दुर्घटनाओं से, ग्रह दशा से और बुरी संगत से बचाना चाहते है तो देवी के रक्षा मंत्र का जाप करना चाहिए।
ॐ हं ह्लीं बगलामुखी देव्यै कुमारं रक्ष रक्ष ।।
देवी माँ को मीठी रोटी का भोग लगायें। दो नारियल देवी माँ को अर्पित करे। रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करे। मंत्र जाप के समय पश्चिम की ओर मुख रखें।
♦ लम्बी आयु का मंत्र :
यदि आपकी कुंडली कहती है कि अकाल मृत्यु का योग है, या आप सदा बीमार ही रहते हो, अपनी आयु को ले कर परेशान हों तो देवी के ब्रह्म विद्या मंत्र का जाप करना चाहिए…
ॐ ह्लीं ह्लीं ह्लीं ब्रह्मविद्या स्वरूपिणी स्वाहा:।।
पीले कपडे व भोजन सामग्री आता दाल चावल आदि का दान करे। मजदूरों, साधुओं,ब्राह्मणों व गरीबों को भोजन खिलाये। प्रसाद पूरे परिवार में बाँटे। रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करे।
मंत्र जाप के समय पूर्व की ओर मुख रखें।
♦ बल प्रदाता मंत्र :
यदि आप बलशाली बनने के इच्छुक हो अर्थात चाहे देहिक रूप से, या सामाजिक या राजनैतिक रूप से या फिर आर्थिक रूप से बल प्राप्त करना चाहते हैं तो देवी के बल प्रदाता मंत्र का जाप करना चाहिए…
ॐ हुं हां ह्लीं देव्यै शौर्यं प्रयच्छ ।।
पक्षियों को व मीन अर्थात मछलियों को भोजन देने से देवी प्रसन्न होती है। पुष्प सुगंधी हल्दी केसर चन्दन मिला पीला जल देवी को को अर्पित करना चाहिए। पीले कम्बल के आसन पर इस मंत्र को जपे। रुद्राक्ष की माला से 7 माला मंत्र जप करे।
मंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखे।
♦ सुरक्षा कवच का मंत्र :
प्रतिदिन प्रस्तुत मंत्र का जाप करने से आपकी सब ओर रक्षा होती है, त्रिलोकी मे कोई आपको हानि नहीं पहुंचा सकता ।
ॐ हां हां हां ह्लीं बज्र कवचाय हुम देवी माँ को पान मिठाई फल सहित पञ्च मेवा अर्पित करे। छोटी छोटी कन्याओं को प्रसाद व दक्षिणा दे। रुद्राक्ष की माला से 1 माला का मंत्र जप करे।
मंत्र जाप के समय पूर्व की ओर मुख रखे ।
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श्री पित्ताम्बरा बगलामुखी रहस्य : 
( ब्रह्मास्त्र विद्या दर्शन ) बगलामुखी एक प्रचलित विद्या है ||
इसका मूल संदर्भ आगम निगम तंत्र से मिलता है इनके प्रयोग और कर्मकांड के विषय मे पुस्तक भर भर के लिखा हुआ है पर इनका रहस्य सिर्फ सिद्धो तक परम्परागत गुरु मार्गीय रह गया है। यह विज्ञानं सिर्फ गुरु के मार्ग पर जीवन समर्पित करने वालो को ही प्राप्त होता है यह देवी जिह्वा स्तम्भन कारिणी है। इसका कारण यही है के इसके साधक बनते ही यह पीतवर्ण देवी सबको पिला कर देती है यह देवी तेजोमय है इसके साधक में भी इतना तेज आ जाता है की वो इर्षा का भोग बनता है और शत्रु जैसे चीटिया हो वैसे उभर आते है। इसका कारण समजो पहले अँधेरा था वहा बहुत से जिव रेहते है पर एक दिन एक सूर्य प्रकाशमय हो गया और दुसरो ने देखा यह तो हम में से एक है यह इतना तेजोमय कैसे बन गया यह नहीं हो सकता क्यूंकि वो जो जिव थे वो खुद को उजागर नहीं कर सकते थे तो उन्होंने तेज की इर्षा शुरू करदी जैसे उल्लू सूरज की करता है। ऐसे अनेको अंधेरो में रेहने वाले जिनको विज्ञानं पता नहीं जो मानवता से ऊपर उठना नहीं चाहते ये विद्या और साधक के विरोधी बनेगे क्यूंकि वो नहीं पा सकते है पीताम्बरा गोपनीय है यह वैष्णवी विद्या है। जो श्री कुल चलाती है और बगला मुखी पित्तकाली रूप में काली कुल की सेनापति है। इसका पूरा रहस्य जानना मानो खुद को एक उचे आयाम पर ले जाना जैसा है जहा तुम सृष्टि चक्र ग्रह नक्षत्र विज्ञानं भू मंडल देव मंडल यक्ष मंडल सब से परे की सोच रखते हो यह विद्या कालचक्र को स्तम्भित कर देती है कभी कभी साधको यह लगता है की यह विद्या मे सिद्धि तुरंत क्यूँ नहीं मिलती परन्तु यह विद्या में सिद्धि तभी प्राप्त होगी जब यह विद्या धारण करने जैसी सोच रखोगे यह विद्या का नियम है निंदा से दूर रहे क्यूंकि निंदा करने वाले साधक को यह खुद ही निचे गिरा देती है वो देवी देवता के श्राप का भोगी बनता है अपनी  सत्ता से वापस गिर जायेगा देवी यही कहती है की जो जिह्वा मेरे नामस्मरण के आलावा किसी की निंदा मे बिगाड़ी उस के लिए सिद्धि कठिन है यहा पीताम्बरा का कहना उचित है माँ यही चाहेगी की तुम किसी की निंदा न करो और अगर कोई तुम्हारी करता है तो चिंता न करो क्यूंकि बगलामुखी का प्रभाव जिह्वा पर है जिसने अपनी जिह्वा को काबू मे रखा है भगवती उसकी सहाय करती है साधना काल दरम्यान कुछ ऐसे तत्व भी प्रकट होंगे जो तुम्हारा विरोध करने हेतु या पतन करने हेतु अपनी जिह्वा का पुरे जोर शोर से प्रयोजन पर यह विद्या का प्रभाव है निंदको का ज़हर उगला कर उनसे पाप करवाएगी और फिर जिह्वा को लगाम से खीच कर उसका जडमूल से नष्ट कर देगी ना वो शत्रु यहा शांति पा सकेगा नहीं परलोक में निंदा करने सुनने और करवाने से बचे इर्षा अगर यह विद्या धारण की है तो तुम इर्षा का भोग बनोगे लोग तुम्हारी इर्षा करेंगे तुम्हारे ज्ञान पे विज्ञानं पे कला पे सौन्दर्य पे धन पे वैभव पे प्रतिष्ठा पर सब पर इर्षा चालू हो जाएगी क्यूंकि इर्षा वो ही करता है जो बगलामुखी के तेज से पिला हो चूका है वो खुद उपर नही उठेगा पर इर्षा करके दुसरो के मार्ग में बाधा डालेगा यहा बात यह आएगी वो इर्शालू जितनी देर साधक की सफलता की इर्षा करेगा साधक और तेजी से सफल होगा क्यूंकि वो साधक को अपनी शक्ति मुफ्त मे दे रहा है याद रहे यह विद्या प्रयोजन षड्यंत्र कारी की खेर निकाल देती है जैसे बगुला मछली को समय आने पर चोंच में फसा लेता है वैसे ही बगलामुखी शत्रु पर नज़र रख कर समय पर अपना काम कर देती है इस विद्या का प्रचलित पद्धति गुरुगम्य है बिना गुरु इसका प्रयोजन भारी पड़ता है यह सारी विद्याओ की राजा है इसी लिए ब्रह्मास्त्र की उपाधि दी गयी है कार्तिकेय ने शिव से पूछा था बगला मुखी साधक के लक्षण कैसे होने चाहिए? और देवी को शीघ्र प्रसन्न करने का उपाय बताये
1) शिव ने यही बताया पहेले तो साधक को साधना अंतर्गत सावधान और श्रद्धावान रेहना होगा।
2) हे पुत्र में अघोरियो का सम्राट हु पर मुझे अगोरात्व यही विद्या से प्राप्त हुआ है यहाँ साधक कोई भी क्युओं न हो राजा विद्वान पंडित सबको समान रह कर आरम्भ करना होगा ।
3 ) यह विद्या उनको काम नहीं देती जो निष्क्रिय है बगलामुखी का साधक कभी भी बैठ नहीं सकता वि अपना विस्तार करेगा।
4) गुरु भक्ति पूर्ण होगी गुरु चाहे कितनी भी परीक्षा कर ले साधक कभी भी अपने विश्वास को अपनी श्रद्धा को बलवान रखे कभी कभी परीक्षा गुरु नहीं अपितु देवी का योगिनी मंडल लेती है वो साधक को उल्जा देती है और साधक के समर्पण का इम्तहान लेती है। यह साधक का कार्य धीरज से करवाएगी इसमें साधक अपनी सुजबुज खो देता है तो यह सिद्धि विपरीत परिणाम देती है यह विद्या राजविद्या है इसके हेतु से साधक को हर एक दिशा से बलवान करेगी कभी कभी जीवन में बहुत उतार देगी साधक का विश्वाश अगर पूर्ण हुआ तो यह त्रिलोक का आधिपत्य दे देगी जैसे श्री राम को मिला यह संघर्ष देगी क्योंकि हमारी सोच की दिशा बदलने के लिए अगर सोच विद्या अनुसार बन गयी तो समजो तुम्हे कुछ नहि करना पड़ेगा सब तुम्हारे हाथ मे स्वयं संचालित हो जायेगा प्रकृति आधीन हो जाएगी यश और कीर्ति सूर्य जितनी बढ़ जाएगीहा पर इसके साधक को कोई मोह नहीं रहेगा इसकी सोच यश कीर्ति पर नहीं अपितु विज्ञानं पे टिकी होगी।
5 ) इसका साधक पूर्ण कलाओ का ज्ञाता होगा यह विद्वान वेदज्ञ कवि संगीत विशारद शास्त्र हो या शस्त्र दोनो मे निपुण होगा यह विद्या निति और षट्कर्म प्रदान करेगी।
6) ब्रह्मास्त्र विद्या का विधान है की इसका पूर्ण साधक जन्म मृत्यु से परे रहेगा वो दीर्घ दर्शक होगा अंड पिंड ब्रह्मांड परे की सोच रखेगा हे शिवांश यह एक वैज्ञानिक होगा जहा नक्षत्र ग्रह तारा मंडल मन्दाकिनी आकाशगंगा सबके रहस्यों का जानकार होगा यह देवता समान विवेकी और धर्म प्रिय होगा ।
7) यह साधक मे हमेशा नयी सोच नयी रचना नया विकास आद्यात्मिक सिद्धिया मन्त्र तंत्र यंत्र अघोर एवम सृष्टि के सभी आम्नायो का ज्ञाता होगा वो एक कवी और ऋषि कइ तरह अपना साहित्य और कलाओ में निपुण होगा ब्रह्मास्त्र तब काम करता है। जब असम्भव शब्द का निर्माण होता है क्यूंकि यही संभव करता है क्यूंकि जबजब असम्भवता ने जन्म लिया तब तब ब्रह्मास्त्र ने उसे संभव किया है। इसका साधक हमेशा आनंद में उत्साह में नई रचना में नए विचार में एवम ब्रह्म जिज्ञासा में लीन रहेगा वो कभी भी क्षणभंगुर चीजों की प्राप्ति नहीं करेगा नहीं। वो संग्रह मे विश्वास रहेगा वो लुटाता रहेगा क्यूंकि उसकी सोच अनंत जीवन की होगी ब्रह्मास्त्र को साधने हेतु साधक को खुद के भीतर एक अणु की तरह स्थिर रेहना होगा न्युक्लिअर वेपन इस लिए कहा गया है। यह अणु की शक्ति रखता है जो खुद के भीतर स्थिर रहेगा ध्यान में रहेगा अपनी शक्तिओ को काम क्रोध मद मोह निंदा इर्षा में नहीं बहने देगा वो सिर्फ गुरु ज्ञान आधीन अपनी उन्नति में लींन रहेगा। जिस हेतु से वो एक आर्षद्रष्टा बन जायेगा वो ब्रह्मांडो के सर्जन और विसर्जन को देखेगा वो काल चक्र की गति को देखेगा उसके लिये वो दुसरो के कहे गए विचारे गए शब्दो से या मायाजाल से कभी भी भ्रमित नहीं होगा वो तुच्छ विचार वो तुच्छ भौतिक वस्तु कोई मायने नहि रखेगी बगलामुखी का साधक कभी भी किसीका दमन नहीं करता नाही किसीको दंडित करता है बस वो तो सबको साथ लेके आगे बढ़ता है। अगर स्वार्थी हो और यह विद्या स्वार्थ के लिए प्राप्त कर रहे हो खुद को क्या चाहिए इस पर ध्यान है तो यह विद्या निम्न फल देगी अपितु सृष्टि को क्या चाहिए ब्रह्मांड को क्या चाहिए परमात्मा को क्या चाहिए यह सोच लिया तो यह शक्ति वशीभूत हो जाएगी इसे ब्रह्मास्त्र पर आरूढ़ होना कहते है। यह परा शक्ति तभी अपनी कृपा करती है जबी साधक सब कुछ खो कर परब्रह्म स्वरुपा बगलामुखीका अनन्य भक्त हो जाये याद रहे यह विद्या सर्व श्रेष्ठ है यह असामान्य है इसी हेतु इसका साधक भी सर्वश्रेष्ठ और असमान्य होगा यह विद्या का मूल उद्देश्य जगत को स्थिर करके विकास करना है। जैसे चन्द्र से मंगल मंगल से गुरु गुरु से शनि हमे और भी सृष्टि समभावना में जिना है और भी ब्रह्मांडो के रहस्य को समजना है। अगर हम तुच्छ इच्छाओ के लिये रुक गये तो विकास नहीं होगा जिन्होंने यह देख लिया समज लिया और पा लिया है वो अवतार कहे गये या संत येक सफल वैज्ञानिक आधार हमारी सोच पर है हम कितना बेहतर चाहते है।
।। ब्रह्मास्त्र विद्या सर्वोपरी।।
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भगवती बगलामुखी की पूजा हेतु चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर भगवती बगलामुखी का चित्र स्थापित करे। इसके बाद आचमन कर हाथ धोएं। आसन पवित्रीकरण, स्वस्तिवाचन, दीप प्रज्जवलन के बाद हाथ में पीले चावल, हरिद्रा, पीले फूल और दक्षिणा लेकर इस प्रकार संकल्प करें-
००संकल्प००
ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य……(अपने गोत्र का नाम) गोत्रोत्पन्नोहं ……(नाम) मम सर्व शत्रु स्तम्भनाय बगलामुखी जप पूजनमहं करिष्ये। तदगंत्वेन अभीष्टनिर्वध्नतया सिद्ध्यर्थं आदौ: गणेशादयानां पूजनं करिष्ये।
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♦ इसके पश्चात आवाहन करना चाहिए :
~ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखी सर्वदृष्टानां मुखं स्तम्भिनि सकल मनोहारिणी अम्बिके इहागच्छ सन्निधि कुरू सर्वार्थ साधय साधय स्वाहा।
•••अब देवी का ध्यान करे इस प्रकार :
सौवर्णामनसंस्थितां त्रिनयनां पीतांशुकोल्लसिनीम्
हेमावांगरूचि शशांक मुकुटां सच्चम्पकस्रग्युताम्
हस्तैर्मुद़गर पाशवज्ररसना सम्बि भ्रति भूषणै
व्याप्तांगी बगलामुखी त्रिजगतां सस्तम्भिनौ चिन्तयेत्।
••इसके बाद भगवान श्रीगणेश का पूजन करे।  ••नीचे लिखे मंत्रों से गौरी आदि षोडशमातृकाओं का पूजन करे-
गौरी पद्मा शचीमेधा सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोक मातर:।।
धृति: पुष्टिस्तथातुष्टिरात्मन: कुलदेवता।
गणेशेनाधिकाह्योता वृद्धौ पूज्याश्च षोडश।।
••इसके बाद गंध, चावल व फूल अर्पित करें तथा कलश तथा नवग्रह का पंचोपचार पूजन करें। तत्पश्चात इस मंत्र का जप करते हुए देवी बगलामुखी का आवाह्न करें- ~नमस्ते बगलादेवी जिह्वा स्तम्भनकारिणीम्। भजेहं शत्रुनाशार्थं मदिरा सक्त मानसम्।।
••आवाह्न के बाद उन्हें एक फूल अर्पित कर आसन प्रदान करें और जल के छींटे देकर स्नान करवाएं व इस प्रकार पूजन करें-
गंध- ऊँ बगलादेव्यै नम: गंधाक्षत समर्पयामि। का उच्चारण करते हुए बगलामुखी देवी को पीला चंदन लगाएं और पीले फूल अर्पित करें। पुष्प- ऊँ बगलादेव्यै नम: पुष्पाणि समर्पयामि। मंत्र का उच्चारण करते हुए बगलामुखी देवी को पीले फूल चढ़ाएं। धूप- ऊँ बगलादेव्यै नम: धूपंआघ्रापयामि। मंत्र का उच्चारण करते हुए बगलामुखी देवी को धूप दिखाएं। दीप- ऊँ बगलादेव्यै नम: दीपं दर्शयामि। मंत्र का उच्चारण करते हुए बगलामुखी देवी को दीपक दिखाएं। नैवेद्य- ऊँ बगलादेव्यै नम: नैवेद्य निवेदयामि। मंत्र का उच्चारण करते हुए बगलामुखी देवी को पीले रंग की मिठाई का भोग लगाएं।
••अब इस प्रकार प्रार्थना करे-
~जिह्वाग्रमादाय करणे देवीं, वामेन शत्रून परिपीडयन्ताम्।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि।।
••अब क्षमा प्रार्थना करे-
~आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।
अंत मे माता बगलामुखी से ज्ञात-अज्ञात शत्रुओं से मुक्ति की प्रार्थना करें।
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••बगलामुखी साधना की सावधानियां :-
1. बगलामुखी साधना के दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्यधिक आवश्यक है।
2. इस क्रम में स्त्री का स्पर्श, उसके साथ किसी भी प्रकार की चर्चा आदि निषेध है।
3. साधना के दौरान माँ साधक को डराती भी है। साधना के समय विचित्र आवाजें और खौफनाक आभास भी हो सकते हैं इसीलिए जिन्हें काले अंधेरों और पारलौकिक ताकतो से डर लगता है, उन्हें यह साधना नहीं करनी चाहिए।
4. साधना से पहले आपको अपने गुरू का ध्यान जरूर करना चाहिए।
5. मंत्रों का जाप शुक्ल पक्ष में ही करें। बगलामुखी साधना के लिए नवरात्रि सबसे उपयुक्त है।
6. उत्तर की ओर देखते हुए ही साधना आरंभ करे।
7. मंत्र जाप करते समय अगर आपकी आवाज अपने आप तेज हो जाए तो चिंता ना करे।
8. जब तक आप साधना कर रहे है तब तक इस बात की चर्चा किसी से भी ना करे।
9. साधना करते समय अपने आसपास घी और तेल के दिये जलाएं।
10. साधना करते समय आपके वस्त्र और आसन पीले रंग का होना चाहिए।
by Pandit Dayanand Shastri.

