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इन वास्तु उपायों/उपचार से होगा लक्ष्मी आगमन :-

हम सभी जानते है कि क्रिया की प्रतिक्रिया और प्रतिक्रिया की भी कोई न कोई क्रिया अवश्य होती है। इन्हीं क्रियाओ और प्रतिक्रियाओ का अहितीय उदाहरण हमारा ब्रह्माण्ड है। ब्रह्माण्ड में स्थित उर्जाये चाहे वह गुरूत्वाकर्षणीय, चुम्बकीय, विद्युतीय हो या ध्वनि घर्षण, गर्जन, भूकंपीय, चक्रवात इत्यादि हो सदैव सक्रिय रहती है। उर्जाओं की सक्रियता ही इस चराचर जगत को चलायमान बनाती है। इन्हीं उर्जाओं के कारण ही इस जगत का संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जुड़ जाता है और तभी “यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्ड” जैसे वेद वाक्य रचा जाता है।

सभी प्राणियो के जीवन में वास्तु का बहुत महत्व होता है। तथा जाने व अनजाने में वास्तु की उपयोगिता का प्रयोग भलीभांति करके अपने जीवन को सुगम बनाने का प्रयास करते रहते है। प्रकृति द्वारा सभी प्राणियो को भिन्नभिन्‍न रूपो में ऊर्जाये प्राप्त होती रहती है। इनमे कुछ प्राणियो के जीवन चक्र के अनुकूल होती है तथा कुछ पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। अतः सभी प्राणी इस बात का प्रयास करते रहते है कि अनुकूल ऊर्जाओ का अधिक से अधिक लाभ ले तथा प्रतिकूल ऊर्जा से बचे। वास्तु की संरचना वैदिक विज्ञान में आध्यात्मिक होने के साथ-2 पूर्ण वैज्ञानिक भी है। वास्तु की वैज्ञानिक परिकल्पना का मूल आधार पृथ्वी और सौर मंडल में स्थित ग्रह व उनकी कक्षाएं है। हम ग्रहो के प्रभाव को प्रत्यक्ष देख तो नहीं सकते है मगर उनके प्रभाव को अनुभव अवश्य कर सकते है। इनके प्रभाव इतने सूक्ष्म व निरंतर होते है कि इनकी गणना व आंकलन एक दिन या निश्चित अवधि में लगना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत इन ग्रहों व इनकी उर्जाओ को पृथ्वी के सापेक्ष में रखकर अध्ययन किया गया है। इसी अध्ययन का विश्लेषण वास्तु के वैज्ञानिक पक्ष के रूप में हमारे सामने आता है।

वास्तु शास्त्र का आधार प्रकृति है। आकाश, अग्नि, जल, वायु एवं पृथ्वी इन पांच तत्वों को वास्तुशास्त्र में पंचमहाभूत कहा गया है। शैनागम एवं अन्य दर्शन साहित्य में भी इन्हीं पंच तत्वों की प्रमुखता है। अरस्तु ने भी चार तत्वों की कल्पना की है। चीनी फेंगशुई में केवल दो तत्वों की प्रधानता हैवायु एवं जल की। वस्तुतः ये पंचतत्व सनातन है। ये मनुष्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण चराचर जगत पर प्रभाव डालते है। 

वास्तु शास्त्र प्रकृति के साथ सामंजस्य एवं समरसता रखकर भवन निर्माण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। ये सिद्धांत मनुष्य जीवन से गहरे जुड़े है। अथर्ववेद में कहा गया है–  पन्चवाहि वहत्यग्रमेशां प्रष्टयो युक्ता अनु सवहन्त। अयातमस्य दस्ये नयातं पर नेदियोवर दवीय। सृष्टिकर्ता परमेश्वर पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), प्रकाश, वायु व आकाश को रचकर, उन्हें संतुलित रखकर संसार को नियमपूर्वक चलाते है। मननशील विद्वान लोग उन्हें अपने भीतर जानकर संतुलित हो प्रबल प्रशस्त रहते है। इन्हीं पांच संतुलित तत्वों से निवास गृह व कार्य गृह आदि का वातावरण तथा वास्तु शुद्ध व संतुलित होता है, तब प्राणी की प्रगति होती है। ऋग्वेद में कहा गया हैये आस्ते पश्त चरति यश्च पश्यति नो जनः। तेषां सं हन्मो अक्षणि यथेदं हम्र्थ तथा। प्रोस्ठेशया वहनेशया नारीर्यास्तल्पशीवरीः। स्त्रिायो या: पुण्यगन्धास्ता सर्वाः स्वायपा मसि !! हे गृहस्थ जनो ! गृह निर्माण इस प्रकार का हो कि सूर्य का प्रकाश सब दिशाओ से आए तथा सब प्रकार से ऋतु अनुकूल हो, ताकि परिवार स्वस्थ रहे। राह चलता राहगीर भी अंदर न झांक पाए, न ही गृह में वास करने वाले बाहर वालो को देख पाएं। ऐसे उत्तम गृह में गृहिणी की निज संतान उत्तम ही उत्तम होती है। वास्तु शास्त्र तथा वास्तु कला का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार वेद और उपवेद हैं।