शारदीय नवरात्री मे कैसे करे माँ की आराधना?

भारतीय समाज मे नवरात्रो का और विशेष रूप से हिन्दू समुदाय मे विशेष महत्व है। ‘नवरात्र’ को विश्व की आदि शक्ति दुर्गा की पूजा का पावन पर्व माना गया है। शारदीय नवरात्र प्रतिपदा से शुरू होकर नवमी तक चलते है और शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा की प्रतिमाएं बनाकर प्रतिपदा से नवमी तक उनकी बड़ी निष्ठा से पूजा की जाती है व व्रत रखा जाता है तथा दशमी के दिन इन प्रतिमाओं को गंगा या अन्य पवित्र नदियों मे विसर्जित कर दिया जाता है। नवरात्र नवशक्तियों से युक्त हैं और हर शक्ति का अपना-अपना अलग महत्व है।
इन  नवरात्र मे कन्या या कुमारी पूजन किया जाता है. कुमारी पूजन मे दस वर्ष तक की कन्याओं का विधान है. नवरात्रि के पावन अवसर पर अष्टमी तथा नवमी के दिन कुमारी कन्याओं का पूजन किया जाता है । नौ दिनों तक चलने नवरात्र पर्व मे माँ दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा का विधान है।
नवरात्र के इन प्रमुख नौ दिनो मे लोग नियमित रूप से पूजा पाठ और व्रत का पालन करते हैं । दुर्गा पूजा के नौ दिन तक देवी दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ इत्यादि धार्मिक किर्या पौराणिक कथाओं मे शक्ति की अराधना का महत्व व्यक्त किया गया है। इसी आधार पर आज भी माँ दुर्गा जी की पूजा संपूर्ण भारत वर्ष मे बहुत हर्षोउल्लास के साथ की जाती है। वर्ष मे दो बार की जाने वाली दुर्गा पूजा एक चैत्र माह मे और दूसरा आश्विन माह मे की जाती है।
चैत्र नवरात्र पूजन का आरंभ घट स्थापना से शुरू हो जाता है। शुक्ल पक्षकी प्रतिपदा तिथि के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है। व्रत का संकल्प लेने के पश्चात मिटटी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है। इसी वेदी पर घट स्थापित किया जाता है। घट के ऊपर कुल देवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन किया जाता है तथा “दुर्गा सप्तशती” का पाठ किया जाता है। पाठ पूजन के समय दीप अखंड जलता रहना चाहिए। दुर्गा पूजा के साथ इन दिनों मे तंत्र और मंत्र के कार्य भी किये जाते है। बिना मंत्र के कोई भी साधाना अपूर्ण मानी जाती है।
हर व्यक्ति को सुख -शान्ति पाने के लिये किसी न किसी ग्रह की उपासना करनी ही चाहिए। माता के इन नौ दिनो मे ग्रहों की शान्ति करना विशेष लाभ देता है। इन दिनों मे मंत्र जाप करने से मनोकामना शीघ्र पूरी होती है। नवरात्रे के पहले दिन माता दुर्गा के कलश की स्थापना कर पूजा प्रारम्भ की जाती है। नवरात्र मे देवी की साधना और अध्यात्म का अद्भुत संगम होता है। देवी दुर्गा की स्तुति , कलश स्थापना, सुमधुर घंटियों की आवाज, धूप-बत्तियों की सुगंध- नौ दिनों तक चलने वाला आस्था और विश्वास का अद्भुत त्यौहार है। नवरात्री का पर्व वर्ष मे दो बार मनाया जाता है। एक चैत्र माह मे, तो दूसरा आश्विन माह मे। आश्विन महीने की नवरात्र मे रामलीला, रामायण, भागवत पाठ, अखंड कीर्तन जैसे सामूहिक धार्मिक अनुष्ठान होते है। यही वजह है कि नवरात्र के दौरान हर कोई एक नए उत्साह और उमंग से भरा दिखाई पड़ता है। देवी दुर्गा की पवित्र भक्ति से भक्तों को सही राह पर चलने की प्रेरणा मिलती है। इन नौ दिनों मे मानव कल्याण मे रत रहकर, देवी के नौ रुपों की पूजा की जाय तो देवी का आशीर्वाद मिलता है और मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
तंत्र-मंत्र मे रुचि रखने वाले व्यक्तियो के लिये यह समय ओर भी अधिक उपयुक्त रहता है। गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनो मे माता की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियो को जाग्रत करते है। इन दिनो मे साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है। मां अपने भक्तों को उनकी साधना के अनुसार फल देती है. इन दिनों मे दान पुण्य का भी बहुत महत्व कहा गया है। नवरात्रोंका स्वास्थ्य की दृष्ट से भी बड़ा महत्व है। पित्त को और शरीर को शांत करने वाली सब्जियां जा रही  होती है तथा शरीर को एक बदलाव के दौर से गुजरना पड़ता है। इसलिए इन नवरात्रों मे रखे गए व्रत और दूध व फलाहार का बहुत महत्व है। जो लोग सही रुप से व्रत रखते है, उन्हे मौसम मे बदलाव के कारण साधारणतया, सर्दी, खांसी व कफ और पित्त की समस्या नहीं होती।
।।शास्त्र -वचन ।।
स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्तयर्थे प्राणसंकटे ।
गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सितम् ।।
अर्थ
-नौ स्थानों पर असत्य निन्दनीय नहीं है ।1-स्त्रियों के प्रसन्न करने के लिए 2-हा-परिहास मे 3-विवाह मे 4-कन्या की प्रशंसा मे 5-आजीविका की रक्षा के लिए 6-प्राणसंकट उपस्थित होने पर 7-गौ रक्षार्थ 8-ब्राह्मण के हित के लिए 9-किसी को मृत्यु से वचाने के लिए।

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♦ इस नवरात्री मे माँ भगवती की पूजा करके उन्हें प्रसन्न करके सुख सम्पदा ऐश्वर्य की प्राप्ति की जा सकती है। इसका उल्लेख दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्त्रोत के श्लोक संख्या 18,19,20 मे किया गया है।
♦ माँ के भक्त, श्री दुर्गा अष्टोत्तरशत नाम को भोज पत्र मे लिख कर ताबीज़ मे भी धारण कर सकते हैं ।
♦ प्रथम श्लोक मे दिए सती से लेकर श्लोक संख्या 15 तक लिखे।
♦ लिखने की स्याही की सामग्री स्तोत्र के अंत मे ही वर्णित है।
शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं- कमलानने! अब मै अष्टोत्तरशत (108) नाम कावर्णन करता हूँ, सुनो; जिसके प्रसाद (पाठ या श्रवण) मात्र से परम साध्वी भगवतीदुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं॥1॥सती (दक्ष की बेटी), साध्वी (आशावादी), भवप्रीता (भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली), भवानी (ब्रह्मांड की निवास), भवमोचनी (संसारबंधनों से मुक्त करने वाली), आर्या, दुर्गा, जया, आद्य (शुरुआत की वास्तविकता), त्रिनेत्र (तीन आँखों वाली), शूलधारिणी, पिनाकधारिणी (शिव का त्रिशूल धारण करने वाली), चित्रा (सुरम्य), चण्डघण्टा (प्रचण्ड स्वर से घण्टानाद करने वाली), महातपा: (भारी तपस्या करने वाली), मन: (मनन-शक्ति), बुद्धि: (बोधशक्ति), अहंकारी (अहंताका आश्रय), चित्तरूपा (वह जो सोच की अवस्था मे है), चिता, चिति: (चेतना), सर्वमन्त्रमयी, सत्ता (सत्-स्वरूपा, जो सब से ऊपर है), सत्यानन्दस्वरूपिणी (अनन्त आनंद का रुप), अनन्ता (जिनके स्वरूप का कहीं अन्त नहीं), भाविनी (सबको उत्पन्न करने वाली, ख़ूबसूरत औरत), भाव्या (भावना एवं ध्यान करने योग्य), भव्या (कल्याणरूपा, भव्यता के साथ), अभव्या (जिससे बढकर भव्य कुछ नहीं), सदागति (हमेशा गति मे, मोक्ष दान), शाम्भवी (शिवप्रिया, शंभू की पत्नी), देवमाता, चिन्ता, रत्‍‌नप्रिया (गहने से प्यार), सर्वविद्या (ज्ञान का निवास), दक्षकन्या (दक्ष की बेटी), दक्षयज्ञविनाशिनी,अपर्णा (तपस्या के समय पत्ते को भी न खाने वाली), अनेकवर्णा (अनेक रंगों वाली), पाटला (लाल रंग वाली), पाटलावती (गुलाब के फूल या लाल परिधान या फूल धारण करने वाली), पट्टाम्बरपरीधाना (रेशमी वस्त्र पहनने वाली), कलमञ्जररञ्जिनी (मधुर ध्वनि करने वाले मञ्जीर/पायल को धारण करके प्रसन्न रहने वाली), अमेयविक्रमा (असीम पराक्रमवाली), क्रूरा (दैत्यों के प्रति कठोर), सुन्दरी, सुरसुन्दरी, वनदुर्गा, मातङ्गी, मतङ्गमुनिपूजिता, ब्राह्मी, माहेश्वरी, इंद्री, कौमारी, वैष्णवी, चामुण्डा, वाराही, लक्ष्मी:, पुरुषाकृति: (वह जोपुस्र्ष का रूप ले ले), विमला (आनन्द प्रदान करने वाली), उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, नित्या, बुद्धिदा, बहुला, बहुलप्रेमा, सर्ववाहनवाहना, निशुम्भशुम्भहननी, महिषासुरमर्दिनि, मधुकैटभहंत्री, चण्डमुण्डविनाशिनि, सर्वासुरविनाशा, सर्वदानवघातिनी, सर्वशास्त्रमयी, सत्या, सर्वास्त्रधारिणी, अनेकशस्त्रहस्ता, अनेकास्त्रधारिणी, कुमारी, एककन्या, कैशोरी, युवती, यति, अप्रौढा (जो कभी पुराना ना हो), प्रौढा (जो पुराना है), वृद्धमाता, बलप्रदा, महोदरी, मुक्तकेशी, घोररूपा, महाबला, अग्निज्वाला, रौद्रमुखी, कालरात्रि:, तपस्विनी, नारायणी, भद्रकाली, विष्णुमाया, जलोदरी, शिवदूती, करली, अनन्ता (विनाशरहिता), परमेश्वरी, कात्यायनी, सावित्री, प्रत्यक्षा, ब्रह्मवादिनी ॥2-15॥देवी पार्वती! जो प्रतिदिन दुर्गाजी के इस अष्टोत्तरशतनाम का पाठ करता है, उसके लिये तीनों लोकों मे कुछ भी असाध्य नहीं है ॥16॥ वह धन, धान्य, पुत्र, स्त्री, घोडा, हाथी, धर्म आदि चार पुरुषार्थ तथा अन्त मे सनातन मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है ॥17॥ कुमारी का पूजन और देवी सुरेश्वरी का ध्यान करके पराभक्ति के साथ उनका पूजन करे, फिर अष्टोत्तरशत नाम का पाठ आरम्भ करे ॥18॥ देवि! जो ऐसा करता है, उसे सब श्रेष्ठ देवताओं से भी सिद्धि प्राप्त होती है। राजा उसके दास हो जाते हैं। वह राज्यलक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है ॥19॥ गोरोचन, लाक्षा, कुङ्कुम, सिन्दूर, कपूर, घी (अथवा दूध), चीनी और मधु- इन वस्तुओं को एकत्र करके इनसे विधिपूर्वक यन्त्र लिखकर जो विधिज्ञ पुरुष सदा उस यन्त्र को धारण करता है, वह शिव के तुल्य (मोक्षरूप) हो जाता है ॥20॥ भौमवती अमावास्या की आधी रात मे, जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र पर हों, उस समय इस स्तोत्र को लिखकर जो इसका पाठ करता है, वह सम्पत्तिशाली होता है ॥21॥
ये स्वयं महादेव के मुखकमल से वर्णित महासिद्ध प्रयोग है अतः इसे करने मे संशय का कोई स्थान नहीं है।
♦ साधक को नवरात्र मे क्या करना चाहिए ?
♦यदि किसी कारण विशेष के लिए पूजा कर रहे हो तो स्वयं को श्रृंगार, मौजमजा, काम से दूर करें रखे। निश्चित समय मे पूजा पाठ करे तथा निश्चित संख्या मे जप करे।
♦ जप अवश्य करे। जप के समय मुंह पूर्व या दक्षिण दिशा मे हो।
♦ पूजा के लिए लाल फूल, रोली, चंदन, फल दूर्वा, तुलसीदल व कोई प्रसाद अवश्य ले।
♦ नवरात्र के प्रथम दिन देवी का आवाह्न करें और नियमित पूजा करे।
♦ दुर्गा सप्तशती का पाठ प्रतिदिन करें और इसका नियम समझ कर करे।

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♦ माँ भगवती ऐसे होगी प्रसन्न—-माँ की कृपा प्राप्ति के सरल उपाय : नवरात्रि विशेष—2016
नवरात्रि मे माँ दुर्गा की पूजा विशेष फलदायी है। नवरात्रि ही एक ऐसा पर्व है जिसमे महाकाली, महालक्ष्मी और माँ सरस्वती की साधना करके जीवन को सार्थक किया जा सकता है। ऐसी माँ दुर्गा की कृपा प्राप्ति के लिए कुछ सरल उपाय नीचे दिए जा रहे है।
♦ माँ दुर्गा को तुलसी दल और दूर्वा चढ़ाना निषिद्ध है।
♦ अपने घर के पूजा स्थान मे भगवती दुर्गा, भगवती लक्ष्मी और माँ सरस्वती के चित्रों की स्थापना करके उनको फूलों से सजाकर पूजन करे।
♦ नौ दिनों तक माता का व्रत रखें। अगर शक्ति न हो तो पहले, चौथे और आठवें दिन का उपवास अवश्य करे। माँ भगवती की कृपा जरूर प्राप्त होगी।
♦ नौ दिनों तक घर मे माँ दुर्गा के नाम की ज्योत अवश्‍य जलाएँ।
♦ अधिक से अधिक नवार्ण मंत्र ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै’ का जाप अवश्‍य करे।
♦ इन दिनो मे दुर्गा सप्तशती का पाठ अवश्‍य करे।
♦ पूजन मे हमेशा लाल रंग के आसन का उपयोग करना उत्तम होता है। आसन लाल रंग का और ऊनी होना चाहिए।
♦ लाल रंग का आसन न होने पर कंबल की आसन इतनी मात्रा मे बिछाकर उस पर लाल रंग का दूसरा कपड़ा डालकर उस पर बैठकर पूजन करना चाहिए।
♦ पूजा पूरी होने के पश्‍चात आसन को प्रणाम करके लपेटकर सुरक्षित जगह पर रख
दीजिए।
♦ पूजा के समय लाल वस्त्र पहनना शुभ होता है। लाल रंग का तिलक भी जरूर लगाएँ। लाल कपड़ों से आपको एक विशेष ऊर्जा की प्राप्ति होती है।
♦ माँ को प्रात: काल के समय शहद मिला दूध अर्पित करें। पूजन के पास इसे ग्रहण करने से आत्मा व शरीर को बल प्राप्ति होती है। यह एक उत्तम उपाय है।
♦ आखिरी दिन घर मे रखीं पुस्तके, वाद्य यंत्रो, कलम आदि की पूजा अवश्य करे।
♦ अष्‍टमी व नवमी के दिन कन्या पूजन करे।
♦ उपरोक्त नियमों का पालन कर नौ दुर्गा को प्रसन्न करे।

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♦ माँ दुर्गा के नौ नैवेद्य–नौ दिन का विशेष प्रसाद:
♦ प्रथम नवरात्रि के दिन माँ के चरणों मे गाय का शुद्ध घी अर्पित करने से आरोग्य का आशीर्वाद मिलता है। तथा शरीर निरोगी रहता है।
♦दूसरे नवरात्रि के दिन माँ को शक्कर का भोग लगाएँ व घर मे सभी सदस्यों को दें। इससे आयु वृद्धि होती है।
♦तृतीय नवरात्रि के दिन दूध या दूध से बनी मिठाई खीर का भोग माँ को लगाकर ब्राह्मण को दान करें। इससे दुखों की मुक्ति होकर परम आनंद की प्राप्ति होती
है।
♦माँ दुर्गा को चौथी नवरात्रि के दिन मालपुए का भोग लगाएँ। और मंदिर के ब्राह्मण को दान दें। जिससे बुद्धि का विकास होने के साथ-साथ निर्णय शक्ति बढ़ती है।
♦ नवरात्रि के पाँचवें दिन माँ को केले का नैवैद्य चढ़ाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
♦ छठवीं नवरात्रि के दिन माँ को शहद का भोग लगाएँ। जिससे आपके आकर्षण शक्त्ति मे वृद्धि होगी।
♦ सातवें नवरात्रि पर माँ को गुड़ का नैवेद्य चढ़ाने व उसे ब्राह्मण को दान करने से शोक से मुक्ति मिलती है एवं आकस्मिक आने वाले संकटों से रक्षा भी होती है।
♦ नवरात्रि के आठवें दिन माता रानी को नारियल का भोग लगाएँ व नारियल का दान कर दे। इससे संतान संबंधी परेशानियो से छुटकारा मिलता है।
♦ नवरात्रि की नवमी के दिन तिल का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान दे। इससे मृत्यु भय से राहत मिलेगी। साथ ही अनहोनी होने की‍ घटनाओं से बचाव भी होगा।

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♦ नवदुर्गा के आसान सिद्ध मंत्र –नवरात्रि विशेष :
दुर्गा सप्तशती मे कुछ ऐसे सिद्ध मंत्र है, जिनके द्वारा हम अपनी मनोकामना की पूर्ति कर सकते है।
कैसे करे जाप :- नवरात्रि के प्रतिपदा के दिन घटस्थापना के बाद संकल्प लेकर प्रातः स्नान करके दुर्गा की मूर्ति या चित्र की पंचोपचार या दक्षोपचार या षोड्षोपचार से गंध, पुष्प, धूप दीपक नैवेद्य निवेदित कर पूजा करें। मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखें।
शुद्ध-पवित्र आसन ग्रहण कर रुद्राक्ष, तुलसी या चंदन की माला से मंत्र का जाप एक माला से पाँच माला तक पूर्ण कर अपना मनोरथ कहें। पूरी नवरात्रि जाप करने से मनोवांच्छित कामना अवश्य पूरी होती है।
उपरोक्त सारे मंत्र विधिनुसार करने पर मनुष्‍य अपने पापो और कष्‍टो को दूर करके माता के आशीर्वाद का पात्र बन जाता है। नवरात्रि मे संयमपूर्वक की गई प्रार्थना और भक्ति माता स्वीकार करती है और साथ ही अपने भक्तों के कष्‍टों का निवारण करते हुए उन्हे मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाती है।
♦सर्वकल्याण के लिए :
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्येत्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुऽते॥
♦ आरोग्य एवं सौभाग्य प्राप्ति के लिए :
देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि मे परमं सुखम्‌।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि॥
 ♦ बाधा मुक्ति एवं धन-पुत्रादि प्राप्ति के लिए :
सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धन धान्य सुतान्वितः।
मनुष्यों मत्प्रसादेन भवष्यति न संशय॥
♦ सुलक्षणा पत्नी प्राप्ति के ‍‍‍लिए :
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसारसागस्य कुलोद्‍भवाम्।।
♦ दरिद्रता नाश के लिए :
दुर्गेस्मृता हरसि भतिमशेशजन्तो: स्वस्थैं: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दरिद्रयदुखभयहारिणी कात्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता।।
♦ शत्रु नाश के लिए :
ॐ ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्‍टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वाम् कीलय बुद्धिम्विनाशाय ह्रीं ॐ स्वाहा।।
♦ सर्वविघ्ननाशक मंत्र :
सर्वबाधा प्रशमनं त्रेलोक्यस्यखिलेशवरी।
एवमेय त्वया कार्य मस्माद्वैरि विनाशनम्‌॥
♦ ऐश्वर्य प्राप्ति एवं भय मुक्ति मंत्र : 
ऐश्वर्य यत्प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्य सम्पदः।
शत्रु हानि परो मोक्षः स्तुयते सान किं जनै॥
♦विपत्तिनाशक मंत्र :
शरणागतर्दिनार्त परित्राण पारायणे।
सर्वस्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोऽतुते॥
♦ स्वप्न मे कार्य-सिद्धि के लिए : 
दुर्गे देवी नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।
मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय।।

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♦ भक्ति भाव से नवरात्रि मनाएँ…नवरात्रि के पवित्र दिनो का पूजन-विधान :
वैदिक गंथों मे वर्णन है कि इस वसुधा को बचाएँ रखने के लिए युगों से देव व दानवो मे ठनी रही। देवता जो कि परोपकारी, कल्याणकारी, धर्म व भक्तों के रक्षक है। वहीं दानव अर्थात्‌ राक्षस इसके विपरीत हैं। इसी क्रम मे जब रक्तबीज, महिषासुर जैसे दैत्यों ने अपनी ताकत के अभिमान मे अत्याचार कर धरती को पीड़ित करने लगे तो देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन कर उसे विविध प्रकार के अमोघ अस्त्र प्रदान किए।
जो आदिशक्ति माँ दुर्गा के नाम से संपूर्ण ब्रह्मांड मे व्याप्त हुईं। भक्तो की रक्षा व देव कार्य अर्थात्‌ कल्याण के लिए भगवती दुर्गा ने नौ दिनों मे नौ रूपों जयंती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा को प्रकट किया। जिन्होंने नौ दिनों तक महाभयानक युद्ध कर शुंभ-निशुंभ, रक्तबीज आदि अनेकों दैत्यों का वध कर दिया। उन्हीं देवियों की आराधना नौ दिनों तक विशेष पवित्रता से की जाती है। नौ देवियों मे प्रथम श्री शैलपुत्री, द्वितीय श्री ब्रह्मचारिणी, तृतीय श्री चंद्रघंटा, चतुर्थ श्री कुष्मांडा, पंचम श्री स्कंदमाता, षष्ठम श्री कात्यायनी, सप्तम श्री कालरात्रि, अष्टम श्री महागौरी, नवम श्री सिद्धिदात्री की पूजन व हवनादि यज्ञ क्रियाओं का आयोजन किया जाता है।
नवरात्रो मे रंगो का विशेष महत्व है, रंग प्रत्येक व्यक्ति को बड़ी तीव्रता से प्रभावित करते है। इसलिए पहले नवरात्रि मे सफेद व लाल रंग का प्रयोग व कपड़े शुभ माने गए है। दूसरे मे केशरिया, पीच व हल्का पीला रंग, तीसरे मे लाल, चौथे मे नीला-सफेद व केशरिया रंग, पाँचवे मे हरा, लाल, सफेद, छठे मे लाल-सफेद, सातवें मे नीला-लाल-सफेद, आठवें मे लाल-केशरिया-पीला-सफेद-गुलाबी, तथा नौवें दिन लाल, सफेद रंग बहुत अच्छे माने जाते है। पूजन के पूर्व जौ बोने का विशेष फल होता है। पाठ करते समय बीच मे बोलना या फिर बंद करना अच्छा नहीं है। ऐसा करना ही पड़े तो पाठ का आरम्भ पुनः करें। पाठ मध्यम स्वर व सुस्पष्ट, शुद्ध चित्त होकर करें। पाठ संख्या का दशांश हवनादि करने से इच्छित फल प्राप्त होता है। दूर्वा (हरी घास) माँ को नहीं चढ़ाई जाती है। नवरात्रों मे पहले, अंतिम और पूरे नौ दिनों का व्रत अपनी सामर्थ्य व क्षमता के अनुसार रखा जा सकता है।
नवरात्रों के व्रत का पारण (व्रत खोलना) दशमी मे करना अच्छा माना गया है यदि नवमी की वृद्धि हो तो पहली नवमी को उपवास करने के पश्चात्‌ दूसरे दसवें दिन पारण करने का विधान शास्त्रों मे मिलता है। नौ कन्याओ का पूजन कर उन्हें श्रद्धा के साथ भोजन व दक्षिणा देना अत्यंत श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार भक्त अपना ऐश्वर्य बढ़ाने हेतु सर्वशक्ति रूपा माँ दुर्गा की अर्चना कर सकते है।
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♦ नवग्रहों की पीड़ा दूर करे दुर्गा :
शक्ति एवं भक्ति के साथ सांसारिक सुखों को देने के लिए वर्तमान समय मे यदि कोई देवता है। तो वह एक मात्र देवी दुर्गा ही हैं। सामान्यतया समस्त देवी-देवता ही पूजा का अच्छा परिणाम देते है। किन्तु कलियुग मे दुर्गा एवं गणेश ही पूर्ण एवं तत्काल फल देने वाले हैं। कहा भी है- ‘कलौ चण्डी विनायकौ।’
नवग्रहों की पीड़ा एवं दैवी आपदाओं से मुक्ति का एक मात्र साधन देवी की आराधना ही है। वर्तमान समय मे कालसर्प एवं मांगलिक दोष के अलावा कुछ दोष ऐसे भी है। जिनकी शान्ति सम्भवतः अन्य किसी साधना अथवा पूजा से कठिन है। जैसे अवतंष योग। जब कुंडली मे नीच शनि, निर्बल गुरु एवं मंगल से किसी तरह का संयोग बनता है।तब व्यवसाय एवं नौकरी दोनों ही प्रभावित होते हैं। इसी प्रकार जब कुंडली मे राहु एवं चन्द्रमा अपोक्लिम अथवा पणफर भाव मे लग्नेश अथवा नवमेश के साथ अस्तगत अथवा निर्बल होते हैं। तब वक्रदाय योग होता है। विवाह का न होना अथवा विवाह होकर भी टूट जाना अथवा तलाक आदि की स्थिति उत्पन्न होती है।
बुध अथवा सूर्य के साथ गुरु का छठे, आठवे अथवा बारहवे भाव मे होकर उच्चगत मंगल से दृष्ट होना रुदाग्र योग बनाता है। जिससे बच्चे पैदा न होना, अथवा बच्चा होकर मर जाना आदि पीड़ा होती है। ऐसी स्थिति मे दुर्गा तंत्र मे आए वर्णन के अनुसार देवी का अनुष्ठान शत-प्रतिशत परिणाम देने वाला होता है यद्यपि इसका वर्णन शक्ति संगम तंत्र, देवी भागवत, तंत्र रहस्य तथा दक्षिण भारत का प्रधान ग्रंथ ‘वलयक्कम’ मे भी बहुत अच्छी तरह से किया गया है। जैसे वृषभ राशि वालों को यदि कालसर्प की पीड़ा हो तो कंचनलता के पाँच पत्ते लेकर उन पर लाल चंदन का लेप करें। अपने सिर के एक बाल को धीरे से उखाड़ कर एक पत्ते पर रख कर उसे शेष पाँचों पत्तो से उलटा कर ढँक दे।
पाँच सेर गाय का दूध लेकर उसमे तिन्ने के चावल का खीर बनाएँ। खीर को पाँच भाग मे बाँट केले के पत्ते पर रख ले। शेष बचे खीर को अलग बर्तन मे रख ले ध्यान रहे इस कार्य मे या तो मात्र पत्तों का प्रयोग करे, अथवा ताँबे का बर्तन प्रयोग मे लावें। अन्य कोई धातु प्रयुक्त नहीं हो सकती है। तथा उन पर दुर्गा देवी के नवार्ण मंत्र का 133 बार पाठ करते हुए 133 बार लौंग के फूलयुक्त दूध की हल्की पतली धार के साथ अभिषेक करें। 27वें दिन परिणाम सामने होगा।
तांत्रिक ग्रन्थों मे यह बताया गया है कि नवदुर्गा नवग्रहों के लिए ही प्रवर्तित हुईं हैं—
‘नौरत्नचण्डीखेटाश्च जाता निधिनाह्ढवाप्तोह्ढवगुण्ठ देव्या।’
अर्थात् नौ रत्न, नौ ग्रहों की पीड़ा से मुक्ति, नौ निधि की प्राप्ति, नौ दुर्गा के अनुष्ठान से सर्वथा सम्भव है। भगवान राम ने भी इसके प्रभाव से प्रभावित होकर अपनी दश अथवा आठ नहीं बल्कि नवधा भक्ति का ही उपदेश दिया है।
ध्यान रहे आज के वैज्ञानिक भी अपने सम्पूर्ण खोज के बाद इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रौन इन तीन तत्वों के प्रत्येक के अल्फा,बीटा तथा गामा तीन-तीन किरणों के भेद से 3-3 अर्थात 9 किरणों को ही प्राप्त किया है। किन्तु ग्रह व्यवस्था, तांत्रिक ग्रन्थों मे इसका क्रम निम्न प्रकार बताया गया है। सूर्यकृत पीड़ा की शान्ति के लिए कात्यायनी, चन्द्रमा के लिए चन्द्रघण्टा, मंगल के लिए शैलपुत्री, बुध के लिए स्कन्दमाता, गुरु के लिए ब्रह्मचारिणी, शुक्र के लिए महागौरी, शनि के लिए कालरात्रि, राहु के लिए कूष्माण्डा तथा केतु के लिए सिद्धिदात्री। अर्थात् जिस ग्रह की पीड़ा, कष्ट हो उससे संबंधित दुर्गा के रूप की पूजा विधि-विधान से करने पर अवश्य ही शान्ति प्राप्त होती है।
विक्रान्ता, आयुष्मा, अतिलोम, घृष्णा, मांदिगोठ, विषेंधरी आदि भयंकर कुयोगों की शान्ति यदि संभव है तो एकमात्र दुर्गा की पूजा ही समर्थ है। वास्तव मे आदि काल से ही मनुष्य, देवी-देवता अथवा किसी भी प्राणी पर यदि कोई संकट पड़ा है तो उसके लिए सभी ने दुर्गा माता की ही अराधना की है। और माता दुर्गा ने ही सबका उद्धार किया है। इसमे कोई संदेह नहीं कि जादू टोना, रोग, भय, पिशाच्च, बेताल तथा डाकिनी आदि से मुक्ति प्राप्ति दुर्गा की तांत्रिक पूजा-पद्धति सर्वथा ही सफल है। दुर्गा के अनुष्ठान की तांत्रिक विधि का विधिवत अनुपालन हमारे भारत मे कम किन्तु इटली के सार्सिडिया, आस्ट्रेलिया के वैलिंग्टन, दक्षिणी अमेरिका के चिली एवं वॉशिंगटन डीसी, दक्षिणी अमेरिका के चिली तथा चीन मे यांग टीसी क्यांग नदी के तटवर्ती प्रान्तों मे ज्यादा देखने को मिल सकती हैं।

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♦ नौ दुर्गा आराधना का महत्व :
शक्ति उपासना के महत्व के बारे मे कहा जाता है कि जगत्‌ की उत्पत्ति, पालन एवं लय तीनों व्यवस्थाएँ जिस शक्ति के आधीन सम्पादित होती है वही पराम्वा भगवती आदि शक्ति है, यें कारी बन कर सृष्टि का सृजन करने से इन्हें सृष्टिरूपा बीज कहा जाता है। ‘ह्रीं कारी’ देवी को प्रतिपालि का एवं ‘क्लीं कारी’ काम रूपा शक्ति जगत का लय कर अपने आश्रय मे ले लेती हैं। यही तीन शक्तियाँ महाकाली, महालक्ष्मी महासरस्वती कहलाती है। इन्हीं के अनन्त रूप है लेकिन प्रधान नौ रूपों मे नवदुर्गा बन कर आदि शक्ति सम्पूर्ण पृथ्वी लोक पर अपनी करूणा की वर्षा करती है, अपने भक्त और साधकों मे अपनी ही शक्ति का संचार करते हुए, करूणा एवं परोपकार के द्वारा संसार के प्राणियों का हित करती है।
प्रथम नवरात्रि को माँ की शैल पुत्री रूप मे आराधना की जाती है। वस्तुतः नौ दुर्गा के रूप माता पार्वती के हैं। दक्ष प्रजापति के अहंकार को समाप्त कर प्रजापति क्रम मे परिवर्तन लाने एवं अपने सती स्वरूप का संवरण कर पार्वती अवतार क्रम मे नौ दुर्गा की नौ रूपमूर्तियों की उपासना है नवरात्रि उपासना। यद्यपि शक्ति अवतार को दक्ष यज्ञ मे अपने योग बल से सम्पन्न करने से पूर्ण भगवती सती जी ने भगवान शंकर के समक्ष अपनी दस महाविधाओं को प्रकट किया तथा उनके सती जी के दग्ध छाया छाया देह के अंग-प्रत्यंगो से अनेक शक्ति पीठों मे आदि शक्ति प्रतिष्ठित हो कर पूजी जाने लगी पार्वती रूपा भगवती के प्रथम स्वरूप शैल पुत्री की आराधना से साधक की योग यात्रा की पहली सीढ़ी बिना बाधाओं के पारहो जाती है। योगीजन प्रथम नवरात्रि की साधना मे अपने मन को मूलाधार चक्र मे स्थित शक्ति केंद्र की जागृति मे तल्लीन कर देते है।
नवरात्रि आराधना, तन मन और इन्द्रिय संयम साधना की उपासना है, उपवास से तन संतुलित होता है। तन के सन्तुलित होने पर योग साधना से इंद्रियाँ संयमित होती है। इन्द्रियो के संयमित होने पर मन अपनी आराध्या माँ के चरणों मे स्थिर हो जाता है। वस्तुतः जिसने अपने मन को स्थिर कर लिया वह संसार चक्र से छूट जाता है। संसार मे रहते हुए उसके सामने कोई भी सांसारिक विध्न-बाधाएँ टिक नहीं सकती। वह भगवती दुर्गा के सिंह की तरह बन जाता है, ऐसे साधक भक्त एवं योगी महापुरूष का दर्शन मात्र से सिद्धियाँ मिलने लगती है। परन्तु सावधान रहना चाहिए की सांसारिक उपलब्धि रूपी सिद्धियाँ संसार मे भटका देती है। अतः उपासक एवं साधकों को यह भी सावधानी रखनी होती है कि उनका लक्ष केवल माँ दुर्गा के श्री चरणों मे समर्पण है और कुछ नहीं।
by Pandit Dayanand Shastri.

जानिए जीवन मे सम्रद्धि के वास्तु सूत्र :

जेसा की आप सभी जानते हे की वर्तमान समय मे सुविधा जुटाना आसान है। परंतु शांति इतनी सहजता से नहीं प्राप्त होती। हमारे घर मे सभी सुख-सुविधा का सामान है, परंतु शांति पाने के लिए हम तरस जाते है। वास्तु शास्त्र द्वारा घर मे कुछ मामूली बदलाव कर आप घर एवं बाहर शांति का अनुभव कर सकते है।
♦ घर मे कोई रोगी हो तो एक कटोरी मे केसर घोलकर उसके कमरे मे रखे दे। वह जल्दी स्वस्थ हो जाएगा।
♦ घर मे ऐसी व्यवस्था करे कि वातावरण सुगंधित रहे। सुगंधित वातावरण से मन प्रसन्न रहता है।
♦ घर मे जाले न लगने दे, इससे मानसिक तनाव कम होता है।
♦ दिन मे एक बार चांदी के ग्लास का पानी पिये। इससे क्रोध पर नियंत्रण होता है।
♦ अपने घर मे चटकीले रंग नहीं कराये।
♦ किचन का पत्थर काला नहीं रखे।
♦  कंटीले पौधे घर मे नहीं लगाएं।
♦ भोजन रसोईघर मे बैठकर ही करे।
♦ शयन कक्ष मे मदिरापान नहीं करे। अन्यथा रोगी होने तथा डरावने सपनो का भय होता है।
♦ इन छोटे-छोटे उपायों से आप शांति का अनुभव करेगे।
♦ कौन सी वस्तु कहां रखे : 
♦ सोते समय सिर दक्षिण मे पैर उत्तर दिशा मे रखे। या सिर पश्चिम मे पैर पूर्व दिशा मे रखना चाहिए।
♦  अलमारी या तिजोरी को कभी भी दक्षिणमुखी नहीं रखे।
♦  पूजा घर ईशान कोण मे रखे।
♦ रसोई घर मेन स्वीच, इलेक्ट्रीक बोर्ड, टीवी इन सब को आग्नेय कोण मे रखे।
♦ रसोई के स्टेंड का पत्थर काला नहीं रखे। दक्षिणमुखी होकर रसोई नहीं पकाए।
♦  शौचालय सदा नैर्ऋत्य कोण मे रखने का प्रयास करे।
♦  फर्श या दिवारों का रंग पूर्ण सफेद नहीं रखे।
♦ फर्श काला नहीं रखे।
♦ मुख्य द्वार की दांयी और शाम को रोजाना एक दीपक लगाएं।
 ♦ घर का बाहरी रंग कैसा हो :
♦ घर के आगे की दिवारो के रंग से भी वास्तु दोष दूर किया जा सकता है। यदि आपका घर पूर्वमुखी हो तो फ्रंट मे लाल, मेहरून रंग करें।
♦ पश्चिममुखी हो तो लाल, नारंगी, सिंदूरी रंग करे।
♦ उत्तरामुखी हो तो पीला, नारंगी करे।
♦ दक्षिणमुखी हो तो गहरा नीला रंग करे।
♦  किचन मे लाल रंग। बेडरूम मे हल्का नीला, आसमानी।
♦ ड्राइंग रूम मे क्रीम कलर।
♦ पूजा घर मे नारंगी रंग।
♦ शौचालय मे गहरा नीला।
♦ फर्श पूर्ण सफेद न हो क्रीम रंग का होना चाहिए।
♦ कमरो का निर्माण कैसा हो?
कमरो का निर्माण मे नाप महत्वपूर्ण होते है। उनमे आमने-सामने की दिवारे बिल्कुल एक नाप की हो, उनमे विषमता न हो। कमरो का निर्माण भी सम ही करे। 20-10, 16-10, 10-10, 20-16 आदि विषमता मे ना करे जैसे 19-16, 18-11 आदि।बेडरूम मे शयन की क्या स्थिति। बेडरूम मे सोने की व्यवस्था कुछ इस तरह हो कि सिर दक्षिण मे एवं पांव उत्तर मे हो । यदि यह संभव न हो तो सिराहना पश्चिम मे और पैर पूर्व दिशा मे हो तो बेहतर होता है। रोशनी व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि आंखों पर जोर न पड़े। बेड रूम के दरवाजे के पास पलंग स्थापित न करे। इससे कार्य मे विफलता पैदा होती है। कम-कम से समान बेड रूम के भीतर रखे।
♦ वास्तु शास्त्र और घर की साज-सज्जा :
घर की साज सज्जा बाहरी हो या अंदर की वह हमारी बुद्धि मन और शरीर को जरूर प्रभावित करती है। घर मे यदि वस्तुएं वास्तु अनुसार सुसज्जित न हो तो वास्तु और ग्रह रश्मियो की विषमता के कारण घर मे क्लेश, अशांति का जन्म होता है। घर के बाहर की साज-सज्जा बाहरी लोगो को एवं आंतरिक शृंगार हमारे अंत: करण को सौंदर्य प्रदान करता है। जिससे सुख-शांति, सौम्यता प्राप्त होती है। भवन निर्माण के समय ध्यान रखे। भवन के अंदर के कमरों का ढलान उत्तर दिशा की तरफ न हो। ऐसा हो जाने से भवन स्वामी हमेशा ऋणी रहता है। ईशान कोण की तरफ नाली न रखें। इससे खर्च बढ़ता है।
शौचालय: शौचालय का निर्माण पूर्वोत्तर ईशान कोण मे न करे। इससे सदा दरिद्रता बनी रहती है। शौचालय का निर्माण वायव्य दिशा मे हो तो बेहतर होता है।
कमरो मे ज्यादा छिद्रों का ना होना आपको स्वस्थ और शांतिपूर्वक रखेगा।
♦ कौन से रंग का हो स्टडी रूम?
रंग का भी अध्ययन कक्ष मे बड़ा प्रभाव पड़ता है। आइए जानते है कौन-कौन से रंग आपके अध्ययन को बेहतर बनाते है। तथा कौन से रंग का स्टडी रूम मे त्याग करना चाहिए।अध्ययन कक्ष मे हल्का पीला रंग, हल्का लाल रंग, हल्का हरा रंग आपकी बुद्धि को ऊर्जा प्रदान करता है। तथा पढ़ी हुयी बाते याद रहती है। पढ़ते समय आलस्य नही आता, स्फुर्ती बनी रहती है। हरा और लाल रंग सर्वथा अध्ययन के लिए उपयोगी है। लाल रंग से मन भटकता नहीं है, तथा हरा रंग हमे सकारात्मक उर्जा प्रदान करता है। नीले, काले, जामुनी जैसे रंगो का स्टडी रूम मे त्याग करना चाहिए, यह रंग नकारात्मक उर्जा के कारक है। ऐसे कमरो मे बैठकर कि गयी पढ़ाई निरर्थक हो जाती है।
Pandit Dayanand Shastri.

वास्तु अनुसार कैसा होना चाहिए बच्चो का कमरा और उनका स्डडी रूम / अध्ययन कक्ष/ पढाई का कमरा ??

बच्चों के कमरे का प्रवेश द्वार उत्तर अथवा पूर्व दिशा मे होना चाहिए। खिड़की अथवा रोशनदान पूर्व मे रखना उत्तम है। पढ़ने की टेबल का मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए। पुस्तके ईशान कोण मे रखी जा सकती है। बच्चों का फेस पढ़ते समय उत्तर अथवा पूर्व दिशा मे होना चाहिए। एक छोटा सा पूजा स्थल अथवा मंदिर बच्चों के कमरे की ईशान दिशा मे बनाना उत्तम है। इस स्थान मे विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की मूर्ति अथवा तस्वीर लगाना शुभ है।

कमरे का ईशान कोण का क्षेत्र सदैव स्वच्छ रहना चाहिए और वहां पर किसी भी प्रकार का व्यर्थ का सामान, कूड़ा, कबाड़ा नहीं होना चाहिए। अलमारी, कपबोर्ड, पढ़ने का डेस्क और बुक शेल्फ व्यवस्थित ढंग से रखा जाना चाहिए। सोने का बिस्तर नैऋत्य कोण मे होना चाहिए। सोते समय सिर दक्षिण दिशा मे हो, तो बेहतर है। परंतु, बच्चे अपना सिर पूर्व दिशा मे भी रख कर सो सकते है। कमरे के मध्य मे भारी सामान न रखे। कमरे मे हरे रंग के हल्के शेड्स करवाना उत्तम है। इससे बच्चों मे बुद्धिमता की वृद्धि होती है। कमरे के मध्य का स्थान बच्चों के खेलने के लिए खाली रखे। बच्चों के कमरे का द्वार कभी भी सीढ़ियो अथवा शौचालय से सटा न हो, अन्यथा ऐसे परिवार के बच्चे मां-बाप के नियमानुसार अनुसरण नहीं करेंगे। बच्चों के कक्ष के ईशान कोण और ब्रह्म स्थान की ओर भी विशेष ध्यान दें कि वहां पर बेवजह का सामान एकत्रित न हो। यह क्षेत्र सदैव स्वच्छ और बेकार के सामान से मुक्त होना चाहिए।
♦ क्या आपके बच्चे का पढ़ाई-लिखाई मे मन नहीं लगता? 
वास्तुशास्त्री अनुसार हो सकता है आपके बच्चों के स्डडी रूम मे कहीं न कहीं से नकारात्मक ऊर्जा आ रही हो। पढ़ाई मे कॉनसन्ट्रेशन बढ़ाने, याददाश्त बढ़ाने के लिए इन साधारण वास्तु टिप्स को फॉलो करे। शायद आपकी चिंता दूर हो जाए…

स्टडी रूम यानी जीवन का अहम् हिस्सा जहाँ यूथ अपना अधिक से अधिक समय बिताते है। यदि यह आपको सूट न करे तो बड़ी गड़बड़ हो सकती है और आपका ध्यान पढाई से हट भी सकता है। 

♦ कैसा हो स्टडी टेबल : आपके बच्चों के स्डडी रूम मे स्टडी टेबल रेग्युलर शेप का होना चाहिए। यानी टेबल आयताकार, वर्गाकार या गोलाकार होना चाहिए। टेबल का आंकार आड़ा-तिरछा होगा तो बच्चा कॉनसन्ट्रेट नहीं कर पाएगा, कन्फ्यूज्ड रहेगा। टेबल के कोने कटे हुए नहीं होने चाहिए। टेबल  की हाईट आपकी हाईट के अनुसार ही हो। ताकि आपकी कमर न झुके। 

♦ स्टडी रूम: नॉर्थ, ईस्ट या नॉर्थ-ईस्ट मे ही होना चाहिए। स्टडी टेबल हमेशा लकड़ी की हो। लोहे का प्रयोग न करे। टेबल की सतह चिकनी हो, खुरदरी न हो। टेबल समतल हो, खुरदरी न हो। टेबल को कभी दीवार से अलग न रखे नहीं तो एकाग्रता मे बाधा आ सकती है। 

♦ टेबल की दिशा : आपके बच्चों के स्डडी रूम मे उत्तरी दिशा से आने वाली ऊर्जा सकारात्मक होती है। पढ़ते समय बच्चे का चेहरा उत्तर की ओर होना चाहिए। ऐसा करने से थकान नहीं होती और कॉनसन्ट्रेशन बना रहता है। इस दिशा को ब्लॉक न करे, घर के अंदर इस दिशा से एनर्जी को आने दे।

♦ सॉलिड बैक : जब आपका बच्चा पढ़ने के लिए बैठे तो उसकी पीठ के पीछे दीवार होनी चाहिए। आपके बच्चों के स्डडी रूम मे पीठ के पीछे कोई खिड़की या ओपनिंग आपको एनर्जी सपोर्ट तो देती है लेकिन कॉनसन्ट्रेशन भंग करती है।

♦ कोई बाधा न हो : पढ़ाई करते समय बच्चे के सामने से ऊर्जा के प्रवाह मे कोई बाधा नहीं पड़नी चाहिए। सामने करीब 7-8 फीट का स्पेस होना चाहिए। आपके बच्चों के स्डडी रूम मे स्टडी टेबल को दीवार से सटाकर नहीं रखना चाहिए। टेबल पर ही बड़ा-सा बुकशेल्फ न बनाएं।

♦ स्डडी रूम व्यवस्थित रखे :  आपके बच्चों से  कहे पुरानी किताबे, नोट्स, मेल्स, स्टेशनरी सभी स्टडी रूम से बाहर करे। रोज़ाना आपके बच्चों को स्टडी रूम को साफ करने की आदत डाल ले। स्टडी टेबल के सामने अपने इष्ट देवता, माता-पिता या किसी महान व्यक्ति की तस्वीर लगा सकते हैं, मगर फिल्म स्टार या बेहूदी फोटो न लगाएँ। 

♦ कलर : आपके बच्चो के स्डडी रूम मे लेमन यलो और वॉयलेट कलर मेमरी और कॉनसन्ट्रेशन बढ़ाने मे मददगार होते है। आपके बच्चों के स्डडी रूम की दीवारो और टेबल-कुर्सी के लिए इन रंगों का इस्तेमाल अच्छा रहेगा। कमरे का और स्टडी टेबल का रंग राशि के अनुसार हो। मेष और वृश्चिक सफेद व पिंक का प्रयोग करे। वृषभ और तुला सफेद-ग्रीन का इस्तेमाल करे। मिथुन और कन्या ग्रीन, सिंह ब्ल्यू, कर्क रेड एवं व्हाइट, धनु-मीन पीले-सुनहरे और मकर-कुंभ ब्ल्यू के सारे शेड्स का प्रयोग करे। 

विशेष : स्टडी रूम मे कभी भी गहरे रंग, काले रंग का प्रयोग न करे। पानी वाले शो पीस या पानी की तस्वीर जरूर लगाएँ। 
by Pandit Dayanand Shastri.

जानिए वास्तु द्वारा कैसे करे मानसिक तनाव या अशांति निवारण उपाय :

आज की इस भागदौड़ से भरी जिंदगी मे हम सभी अपने अपने काम मे व्यस्त है। इसके कारण से अधिकतर लोग मानसिक शांति से ग्रस्त होते है। व्यस्ता एवं भौतिकता से भरी दिनचार्या मे व्यक्ति के पास अपने स्वयं के लिए भी वक्त ही नहीं होता है। सुख और मानसिक शांति हर व्यक्ति की चाह होती है। सभी चाहते है कि उन्हे किसी तरह का मानसिक तनाव ना हो और उनकी जिन्दगी सुकून से भरपूर हो। ऐसे मे अगर घर का वास्तु गलत हो तो घर के सदस्यो को अधिक मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है।

आमतौर पर ऐसा माना जाता रहा है कि तनाव के शिकार केवल बड़ी उम्र लोग ही होते है, लेकिन समय-समय पर हुए विभिन्न सर्वेक्षणो मे यह बात सामने आई है कि तनावग्रस्त लोगो मे ज्यादा संख्या युवाओ की है। वर्ममान मे सोलह साल का बच्चा भी इस मर्ज से पीड़ित है। पढ़ाई ठीक से नहीं हो रही, भविष्य मे उसका करियर कैसा होगा, जैसी बाते उसे उम्र से पहले ही तनाव से भर देती है।

आधुनिक सुख-सुविधाओ से जहाँ एक ओर शारीरिक सुख बढे़ है तो दूसरी ओर मानसिक तनाव भी बढ़ता जा रहा है। आज बड़े की बात तो छोड़े प्रायमरी स्कूल मे जाने वाला बच्चा भी तनाव की बात करता है। यूँ तो तनाव बढ़ने के कई कारण होते है, परन्तु तनाव बढ़ाने मे वास्तु की भी एक अहम् भूमिका होती है। पुराने समय लगभग सभी घर आयताकार होते थे। घरो मे सामान्यतः बोरिंग, भूमिगत पानी की टंकी, सैप्टिक टैक इत्यादि नहीं होते थे। इस कारण जमीन समतल हुआ करती थी। आज अनियमित आकार के फ्लैट्स व मकान निर्मित किए जा रहे है। अब तो 30×50 के प्लॉट मे भी एक बोरिंग, एक भूमिगत पानी की टंकी, एक सैप्टिक टैंक बनाया जाता है। जो वास्तु ज्ञान न होने के कारण ज्यादातर गलत स्थानो पर ही निर्मित किए जाते है। यह ऐसे महत्वपूर्ण वास्तुदोष है जो कि परिवार मे दुखद हादसे, अनहोनी के कारण तनाव वाली स्थितियाँ पैदा करते है। घर के वास्तु का प्रभाव वहाँ निवास करने वाले सभी पर पड़ता है चाहे वह मकान मालिक हो या किरायदार।
by Pandit Dayanand Shastri.

महालय श्राद्ध पक्ष 2016

हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक का समय श्राद्ध पक्ष कहलाता है। इस वर्ष श्राद्ध पक्ष का प्रारंभ 16 सितंबर, 2016 (पूर्णिमा,शुक्रवार) चंद्र ग्रहण से हो रहा है, जिसका समापन 30 सितंबर (अमावस्या,शुक्रवार) को होगा। हिंदू धर्म के अनुसार, इस दौरान पितरो की आत्मा की शांति के लिए तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान आदि किया जाता है।हिन्दू धर्म अनुसार आश्विन माह के कृष्ण पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप मे मनाया जाता है। श्राद्ध संस्कार का वर्णन हिंदु धर्म के अनेक धार्मिक ग्रंथों मे किया गया है। श्राद्ध पक्ष को महालय और पितृ पक्ष के नाम से भी जाना जाता है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओ, पितरो, परिवार, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है।
प्रतिवर्ष श्राद्ध को भाद्रपद माह की पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह की अमावस्या तक मनाया जाता है। पूर्णिमा का श्राद्ध पहला और अमावस्या का श्राद्ध अंतिम होता है। जिस हिन्दु माह की तिथि के अनुसार व्यक्ति मृत्यु पाता है उसी तिथि के दिन उसका श्राद्ध मनाया जाता है। आश्विन कृष्ण पक्ष के 15 दिन श्राद्ध के दिन रहते है। जिस व्यक्ति की तिथि याद ना रहे तब उसके लिए अमावस्या के दिन उसका श्राद्ध करने का विधान होता है। पितृ पक्ष पन्द्रह दिन की समयावधि होती है जिसमे हिन्दु जन अपने पूर्वजो को भोजन अर्पण कर उन्हे श्रधांजलि देते है। ऎसी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष मे पितर पृथ्वी लोक पर आते है और अपने हिस्से का भाग अवश्य किसी ना किसी रुप मे ग्रहण करते है। सभी पितर इस समय अपने वंशजों के द्वार पर आकर अपने हिस्से का भोजन सूक्ष्म रुप मे ग्रहण करते है। भोजन मे जो भी खिलाया जाता है वह पितरो तक पहुंच ही जाता है। यहाँ पितरो से अभिप्राय ऎसे सभी पूर्वजो से है जो अब हमारे साथ नहीं है लेकिन श्राद्ध के समय वह हमारे साथ जुड़ जाते है और हम उनकी आत्मा की शांति के लिए अपनी सामर्थ्यानुसार उनका श्राद्ध कर के अपनी श्रद्धा को उनके प्रति प्रकट करते है ।
दक्षिणी भारतीय अमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार पितृ पक्ष भाद्रपद के चन्द्र मास मे पड़ता है और पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूर्ण चन्द्रमा के एक दिन बाद प्रारम्भ होता है। उत्तरी भारतीय पूर्णीमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार पितृ पक्ष अश्विन के चन्द्र मास मे पड़ता है और भाद्रपद मे पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूर्ण चन्द्रमा के अगले दिन प्रारम्भ होता है। यह चन्द्र मास की सिर्फ एक नामावली है जो इसे अलग-अलग करती है। उत्तरी और दक्षिणी भारतीय लोग श्राद्ध की विधि समान दिन ही करते है।हिंदू धर्म मे स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले जाते है। वह चाहे किसी भी रूप मे अथवा किसी भी लोक मे हो, श्राद्ध पक्ष के समय पृथ्वी पर आते है तथा उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है अत: मान्यता है कि पितृ पक्ष मे हम जो भी पितरो के नाम से तर्पण करते हैं उसे हमारे पितर सूक्ष्म रूप मे आकर अवश्य ग्रहण करते है। कुर्मपुराण मे कहा गया है कि ‘जो प्राणी जिस किसी भी विधि से एकाग्रचित होकर श्राद्ध करता है, वह समस्त पापों से रहित होकर मुक्त हो जाता है और पुनः संसार चक्र मे नहीं आता।’ गरुड़ पुराण के अनुसार ‘पितृ पूजन (श्राद्धकर्म) से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यो के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते है।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार ‘श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, सन्तति, धन, विद्या सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते है। ब्रह्मपुराण के अनुसार ‘जो व्यक्ति शाक के द्वारा भी श्रद्धा-भक्ति से श्राद्ध करता है, उसके कुल मे कोई भी दुःखी नहीं होता।’ साथ ही ब्रह्मपुराण मे वर्णन है कि ‘श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक किए हुए श्राद्ध मे पिण्डो पर गिरी हुई पानी की नन्हीं-नन्हीं बूँदों से पशु-पक्षियों की योनि मे पड़े हुए पितरो का पोषण होता है। जिस कुल मे जो बाल्यावस्था मे ही मर गए हो, वे सम्मार्जन के जल से तृप्त हो जाते है। श्राद्ध का महत्व तो यहाँ तक है कि श्राद्ध मे भोजन करने के बाद जो आचमन किया जाता है तथा पैर धोया जाता है, उसी से पितृगण संतुष्ट हो जाते है। बंधु-बान्धवों के साथ अन्न-जल से किए गए श्राद्ध की तो बात ही क्या है, केवल श्रद्धा-प्रेम से शाक के द्वारा किए गए श्राद्ध से ही पितर तृप्त होते है। विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होते है।हेमाद्रि नागरखंड के अनुसार एक दिन के श्राद्ध से ही पितृगण वर्षभर के लिए संतुष्ट हो जाते है, यह निश्चित है। यमस्मृति के अनुसार ‘जो लोग देवता, ब्राह्मण, अग्नि और पितृगण की पूजा करते है, वे सबकी अंतरात्मा मे रहने वाले विष्णु की ही पूजा करते है।’
देवलस्मृति के अनुसार ‘श्राद्ध की इच्छा करने वाला प्राणी निरोग, स्वस्थ, दीर्घायु, योग्य सन्तति वाला, धनी तथा धनोपार्जक होता है। श्राद्ध करने वाला मनुष्य विविध शुभ लोकों को प्राप्त करता है, परलोक मे संतोष प्राप्त करता है और पूर्ण लक्ष्मी की प्राप्ति करता है। अत्रिसंहिता के अनुसार ‘पुत्र, भाई, पौत्र (पोता), अथवा दौहित्र यदि पितृकार्य मे अर्थात्‌ श्राद्धानुष्ठान मे संलग्न रहें तो अवश्य ही परमगति को प्राप्त करते है। इसके अलावा भी अनेक वेदों, पुराणों, धर्मग्रंथों मे श्राद्ध की महत्ता व उसके लाभ का उल्लेख मिलता है। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि श्राद्ध फल से पितरो की ही तृप्ति नहीं होती, वरन्‌ इससे श्राद्धकर्ताओं को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है। अतः हमे चाहिए कि वर्ष भर मे पितरों की मृत्युतिथि को सर्वसुलभ जल, तिल, यव, कुश और पुष्प आदि से उनका श्राद्ध संपन्न करने और गो ग्रास देकर अपने सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करा देने मात्र से ऋण उतर जाता है।
श्राद्ध करने वाले परिवार को प्रसन्नता एवं विनम्रता के साथ भोजन परोसना चाहिए। संभव हो तो जब तक ब्राह्मण भोजन ग्रहण करे, तब तक पुरुष सूक्त तथा पवमान सूक्त आदि का जप होते रहना चाहिए। भोजन कर चुके ब्राह्मणों के उठने के पश्चात श्राद्ध करने वाले को अपने पितृ से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए-
दातारो नोअभिवर्धन्तां वेदा: संततिरेव च॥
श्रद्घा च नो मा व्यगमद् बहु देयं च नोअस्तिवति।
अर्थात “पितृगण ! हमारे परिवार मे दाताओं, वेदों और संतानों की वृद्घि हो, हमारी आप मे कभी भी श्राद्ध न घटे, दान देने के लिए हमारे पास बहुत संपत्ति हो।” इसी के साथ उपस्थित ब्राह्मणो की प्रदक्षिणा के साथ उन्हें दक्षिणा आदि प्रदान कर विदा करे। श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को बचे हुए अन्न को ही भोजन के रूप मे ग्रहण कर उस रात्रि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। श्राद्ध प्राप्त होने पर पितृ, श्राद्ध कार्य करने वाले परिवार मे धन, संतान, भूमि, शिक्षा, आरोग्य आदि मे वृद्धि प्रदान करते है। पिंडदान की परंपरा सृष्टि के रचनाकाल से ही शुरू है। जिसका वर्णन वायु पुराण, अग्नि पुराण और गरुण पुराण मे है। पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है।
दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय का दूध, घी, शकर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल मे काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उस जल से विधि पूर्वक तर्पण किया जाता। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते है। श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराकर दी जाने वाली तृप्ति पितरो को भी संतुष्ट करती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, जिन लोगों की कुंडली मे कालसर्प दोष हो, वे अगर श्राद्ध पक्ष मे इस दोष के निवारण के लिए उपाय व पूजन करे तो शुभ फलो की प्राप्ति होती है तथा कालसर्प दोष के दुष्प्रभाव मे कमी आती है। ज्योतिष के अनुसार, कालसर्प दोष मुख्य रूप से 12 प्रकार का होता है, इसका निर्धारण जन्म कुंडली देखकर ही किया जा सकता है। प्रत्येक कालसर्प दोष के निवारण के लिए अलग-अलग उपाय है।
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♦ जानिए वर्ष 2016  मे श्राद्ध पक्ष की तिथियां :
१६ सितम्बर (शुक्रवार) पूर्णिमा श्राद्ध
१७ सितम्बर (शनिवार) प्रतिपदा श्राद्ध
१८ सितम्बर (रविवार) द्वितीया श्राद्ध
१९ सितम्बर (सोमवार) तृतीया श्राद्ध, चतुर्थी श्राद्ध
२० सितम्बर (मंगलवार) महा भरणी, पञ्चमी श्राद्ध
२१ सितम्बर (बुधवार) षष्ठी श्राद्ध
२२ सितम्बर (बृहस्पतिवार) सप्तमी श्राद्ध
२३ सितम्बर (शुक्रवार) अष्टमी श्राद्ध
२४ सितम्बर (शनिवार) नवमी श्राद्ध
२५ सितम्बर (रविवार) दशमी श्राद्ध
२६ सितम्बर (सोमवार) एकादशी श्राद्ध
२७ सितम्बर (मंगलवार) द्वादशी श्राद्ध
२८ सितम्बर (बुधवार) मघा श्राद्ध, त्रयोदशी श्राद्ध
२९ सितम्बर (बृहस्पतिवार) चतुर्दशी श्राद्ध
३० सितम्बर (शुक्रवार) सर्वपित्रू अमावस्या
पितृ पक्ष का अन्तिम दिन सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या के नाम से जाना जाता है। पितृ पक्ष मे महालय अमावस्या सबसे मुख्य दिन होता है।
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♦ संक्षिप्त पितृ तर्पण विधि:
पितरो का तर्पण करनेके पूर्व इस मन्त्र से हाथ जोडकर प्रथम उनका आवाहन करे –
ॐ आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्तु जलान्जलिम ।
अब तिलके साथ तीन-तीन जलान्जलियां दे – (पिता के लिये) अमुकगोत्रः अस्मत्पिता अमुक (नाम) शर्मा वसुरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः । (माता के लिये) अमुकगोत्रा अस्मन्माता अमुकी (नाम) देवी वसुरूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः।
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♦ श्राद्ध पक्ष मे क्या करे?
पितरो की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है। पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते है :-
♦ एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध
♦ नाग बलि कर्म
♦ नारायण बलि कर्म
♦ त्रिपिण्डी श्राद्ध
♦ महालय श्राद्ध पक्ष मे श्राद्ध कर्म
इसके अलावा प्रत्येक मांगलिक प्रसंग मे भी पितरों की प्रसन्नता हेतु ‘नांदी-श्राद्ध’ कर्म किया जाता है। दैनंदिनी जीवन, देव-ऋषि-पित्र तर्पण किया जाता है।
उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायो मे विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही है। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए।
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♦ कैसे करे श्राद्ध कर्म :
महालय श्राद्ध पक्ष मे पितरो के निमित्त घर मे क्या कर्म करना चाहिए। यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों मे रहती है। यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे है तो निम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर ले :-
प्रतिदिन खीर (अर्थात्‌ दूध मे पकाए हुए चावल मे शकर एवं सुगंधित द्रव्य जैसे इलायची केशर मिलाकर तैयार की गई सामग्री को खीर कहते हैं) बनाकर तैयार कर ले। गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर ले। उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान मे किसी बर्तन मे रखकर, खीर से तीन आहुति दे दे। इसके नजदीक (पास मे ही) जल का भरा हुआ एक गिलास रख दे अथवा लोटा रख दे। इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ मे डाल दे। भोजन मे से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हे खिला दे।
इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएँ फिर स्वयं भोजन ग्रहण करे। पश्चात ब्राह्मणो  को यथायोग्य दक्षिणा दे।

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♦ श्राद्ध कब और कौन करे : 
माता-पिता की मरणतिथि के मध्याह्न काल मे पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए।
जिस स्त्री के कोई पुत्र न हो, वह स्वयं ही अपने पति का श्राद्ध कर सकती है।
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♦ जानिए श्राद्ध पक्ष मे काले तिल, शहद और कुश का महत्व :
काले तिल, शहद और कुश को तर्पण व श्राद्धकर्म मे सबसे जरूरी है। माना जाता है कि तिल और कुश दोनों ही भगवान विष्णु के शरीर से निकले है और पितरो को भी भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है। गरुड़ पुराण के अनुसार तीनो देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश मे क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग मे रहते है।कुश का अग्रभाभ देवताओ का, मध्य मनुष्यो का और जड़ पितरो का माना जाता है। वहीं तिल पितरो को प्रिय और दुष्टात्माओ को दूर भगाने वाले माने जाते है। श्राद्ध एवं तर्पण क्रिया मे काले तिल का बड़ा महत्व है। कहते है तिल का दान कई सेर सोने के दान के बराबर है। इनके बिना पितरो को जल भी नहीं मिलता। दान करते समय भी हाथ मे काला तिल जरूर रखना चाहिए इससे दान का फल पितरों एवं दान कर्ता दोनो को प्राप्त होता है। इसके अलावा शहद, गंगाजल, जौ, दूध और घृत इन सात पदार्थ को श्राद्धकर्म के लिए महत्वपूर्ण माना गया है।पितरों की तृप्ति के लिए नित्य तर्पण कर सकते है- पूर्व दिशा मे देवताओ का तर्पण, उत्तर दिशा मे ऋषियो का तर्पण और दक्षिण दिशा मे यम तर्पण के साथ पितरों को प्रसन्न रखा जा सकता है।
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♦ जानिए पिंड दान के प्रकार : 
12 तरह के पिंडदान
1.प्रथम पिण्ड देवताओ के निमित्त
2.दूसरा पिण्ड ऋषियो के निमित्त
3.तीसरा पिण्ड दिव्य मानवो के निमित्त
4.चौथा पिण्ड दिव्य पितरो के निमित्त
5.पांचवां पिण्ड यम के निमित्त
6.छठवां पिण्ड मनुष्य-पितरो के निमित्त
7.सातवां पिण्ड मृतात्मा के निमित्त
8.आठवां पिण्ड पुत्रदार रहितो के निमित्त
9.नौवां पिण्ड उच्छिन्ना कुलवंश वालो के निमित्त
10.दसवां पिण्ड गर्भपात से मर जाने वालो के निमित्त
11.ग्यारहवां पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बंधुओं के निमित्त
12.बारहवां पिण्ड अपने अज्ञात पूवजों व बंधुओं के निमित्त
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♦ पितरो का काल :
भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से पितरो का काल आरम्भ हो जाता है। यह ‘सर्वपितृ अमावस्या’ तक रहता है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनो तक श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं कर पाते है और जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके श्राद्ध, तर्पण इत्यादि इसी अमावस्या को किये जाते है। इसलिए सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितर अपने पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से विशेष रूप से आते है। यदि उन्हे वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते है, जिससे आगे चलकर पितृदोष लगता है और इस कारण अनेक कठिनाइयो का सामना करना पड़ता है।
[1] पितर विदा करने की अंतिम तिथि सर्वपितृ अमावस्या पितरो को विदा करने की अंतिम तिथि होती है। 15 दिन तक पितृ घर मे विराजते है और हम उनकी सेवा करते हैं। ‘सर्वपितृ अमावस्या’ के दिन सभी भूले-बिसरे पितरो का श्राद्ध कर उनसे आशीर्वाद की कामना की जाती है। ‘सर्वपितृ अमावस्या’ के साथ ही 15 दिन का श्राद्ध पक्ष खत्म हो जाता है। आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की समाप्ति के बाद अगले दिन से ‘नवरात्र’ प्रारंभ होते है। ‘सर्वपितृ अमावस्या’ पर हम अपने उन सभी प्रियजनों का श्राद्घ कर सकते है, जिनकी मृत्यु की तिथि का ज्ञान हमें नहीं है। [2] वे लोग जो किसी दुर्घटना आदि मे  मृत्यु को प्राप्त होते है, या ऐसे लोग जो हमारे प्रिय होते है किंतु उनकी मृत्यु तिथि हमे ज्ञात नहीं होती तो ऐसे लोगों का भी श्राद्ध इस अमावस्या पर किया जाता है।
♦ महालय श्राद्ध :
इस अमावस्या पर ‘महालय श्राद्ध’ भी किया जाता है। ‘महा’ से अर्थ होता है- ‘उत्सव दिन’ और ‘आलय’ से अर्थ है- ‘घर’ अर्थात कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है। इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते है, जो ‘महालय’ भी कहलाता है। यदि कोई परिवार पितृदोष से कलह तथा दरिद्रता से गुजर रहा हो और पितृदोष शांति के लिए अपने पितरों की मृत्यु तिथि मालूम न हो तो उसे सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरो का श्राद्ध-तर्पणादि करना चाहिए,जिससे पितृगण विशेष प्रसन्न होते है और यदि पितृदोष हो तो उसके प्रभाव मे भी कमी आती है।
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‘मनुस्मृति’, ‘याज्ञवलक्यस्मृति’ जैसे धर्म ग्रंथों मे ही नहीं, वरन पुराणो आदि मे भी श्राद्ध को महत्त्वपूर्ण कर्म बताते हुए उसे करने के लिए प्रेरित किया गया है।
‘गरुड़पुराण’ के अनुसार विभिन्न नक्षत्रों मे किये गए श्राद्धों का फल निम्न प्रकार मिलता है-
कृत्तिका नक्षत्र मे किया गया श्राद्ध समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है। रोहिणी नक्षत्र मे श्राद्ध होने पर संतानसुख, मृगशिरा नक्षत्र मे गुणों मे वृद्धि, आर्द्रा नक्षत्र मे ऐश्वर्य पुनर्वसु नक्षत्र मे सुंदरता, पुष्य नक्षत्र मे अतुलनीय वैभव, आश्लेषा नक्षत्र मे दीर्घायु मघा नक्षत्र मे अच्छी सेहत, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र मे अच्छा सौभाग्य, हस्त नक्षत्र मे विद्या की प्राप्ति, चित्रा नक्षत्र मे प्रसिद्ध संतान, स्वाति नक्षत्र मे व्यापार मे लाभ, विशाखा नक्षत्र मे वंश वृद्धि ,अनुराधा नक्षत्र मे उच्च पद प्रतिष्ठा, ज्येष्ठा नक्षत्र मे उच्च अधिकार भरा दायित्व, मूल नक्षत्र मे मनुष्य आरोग्य प्राप्त करता है।
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♦ पितृऋण से मुक्ति का साधन: 
सामान्यत: जीव के जरिए इस जीवन मे पाप और पुण्य दोनों होते है। पुण्य का फल है स्वर्ग और पाप का फल है नरक। अपने पुण्य और पाप के आधार पर स्वर्ग और नरक भोगने के पश्चात् जीव पुन: अपने कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों म भटकने लगता है। जबकि पुण्यात्मा मनुष्य या देव योनि को प्राप्त करते हैं। अत: भारतीय सनातन संस्कृति के अनुसार पुत्र-पौत्रादि का कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता और पूर्वजों के निमित्त कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें, जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक मे अथवा अन्य योनियो मे भी सुख की प्राप्ति हो सके। इसलिए भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म मे पितृऋण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध करने की अनिवार्यता बताई गई है। वर्तमान समय मे अधिकांश मनुष्य श्राद्ध करते तो है, मगर उनमे से कुछ लोग ही श्राद्ध के नियमो का पालन करते है। किन्तु अधिकांश लोग शास्त्रोक्त विधि से अपरिचित होने के कारण केवल रस्मरिवाज की दृष्टि से श्राद्ध करते है।
♦ श्राद्ध पूजन :
वस्तुत: शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध ही सर्वविधि कल्याण प्रदान करता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को श्रृद्धापूर्वक शास्त्रोक्त विधि से श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिए। जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सके, उन्हे कम से कम आश्विन मास मे पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिए। यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरो की पुण्य तिथि होती है, लेकिन आश्विन मास की अमावस्या पितरो के लिए परम फलदायी मानी गई है। इस अमावस्या को ‘सर्वपितृ अमावस्या’ अथवा ‘महालया’ के नाम से भी जाना जाता है।
जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनो तक श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं कर पाते अथवा जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। शास्त्रीय मान्यता है कि अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से आते है। यदि उन्हें वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती, तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते है, जिससे जीवन मे पितृदोष के कारण अनेक कठिनाइयों और विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
by Pandit Dayanand Shastri.

जानिए वास्तु अनुसार केसे रखे ब्रह्म स्थान/ ब्रह्म स्थल का रखे ध्यान ??

पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि एवं वायु इन पंचतत्वो तथा दसो दिशाओ के कल्याणकारी सूत्र एवं सिद्धान्त ही वास्तु शास्त्र की मूल अवधारणा है। प्रकृति के इन नियमो का पालन मनुष्य किस तरह शारीरिक एवं मानसिक विकास हेतु करके सुखी एवं सम्पन्न रहे, यही वास्तु शास्त्र की नींव है। किसी भी निर्मित अथवा खुले स्थल का केन्द्र बिन्दु उस स्थान का हृदय होता है एवं पायरा विज्ञान की भाषा मे इसे पायरा सेन्टर कहते है।
वास्तु शास्त्र जैव शक्ति, गुरुत्वाकर्षण शक्ति, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र, वायु की गति एवं ब्रह्माण्डीय तरंगों पर आधारित विज्ञान है। उपरोक्त प्राकृतिक शक्तियां, तरंगें, गति एवं क्षेत्र भला भेदभाव करना कहां जानती है। इनके लिए अमीर-गरीब, शिक्षित-गंवार, छोटा-बड़ा, हिंदू-मुस्लिम सभी बराबर है। अत: वास्तु के नियम किसी भी स्थान पर निष्पक्ष रूप से सभी पर लागू होते है।
पृथ्वी तत्व का स्वामित्व नैऋत्य मे, अग्नि का आग्नेय मे, वायु का वायव्य मे, जल का ईशान मे और आकाश तत्व का स्वामित्व ब्रह्मस्थान मे माना जाता है। इन चार विदिशाओं और पांचवे ब्रह्मस्थान मे इन पांच तत्वो के गुणो के अनुरुप ही कार्य करने चाहिए। ईशान कोण मे जल तत्व का स्वामित्व है इसलिए यहां अग्नि तत्व से संबंधित कोई भी कार्य करना पूरे परिवार के लिए हानिप्रद है। यहां किचन रखना, कपड़े प्रेस करने के लिए टेबल रखना, कपड़े प्रेस करने के लिए टेबल रखना, गीजर या बाॅयलर रखना हानिप्रद होता है। अग्नि तत्व और जल तत्व दो विपरीत गुणो वाले तत्व है इसीलिए इनका मिलन दोनो ही तत्वो को कमजोर करता है, अग्नि तत्व जल को नष्ट करता है और जल तत्व अग्नि को बुझाता है। अग्नि तत्व स्वास्थ्य का और जल तत्व सुख-शांति, समृद्धि और संपन्नता का कारक है। जल और अग्नि तत्वो के कमजोर होने से परिवार मे स्वास्थ्य, समृद्धि और सुख शांति संबंधित कई समस्याएं आ जाएंगी। इसी तरह अन्य तत्वो की प्रकृति और उनके प्रभाव को ध्यान रखते हुए ही घर का नक्शा बनाना चाहिए।
वास्तु शास्त्र और वास्तु विज्ञान मे मुख्य अंतर यह है कि शास्त्र हम पर शासन करता है, लेकिन विज्ञान हमे आवास संबंधी ज्ञान के बारे मे नई जानकारियों से परिचित कराता है। जब किसी कार्य-पद्धति के विशिष्ट ज्ञान के कारण का संबंध स्थापित हो जाये और बार-बार अनुसंधान करने पर ठोस परिणाम आने लगते है। तब यह कार्य पद्धति स्वत ही वैज्ञानिक बन जाती है। कई ज्योतिष जो वास्तु के बढ़ते महत्व के कारण सिर्प पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर वास्तु विषय मे प्रवेश कर चुके है। यह महाशय समस्याग्रस्त इंसान को वास्तु दोष निवारण के नाम पर पूजा-पाठ, यंत्र-मंत्र, टोटके इत्यादि मे उलझा देते है। जबकि समस्याओ का समाधान एवं सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिये वास्तु विषय को अन्य किसी भी
विषय के माध्यम की जरूरत ही नहीं पड़ती।
साधारण भाषा मे समझा जाए तो वास्तु शास्त्र के सिद्धांत आठो दिशाओ तथा पंच महाभूतो आकाश, भू, वायु, जल, अग्नि आदि के प्रवाह आदि को ध्यान मे रखने बनाए गए है। इन सबके मेल से एक ऐसी प्रकिया खड़ी की जाती है जो मनुष्य के रहने के स्थान को सुखमय बनाने का कार्य करती है। पंच-तत्वों पर आधारित वास्तु पर मानव सिद्धि प्राप्त करता है, तो वह उसे सुख-शांति और समृद्धि प्रदान कर सकती है। यही वास्तु का रहस्य है। वास्तु विषय का महत्व बढ़ने के साथ-साथ केवल पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर इस विषय मे इतने अपरिपक्व एवं अज्ञानी लोग प्रवेश कर चुके है कि आम व्यक्ति के लिये सही-गलत का फैसला कर पाना मुश्किल हो जाता है। बाजार मे वास्तु-शास्त्र से संबंधित मिलने वाली लगभग सभी पुस्तको मे एक ही तरह की बाते लिखी रहती है। इसका अर्थ यह है कि यह पुस्तके लेखक की मौलिक रचना नहीं है और ना ही स्वयं शोध या अनुसंधान करके लिखी गयी है। बल्कि शास्त्रो मे लिखी गयी बातो को अपनी भाषा मे पिरो दी जाती है या फिर अन्य पुस्तको की नकल, जिन्हे पढ़कर आम इंसान वास्तु-विषय के प्रति भ्रमित ही रहता है। जब कई मकानों का अवलोकन किया जाता है, तब हम यह देखते है कि प्रत्येक मकान का आकार एवं दिशाएं अलग-अलग होती है।
वास्तु शास्त्र और वास्तु विज्ञान मे मुख्य अंतर यह है कि शास्त्र हम पर शासन करता है, लेकिन विज्ञान हमे आवास संबंधी ज्ञान के बारे मे नई जानकारियो से परिचित कराता है। जब किसी कार्य-पद्धति के विशिष्ट ज्ञान के कारण का संबंध स्थापित हो जाये और बार-बार अनुसंधान करने पर ठोस परिणाम आने लगते है। तब यह कार्य पद्धति स्वत ही वैज्ञानिक बन जाती है।
जानिए ब्रह्म स्थान/ब्रह्म स्थल को-
पौराणिक दृष्टिकोण से भी देखे तो ब्रह्म स्थान, यानी ब्रह्मा का स्थल। ब्रह्मा के चार सिर है और उसी प्रकार किसी भी स्थान का ब्रह्म स्थल मध्य मे स्थित रह कर ब्रह्मा की तरह उस स्थान के चतुर्दिक देखता है। किसी भी दिशा के दोषपूर्ण होने पर अगर उस दिशा से प्राप्य ऊर्जा अगर ब्रह्मस्थल तक नहीं पहुंचती है तो स्वभावत: ब्रह्मस्थल की लाभकारी दृष्टि से वह दिशा वंचित रह जाती है। ब्रह्म स्थान का दोष ब्रह्मा जी का प्रकोप (स्वास्थ्य, वंश व आर्थिक हानि)… फलत: वहाँ नकारात्मक ऊर्जा व्याप्त होकर वहाँ के निवासियों के जीवन को अपने स्वाभावानुसार प्रभावित करके कष्ट एवं दु:ख का कारण न जाती है। साधारण सी बात है। किसी भी देश, राज्य, शहर का संचालन वहाँ का केन्द्र ही करता है।किसी भी घर मे ब्रह्म स्थान बड़ा महत्व रखता है। ये घर का बिलकुल बीच वाला स्थान होता है। इसी स्थान से ऊर्जा पुरे घर मे प्रवाहित होती है। वास्तु शास्त्र मे इसे सूर्य का स्थान माना जाता है।
किसी भी घर/भवन/मकान मे घर मे ब्रह्मस्थान एक तरह से हमारे पेट की तरह होता है। खाना हम खाते तो मुँह से है लेकिन distribution का काम पेट का है इसी तरह से ऊर्जा उत्पन्न north-east यानि के ईशान से होती है लेकिन circulation ब्रह्मस्थान से ही होता है।
ब्रह्म स्थान को खुला, साफ तथा हवादार रखना चाहिए। गृह निर्माण मे 81 पद वाले वास्तु चक्र मे 9 स्थान ब्रह्म स्थान के लिए नियत किए गये है। ब्रह्म स्थल यह केन्द्र बिन्दु अत्यन्त सूक्ष्म परन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। प्रकृति के पंचतत्वों की ऊर्जा विभिन्न दिशाओं से आकर किसी भी स्थल के केन्द्र विन्दु पर ही एकत्रित होती है एवं वहीं से अपने निर्दिष्ट स्थान को प्रभावित करती है। वास्तु मे यह केन्द्र बिन्दु ब्रह्मस्थान कहलाता है। अत: प्रत्येक स्थान, जहाँ हम निवास अथवा कार्य करते है, वहां के ब्रह्मस्थान को स्वच्छ एवं सुरक्षित रखना परम आवश्यक होता है। ब्रह्म स्थान अर्थात घर का मध्य भाग भारी हो तथा घर के मध्य मे अधिक लोहे का प्रयोग हो या ब्रह्म भाग से सीडीयां ऊपर कि और जा रही हो तो समझ ले कि मधुमेह का घर मे आगमन होने जा रहा हे अर्थात दक्षिण-पश्चिम भाग यदि आपने सुधार लिया तो काफी हद तक आप असाध्य रोगों से मुक्त हो जायेगे..
ब्रह्म स्थान नीचा हो जैसे आजकल architect बना देते है step दे के तो समझो पेट की भयंकर बिमारी है किसी को। वास्तु शास्त्र मे मकान आँगन रखने पर जोर दिया जाता है। वास्तु के अनुसार, मकान का प्रारूप इस प्रकार रखना चाहिए कि आँगन मध्य मे अवश्य हो। अगर स्थानाभाव है, तो मकान मे खुला क्षेत्र इस प्रकार उत्तर या पूर्व की ओर रखे, जिससे सूर्य का प्रकाश व ताप मकान मे अधिकाधिक प्रवेश कर सके।  यह एक सर्वमान्य सत्य है कि जो लोग वास्तु सम्मत स्थान पर निवास एवं कार्य करते है, उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी सभी कार्यों मे सफलता प्राप्त होती है। स्वास्थ्य संबंधित समस्याएं आनन फानन नहीं आती है। परिवार मे शान्ति, सन्तोष एवं सौहार्द की प्रवृत्ति रहती है तथा ईष्र्यालु लोगो की नजरो से भी बचाव होता है। जीवन मे मददगार मित्र एवं अच्छे रिश्तेदार मिलते है तथा सुख व समृद्धि सदैव सहज हासिल होती है।
♦ इनका रखे हमेशा ध्यान :
♦ आपके घर का मध्य (ब्रह्मस्थान) हमेशा साफ और खाली रखना चाहिए।
♦ ब्रह्मस्थान मे कोई खंबा, कील आदि नहीं लगाना चाहिए।
♦ ब्रह्मस्थान पर कभी भी अग्नि नहीं लाएं क्योंकि यहाँ अग्नि का प्रवेश होने से परिवार के सदस्यो मे झगड़े शुरू हो जाते है।
♦ ब्रह्मस्थान वास्तु शास्त्र के साथ-साथ आध्यात्म और दर्शन से संबंध रखता है, इसलिए यहाँ आप शास्त्र पढ़ सकते है, भगवान का नाम जप सकते है।
♦ ब्रह्मस्थान पर कोई भारी फर्नीचर न रखे, इसे यथासंभव खाली रखे। हो सके तो ब्रह्मस्थान के स्थान पर यानी कि घर के मध्य मे आंगन बनाएँ और इस आंगन मे तुलसी का पौधा लगाएं।
♦ इस स्थान पर झाड़ू, पोछा आदि वस्तुएं कभी न रखे।
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♦ वास्तु का ब्रह्मस्थान:
प्लाॅट या मकान के बिल्कुल बीच के भाग को ब्रह्मस्थान कहते है। यह एक बिंदु नहीं बल्कि क्षेत्र या जोन होता है, जिसका एरिया मकान या प्लाॅट के साइज से मालूम किया जाता है। ब्रह्म स्थान पवित्र स्थान माना जाता है। यहां कूड़ा करकट झाडू-पोंछा या माॅप आदि नहीं रखने चाहिए। ब्रह्मस्थान मे टाॅयलेट सर्वथा वर्जित है। यहां आग से संबंधित कामकाज भी नहीं हो सकते। इसलिए ब्रह्मस्थान मे बना किचन अवश्य ही परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालेगा। विशेषकर परिवार का मुखिया लंबे समय तक ठीक न होने वाली अनेक बीमारियो का शिकार बन सकता है।
ब्रह्मस्थान घर की नाभि है और यही कारण है कि यहां ऊंची और भारी वस्तुएं या फर्नीचर नहीं रखे जा सकते। आयुर्वेद मे भी सलाह दी जाती है कि अपने नाभिस्थान को हल्का-फुल्का रखे, आसानी से पचने वाला खाना खाएं ताकि पाचन क्रिया ठीक बनी रहे और पूरे शरीर को स्वस्थ रखे।
इसी प्रकार घर के नाभिस्थल को भी हल्का-फुल्का रखना चाहिए। यहां दीवारें, खंभे या सीढ़ियां हों तो यह स्थान बहुत ही भारी होकर अनेक बीमारियों का सबसे बड़ा कारण बन जाता है। अगर घर का ब्रह्मस्थान बिल्कुल खुला है और उसके चारो तरफ कमरे बने है तो ऐसा घर भाग्यवान परिवार को ही मिलता है।
पुरानी हवेलियो और महलो मे ब्रह्मस्थान आकाश की ओर खुला होता था। पुरानी शैली के मकानो मे ब्रह्मस्थान पर खुला आंगन जरूर होता था। खुला ब्रह्मस्थान अनेक अन्य वास्तुदोषो के कुप्रभाव को कम करने मे सक्षम होता है। ऐसे घरो मे रहने वाले स्वस्थ, खुशहाल और शांति से भरपूर जीवन व्यतीत करते है। खुला ब्रह्मस्थान फ्लैट्स मे तो मिल ही नहीं सकता, अपने भूखंड पर बनाए हुए घर मे भी अब खुला ब्रह्मस्थान रखना आउट आॅफ फैशन हो चुका है। खुले ब्रह्मस्थान से धूल-मिट्टी तो आती है इसके अलावा एयरकंडिशनिंग लोड बढ़ जाता है और सुरक्षा की समस्या भी बन सकती है। पर फिर भी इन समस्याओं के मुकाबले खुले ब्रह्मस्थान के गुण कहीं अधिक है।
ब्रह्मस्थान, वास्तुशास्त्र के कालपुरूष की नाभि है। जिस प्रकार नाभि से पूरेशरीर का नियंत्रण होता है, उसी प्रकार ब्रह्मस्थान से भी पूरे मकान या भूखण्ड को स्वच्छ वायु, स्वच्छ प्रकाश एवं अध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति होने के साथ-साथ पूरे मकान या भूखण्ड का नियंत्रण भी होता है। जिस प्रकार किसी भूखण्ड के ईशान, पूर्व दिशा को पवित्र रखा जाता है, उसी प्रकार भूखण्ड के ब्रह्मस्थान (Center of house) स्थान की भी पूरी सुरक्षा की जानी चाहिये।
प्रस्तुत है ब्रह्मस्थान (Center of house) के लिये वास्तुशास्त्र (Vastu) की कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां-
प्रत्येक घर मे ब्रह्मस्थान (Center of house) अवश्य होना चाहिये तथा वह बिना छत के होना चाहिये, सुरक्षा की दृष्टि से लोहे का जाल डाला जा सकता है।
भूखण्ड के ब्रह्मस्थान को चौक भी कहते है, इस भाग मे कोई भी निर्माण कार्य नहीं करना चाहिये, हमेशा खुला रखना चाहिये।
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♦ जानिए ब्रह्म स्थल मे क्या ना करे :-
ध्यान रखे–ब्रह्म स्थल पर सेप्टिक टेंक , भूमिगत पानी की टंकी, बोरिंग, खंभा, सीढ़ी, बिम, छज्जा, आदि का निर्माण ना करें । ब्रह्म स्थान मे गन्दी, नई-पुरानी, छोटी या बड़ी वस्तु नहीं होनी चाहिए। भारतीय परम्परा मे धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष नामक चार पुरूषार्थ है। भूखण्ड का ब्रह्म स्थल इन्ही पुरूषार्थो की प्राप्ति के लिए होता है। ब्रह्म स्थल निर्दोष होना चाहिए वहां किसी भी प्रकार का निर्माण नहीं होना चाहिए।
♦ ब्रह्म स्थान मे toilet मतलब लाइलाज बिमारी किसी को निमंत्रण देना ।
♦ ब्रह्म स्थल ख़राब होने के कारण होती है स्वास्थ्य प्रॉब्लम्स–
किसी घर मे ब्रहम स्थान अथवा आंगन न होने से प्रचुर मात्रा मे हवा व प्रकाश नहीं मिल पाता है, जिसके फलस्वरूप हमारे शरीर मे विटामिन डी की कमी हो जाती है, और हमारे शरीर की हडिड्यां कमजोर हो जाती है। इस कारण आपको हड्डी रोग से संबंधित बीमारियां घेर लेती है। खासकर वह महिलाये जो घरेलू कार्यो मे ही अपना पूरा समय व्यतीत करती है, उन्हे इस प्रकार के disease  होने की ज्यादा आशंका रहती है क्योंकि उन्हे भरपूर मात्रा मे सूर्य का प्रकाश नहीं मिल पाता
है। इसलिए भवन मे आंगन होना अतिआवश्यक है|
किसी भी घर मे ब्रह्म स्थान पर सीढियां बनी होना एक गंभीर वास्तु दोष है जिससे आर्थिक एवं स्वास्थ्य हानि होती है। परिवार बढ़ता नहीं है। ब्रह्मस्थान मे ही सीढ़ियो के नीचे भूमिगत जल स्रोत था जिससे घर मे गंभीर स्वास्थ्य परेशानियां होती है, विशेषतः पेट संबंधी (आप्रेशन तक हो सकते हैं), घर मे अनचाहे खर्चे होते रहते है अथवा दिवालियापन तक भी हो सकता है। किसी भी भवन के ब्रह्म स्थल मे बना सेप्टिक टेंक या केन्द्र मे बनी सीढ़ियों के नीचे शौचालय बनाना पारिवारिक उन्नति मे बाधक होता है एवं घर की महिलाएं विशेषतः बहन, बुआ तथा बेटी के जीवन मे समस्याएं उत्पन्न होने का कारण हो सकता है।
घर के अंदर ब्रह्म स्थान को खाली रखना चाहिए इस स्थान पर भरी सामग्री  रखने से या किसी बीम या पिल्लर का निर्माण करने से आपको बड़े वास्तु दोष  का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा माना जाता है के ब्रह्मस्थान मे दोष होने पर घर वंश वृद्धि रूक सकती है।
♦ जानिए महाभारत मे वास्तु दोष –
महाभारत मे भी कथा प्रचलित है जब इंद्रप्रस्थ का निर्माण हो रहा था तब भगवान श्री कृष्णा को पता था के ये आज नही तो कल कौरवो के पास ही जाएगा इसी कारण उन्होने एक कुँए का निर्माण बिलकुल बीचो बीच करवाया था जिसके फलस्वरूप पहले पांडवो को वनवास झेलना पड़ा उसके बाद कौरवों के वंश का सर्वनाश हो गया।

♦ जानिए किसी भी फ्लेट/अपार्ट मेट मे बेसमेट का प्रभाव–

आजकल flats & apartments के जमाने मे घर का brahmsthan खुला होना मुश्किल है। ऐसे मे कोशिश करे की कम से कम यहाँ पर कोई construction जैसे बीम या कोई pillar न हो..
वास्तु शास्त्र मे कहा गया है कि सम्पूर्ण भूखण्ड के तीन भागो मे से एक भाग ब्रह्मस्थान (Center of house) होना चाहिये तथा यह भाग या अन्य शब्दो मे  घर का मध्य भाग ऊंचा होना चाहिये। दूसरे शब्दो मे इसे गजपुष्ट (हाथी की पीठ की तरह) होना चाहिये। यदि हम ब्रह्मस्थान पर जल डाले तो वह चारो ओर फैल जाये, कहने का तात्पर्य है कि ब्रह्मस्थान के मध्य मे गडडा नहीें होना चाहिये, खडडे युक्त ब्रह्मस्थान, नीचे ब्रह्मस्थान या बैठे हुये ब्रह्मस्थान से ग्रहस्वामी के धन का नाश होता है।
-भूखण्ड के मध्य मे तलघर कभी न बनाये।
-भूखण्ड के मध्य मे हैंडपम्प, कुआं, सैप्टिक टैंक, जल भण्डारण कभी न बनाये, यदि ऐसा किया तो भवन व भवन के स्वामी का विनाश हो सकता है।
-घर के मध्य भाग ब्रह्मस्थान मे जल निकासी के लिये गृह से बाहर तक नालियां अवश्य बनवानी चाहिये।
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♦ जानिए की ब्रह्म स्थल के दोष कैसे करे दूर:-
ब्रह्म स्थल पर सत्संग हरिकीर्तन, हरिभजन, आदि से दूर हो जाता है। ब्रह्म स्थल की निष्काम भाव से पूजा करें, ईश्वर की उपासना करे कुछ मांगे नहीं । ब्रह्म स्थल के नौ चैखानों के ऊपर एक-एक पिरामिड लगाने से यह दोष कम हो जाता है। भागवत गीता का नियमित पाठ, गुरूनानक की वाणियो के पाठ अथवा कुरान की आयतों के नियमित पाठ से यह दोष कम होता है। इस स्थान पर नियमित रूप से रामायण पाठ,  पढ़ने से इस समस्या का निदान होता है। ब्रह्म स्थान ठिक कर लेने से ईशान कोण का दोष स्वतः ठिक हो जाता है।
सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु आपके सपनो का महल इस प्रकार बनाएं कि ब्रह्म स्थल का दोष न रहे । ब्रह्म स्थान वास्तु शास्त्र के साथ साथ आध्यात्म और दर्शन से संबंध रखता है। ब्रह्म स्थान मे यदि घडी लगा दे तो ऎसे मे शुभ प्रभाव मिलने लगते है
by Pandit Dayanand Shastri.

जानिए श्राद्ध कर्म क्या है ?? कब, क्यो और कैसे करे श्राद्ध कर्म ??

श्रद्धयां इदम् श्राद्धम्”
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शास्त्र का वचन है-“श्रद्धयां इदम् श्राद्धम्” अर्थात पितरो के निमित्त श्रद्धा से किया गया कर्म ही श्राद्ध है। मित्रो, आगामी 28 सितम्बर 2015 ( सोमवार) से महालय “श्राद्ध पक्ष” प्रारम्भ होने जा रहा है। इन सोलह (16) दिनो पितृगणो (पितरो) के निमित्त श्राद्ध व तर्पण किया जाता है। किन्तु जानकारी के अभाव मे अधिकांश लोग इसे उचित रीति से नहीं करते जो कि दोषपूर्ण है क्योंकि शास्त्रानुसार “पितरो वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवता:” अर्थात देवता भाव से प्रसन्न होते है और पितृगण शुद्ध व उचित विधि से किए गए कर्म से।
♦ पित्र पक्ष(श्राद्धपक्ष) मे पितृदोष ( कालसर्प योग/दोष) के निवारण के लिए उज्जैन स्थित गयाकोठी तीर्थ उनके लिए वरदान है जो गया जाकर पित्र दोष शांति नहीं करवा सकते है। इस प्राचीन तीर्थ पर पितृदोष शांति का शास्त्रोक्त निवारण  के लिए आप पंडित दयानन्द शास्त्री से संपर्क कर सकते है।
♦ पितृदोष : वह दोष जो पित्तरो से सम्बन्धित होता है पितृदोष कहलाता है। यहाँ पितृ का अर्थ पिता नहीं वरन् पूर्वज होता है। ये वह पूर्वज होते है जो मुक्ति प्राप्त ना होने के कारण पितृलोक मे रहते है तथा अपने प्रियजनो से उन्हे विशेष स्नेह रहता है।
श्राद्ध या अन्य धार्मिक कर्मकाण्ड ना किये जाने के कारण या अन्य किसी कारणवश रूष्ट हो जाये तो उसे पितृ दोष कहते है। विश्व के लगभग सभी धर्मों मे यह माना गया है कि मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति की देह का तो नाश हो जाता है लेकिन उनकी आत्मा कभी भी नही मरती है। पवित्र गीता के अनुसार जिस प्रकार स्नान के पश्चात् हम नवीन वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार यह आत्मा भी मृत्यु के बाद एक देह को छोड़कर नवीन देह धारण करती है। हमारे पित्तरो को भी सामान्य मनुष्यों की तरह सुख दुख मोह ममता भूख प्यास आदि का अनुभव होता है। यदि पितृ योनि मे गये व्यक्ति के लिये उसके परिवार के लोग श्राद्ध कर्म तथा श्रद्धा का भाव नहीं रखते है तो वह पित्तर अपने प्रियजनो से नाराज हो जाते है। समान्यतः इन पित्तरो के पास आलौकिक शक्तियां होती है तथा यह अपने परिजनो एवं वंशजो की सफलता सुख समृद्धि के लिये चिन्तित रहते है जब इनके प्रति श्रद्धा तथा धार्मिक कर्म नहीं किये जाते है तो यह निर्बलता का अनुभव करते है तथा चाहकर भी अपने परिवार की सहायता नही कर पाते है तथा यदि यह नाराज हो गये तो इनके परिजनो को तमाम कठनाइयो का सामना करना पड़ता है। पितृ दोष होने पर व्यक्ति को अपने जीवन मे तमाम तरह की परेशानियां उठानी पड़ती है ।
जैसे घर मे सदस्यो का बिमार रहना। मानसिक परेशानी। सन्तान का ना होना। कन्या संतान का अधिक होना या पुत्र का ना होना। पारिवारिक सदस्यो मे वैचारिक मतभेद होना। जीविकोपार्जन मे अस्थिरता या पर्याप्त आमदनी होने पर भी धन का ना रूकना। प्रत्येक कार्य मे अचानक रूकावटे आना। जातक पर कर्ज का भार होना। सफलता के करीब पहुँचकर भी असफल हो जाना। प्रयास करने पर भी मनवांछित फल का ना मिलना। आकस्मिक दुर्घटना की आशंका तथा वृद्धावस्था मे बहुत दुख प्राप्त होना आदि।
आजकल बहुत से लोगो की कुण्डली मे कालसर्प योग(दोष) भी देखा जाता है वस्तुतः कालसर्प योग भी पितृ दोष के कारण ही होता जिसकी वजह से मनुष्य के जीवन मे तमाम मुसीबतों एवं अस्थिरता का सामना करना पड़ता है।
इस प्रकार की समस्या उज्जैन स्थित गया कोठी तीर्थ , प्राचीन सिद्धवट तीर्थ जो  पवित्र शिप्रा नदी के किनारे स्थित है, पर इस दोष का शास्त्रोक्त विधि विधान से निवारण करवाया जाता है।
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♦ जानिए श्राद्ध कर्म कब, क्यो और कैसे करे ???
भारतीय शास्त्रो मे ऐसी मान्यता है कि पितृगण पितृपक्ष मे पृथ्वी पर आते है और 15 दिनो तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते है। शास्त्रो मे बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनो के आस-पास रहते है इसलिए इन दिनो कोई भी ऐसा काम नहीं करे जिससे पितृगण नाराज हो।
पितरो को खुश रखने के लिए पितृ पक्ष मे कुछ निम्न  बातो पर विशेष ध्यान देना चाहिए—
♦ पितृ पक्ष के दौरान ब्राह्मण, जामाता, भांजा, मामा, गुरु, नाती को भोजन कराना चाहिए। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते है।
♦ब्राह्मणो को भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनो हाथो से पकड़कर लाना चाहिए अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते है। जिससे ब्राह्मणो द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते है।
♦पितृ पक्ष मे द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उनके योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए।
♦ हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए। मान्यता है की इन्हे दिया गया भोजन सीधे पितरो को प्राप्त हो जाता है।
♦शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणो का ध्यान करना चाहिए।
♦ हिंदू धर्म ग्रंथो के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज गमन करते है, उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिए।
♦ इस पक्ष मे जो लोग अपने पितरो को जल देते है तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते है, उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते है।
♦जिन लोगो को अपने परिजनो की मृत्यु की तिथि ज्ञात नही होती, उनके लिए पितृ पक्ष मे कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई है, जिस दिन वे पितरो  के निमित्त श्राद्ध कर सकते है।
♦ आश्विन कृष्ण प्रतिपदा:- इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार मे कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते है।
♦ पंचमी:- जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति मे हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।
♦ नवमी:- सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृनवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि इस तिथि
पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।
♦ एकादशी और द्वादशी:-  एकादशी मे वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते है। अर्थात् इस तिथि को उन लोगो का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होने संन्यास लिया हो।
♦चतुर्दशी:- इस तिथि मे शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है। जबकि बच्चो का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।
♦ सर्वपितृमोक्ष अमावस्या:-
यदि  किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरो का श्राद्ध करने से चूक गए है या पितरो की तिथि याद नही है, तो इस तिथि पर सभी पितरो का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्र अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरो का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए।  बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष मे उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए। यही उचित भी है।
♦ पितृपक्ष मे विशेष ध्यान रखे इन बातो का –
♦ पिंडदान करने के लिए सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करे।
♦ जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते है, वे समस्त मनोरथो को प्राप्त करते है और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते है।
♦ विशेष:- श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है—-
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।।
(वायु पुराण) ।।
♦ श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करे। प्रातः एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है।
♦‘सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊध्र्व कक्षा मे पितृलोक है जहां पितृ रहते है।
♦पितृ लोक को मनुष्य लोक से आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है उस स्थिति को मृत्यु कहते है।
♦यह भौतिक शरीर 27 तत्वो के संघात से बना है। स्थूल पंच महाभूतो एवं स्थूल कर्मेन्द्रियो को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वो से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है।
♦हिंदू मान्यताओ के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता।
♦ मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनो व घर के आसपास घूमता रहता है।
♦श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है।
♦श्रद्धापूर्वक श्राद्ध मे दिए गए ब्राह्मण भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा मे प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी है।
♦ पितृ लोक मे गया हुआ प्राणी श्राद्ध मे दिए हुए अन्न का स्वधा रूप मे परिणत हुए को खाता है।
♦ यदि शुभ कर्म के कारण मर कर पिता देवता बन गया तो श्राद्ध मे दिया हुआ अन्न उसे अमृत मे परिणत होकर देवयोनि मे प्राप्त होगा। गंधर्व बन गया हो तो वह अन्न अनेक भोगो के रूप मे प्राप्त होता है।
♦पशु बन जाने पर घास के रूप में परिवर्तित होकर उसे तृप्त करेगा। यदि नाग योनि मिली तो श्राद्ध का अन्न वायु के रूप में तृप्ति को प्राप्त होगा।
♦दानव, प्रेत व यक्ष योनि मिलने पर श्राद्ध का अन्न नाना अन्न पान और भोग्यरसादि के रूप में परिणत होकर प्राणी को तृप्त करेगा।
♦सच्चे मन, विश्वास, श्रद्धा के साथ किए गए संकल्प की पूर्ति होने पर पितरो को आत्मिक शांति मिलती है। तभी वे हम पर आशीर्वाद रूपी अमृत की वर्षा करते है।
♦ श्राद्ध की संपूर्ण प्रक्रिया दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके की जाती है।
♦ इस अवसर पर तुलसी दल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
♦ गया, पुष्कर, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में श्राद्ध करने का विशेष महत्व है।
♦ जिस दिन श्राद्ध करे उस दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे। श्राद्ध के दिन क्रोध, चिड़चिड़ापन और कलह से दूर रहे।
♦ पितरो को भोजन सामग्री देने के लिए मिट्टी के बर्तनो का प्रयोग किया जाए तो के पत्ते या लकड़ी के बर्तन का भी प्रयोग किया जा सकता है।
by Pandit Dayanand Shastri.

जानिए क्या है एक मुखी गोल रुद्राक्ष :

भगवान शिव ने समस्त लोगो के कल्याण के लिए अपने नेत्रो से आंसू के रूप मे रुद्राक्ष उत्पन्न किए क्योंकि भगवान शिव कल्याण करने वाले देवता है इसलिए उनकी आँख से प्रथम आंसू गिरते ही एक मुखी रुद्राक्ष उत्पन्न हुए इसलिए एक मुखी गोल रुद्राक्ष को सबसे महत्वपूर्ण और कल्याणकारी रुद्राक्ष माना गया है। एक मखी गोल रुद्राक्ष को साक्षात भगवान शिव का स्वरुप माना गया है और इस ब्रह्माण्ड की कल्याणकारी वस्तुओ मे एक मुखी रुद्राक्ष पहले नंबर पर आता है।रुद्राक्ष को एक बार धारण करने मात्र से ही समस्त पाप नष्ट हो जाते है। हमारे पुराणो आदि मे इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। रुदाक्ष धारण किए बिना की गई पूजा काशी, गंगाक्षेत्र अथवा अन्य तीर्थक्षेत्रो मे भी कोई फल प्रदान नहीं करती।
एक मुखी रुद्राक्ष दो प्रकार के दाने इस धरती पर पाए गए है। एक गोल आकार मे है और दूसरा काजू के आकार मे है लेकिन जो इसमे नेपाल का गोल दाना है उसी को असली एक मुखी और कल्याणकारी रुद्राक्ष माना गया है। प्राचीन कहानी के अनुसार एक बार त्रिपुर नाम के एक राक्षस ने ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवताओ को तिरस्कृत किया, तो इन देवताओ ने भगवान शंकर से सभी की रक्षा करने को कहा। तब समाधिस्थ शंकर जी ने अपने नेत्र खोले। नेत्रो से जलबिंदु गिरे और वही महारुद्राक्ष के वृक्ष के रूप मे बदल गए।
♦ जानिए एक मुखी गोल रुद्राक्ष के लाभ :
एक मुखी गोल रुद्राक्ष धारण करने मात्र से ही गंभीर पापो से मुक्ति मिलकर, मन शांत होकर, इन्द्रियां वश मे होकर व्यक्ति ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति की तरफ अग्रसर हो जाता है। यह इतना प्रभावशाली होता है कि जिस व्यक्ति के पास एकमुखी रुद्राक्ष होता है। उसे शिव के समान समस्त शक्तियां प्राप्त हो जाती है। एकमुखी रुद्राक्ष बेहद शक्तिशाली और दुर्लभ होता है। यह एक दुर्लभ रुद्राक्ष है जो किस्मत वालो को ही मिलता है। शरीर मे हाई BP इसके धारण करने से धीरे धीरे नियंत्रित होने लगता है और कम दवाई से ही BP शांत रहता है। सभी रुद्राक्षो मे एक मुखी रुद्राक्ष को सर्वोत्तम स्थान दिया गया है। इसके धारण करने से शत्रुओ के षड़यंत्र से बचा जा सकता है और भक्ति, मुक्ति, युक्ति एवं धन लक्ष्मी की प्राप्ति मे भी यह रुद्राक्ष सहायक है एकमुखी रुद्राक्ष सिंह राशि के जातको के लिए अत्यंत शुभ होता है। इस रुद्राक्ष की पूजा जहाँ होती है वहाँ से लक्ष्मी कभी दूर नहीं होती। इसे गर्भवती महिलाओ और बच्चो को धारण नहीं करना चाहिए।
♦ एक मुखी गोल रुद्राक्ष को धारण करने का मंत्र :
वैसे तो एक मुखी गोल रुद्राक्ष को धारण करने का मंत्र “ॐ ह्रीं नमः” है लेकिन शिव का पंचाक्षर बीज मंत्र “ॐ नमः शिवाय” से भी कोई भी रुद्राक्ष धारण किया जा सकता है। इस रुद्राक्ष को धारण करने के पश्चात् नित्य प्रति “ॐ नमः शिवाय” की पाँच माला जाप करने भर से इसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है |
♦ कब करे रुद्राक्ष धारण..????
ग्रहण मे, संक्रांति, अमावस, पूर्णिमा और महाशिवरात्रि को रुद्राक्ष धारण करना बेहद शुभ माना जाता है। रुद्राक्ष की पहचान करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जो रुद्राक्ष पानी मे डूब जाए, वही असली होता है। जाबाल श्रुति के अनुसार रुद्राक्ष धारण करने से किया गया पाप नगण्य हो जाता है। आंवले के सामान वाले रुद्राक्ष को उत्तम माना गया है।
♦ क्या रखे सावधानी रुद्राक्ष धारण मे..???
सफेद वर्ण के रुद्राक्ष ब्राह्मण को, रक्त वर्ण के क्षत्रिय को, पीत वर्ण के वैश्य को और कृष्ण वर्ण के रुद्राक्ष शूद को धारण करने चाहिए। रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति को मांसाहारी भोजन, लहसुन, प्याज तथा नशीले भोज्य पदार्थों का सेवन नही करना चाहिए।
♦ कितने रुद्राक्ष दानो की माला धारण करनी चाहिए?
अगर 26 की माला है तो सिर पर, 54 की गले मे, 16 की माला हाथो मे, 12 की मणिबंध मे और 108, 54, 27 दानों की रुद्राक्ष माला धारण करने या जाप करने से बहुत पुण्य फल मिलता है। 108 की माला धारण करने वाला अपनी 21 पीढ़ियो का उद्घार करता है।
by Pandit Dayanand Shastri.