भारतीय वाड्मय में आधिभौतिक वास्तुकला (आर्किटेक्चर) तथा वास्तुशास्त्र का जितना उच्चकोटि का विस्तृत विवरण ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद में उपलब्ध है, उतना अन्य किसी साहित्य में नहीं। गृह के मुख्य द्वार को गृहमुख माना जाता है। इसका वास्तु शास्त्र में विशेष महत्व है। यह परिवार व गृहस्वामी की शालीनता, समृद्धि व विद्वत्ता दर्शाता है। इसलिए मुख्य द्वार को हमेशा बाकी द्वारों की अपेक्षा बड़ा व सुसज्जित रखने की प्रथा रही है। पौराणिक भारतीय संस्कृति के अनुसार इसे कलश, नारियल व पुष्प, केले के पत्र या स्वास्तिक आदि से अथवा उनके चित्रों से सुसज्जित करना चाहिए। मुख्य द्वार चार भुजाओं की चैखट वाला हो। इसे दहलीज भी कहते है। इससे निवास में गंदगी भी कम आती है तथा नकारात्मक ऊर्जाएं प्रवेश नहीं कर पातीं।

प्रातः घर का जो भी व्यक्ति मुख्य द्वार खोले, उसे सर्वप्रथम दहलीज पर जल छिड़कना चाहिए, ताकि रात में वहां एकत्रित दूषित ऊर्जाएं घुलकर बह जाएं और गृह में प्रवेश न कर पाएं। गृहिणी को चाहिए कि वह प्रातः सर्वप्रथम घर की साफसफाई करे या कराए। तत्पश्चात स्वयं नहाधोकर मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर एकदम सामने स्थल पर सामथ्र्य के अनुसार रंगोली बनाए। यह भी नकारात्मक ऊर्जाओं को रोकती है। मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर केसरिया रंग से 99 परिमाण का स्वास्तिक बनाकर लगाएं। मुख्य प्रवेश द्वार को हरे व पीले रंग से रंगना वास्तुसम्मत होता है। खाना बनाना शुरू करने से पहले पाकशाला का साफ होना अति आवश्यक है। रोसोईये को चाहिए कि मंत्र पाठ से ईश्वर को याद करे और कहे कि मेरे हाथ से बना खाना स्वादिष्ट तथा सभी के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक हो। पहली चपाती गाय के, दूसरी पक्षियों के तथा तीसरी कुत्ते के निमित्त बनाए। तदुपरांत परविार का भोजन आदि बनाए। 

विशेष वास्तु उपचार निवास गृह या कार्यालय में शुद्ध ऊर्जा के संचार हेतु प्रातः व सायं शंखध्वनि करे। गुगल युक्त धूप व अगरवत्ती प्रज्वलित करे तथा  का उच्चारण करते हुए समस्त गृह में धूम्र को घुमाएं। प्रातः काल सूर्य को अघ्र्य देकर सूर्य नमस्कार अवश्य करे। यदि परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य अनुकूल रहेगा, तो गृह का स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। ध्यान रखें, आईने व झरोखों के शीशों पर धूल नहीं रहे। उन्हें प्रतिदिन साफ रखें। गृह की उत्तर दिशा में विभूषक फव्वारा या मछली कुंड रखें। इससे परिवार में समृद्धि की वृद्धि होती है।

प्रकृति के पंच तत्व व उनकी उर्जाए ही वास्तु को जीवंत बनाती हैं। जीवंत वास्तु ही खुशहाल जीवन दे सकता है। इस तथ्य से हम वास्तु की उपयोगिता व वैज्ञानिकता को समझ सकते है। वास्तु कोई जादू या चमत्कार नहीं है अपित् शुद्ध विज्ञान है। विज्ञान का परिणाम उसके सिद्धान्तों क्रियाप्रतिक्रिया पर निर्भर करते है उसी प्रकार वास्तु का लाभदायी परिणाम इसके चयन, सिद्धान्तों निर्माण इत्यादि पर निर्भर करता है। वास्तु सिद्धान्तों के अनुसार यदि चयन से निर्माण व रख रखाब पर ध्यान दिया जाये तो वास्तु का शत प्रतिशत पूर्ण लाभ प्राप्त होता है। 

by Pandit Dayanand Shastri.

रुद्राक्ष मार्गदर्शन

♦एक मुखी रुद्राक्ष-

स्वरुप- एक मुखी रुद्राक्ष शिव का स्वरुप है |

लाभ- एक मुखी रुद्राक्ष ब्रहम हत्या आदि पापो को दूर करता  है |

मंत्र- एक मुखी रुद्राक्ष को “ॐ ह्रीं नमः” मंत्र का जाप कर के धारण करे |

♦दो मुखी रुद्राक्ष-

स्वरुप- दो मुखी रुद्राक्ष देवता स्वरुप है,पापो को दूर करने वाला और अर्धनारीइश्वर स्वरुप है |

लाभ- दो मुखी रुद्राक्ष धारण करने से अर्धनारीइश्वर प्रस्सन होते है |

मंत्र- दो मुखी रुद्राक्ष को “ॐ नमः “ का जाप कर के धारण करे |

♦तीन मुखी रुद्राक्ष-

स्वरुप- तीन मुखी रुद्राक्ष अग्नि स्वरुप है |

लाभ- तीन मुखी रुद्राक्ष हत्या आदि पापो को दूर करने में समर्थ है,शौर्य और ऐश्वर्या को बढाने वाला है |

मंत्र- तीन मुखी रुद्राक्ष को “ॐ क्लीं नमः” का जाप कर के धारण करे|

♦चतुर्मुखी रुद्राक्ष-

स्वरुप- चतुर्मुखी रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्म जी का स्वरुप है |

लाभ- चतुर्मुखी रुद्राक्ष के स्पर्श और दर्शन मात्र से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, की प्राप्ति होती है |

मंत्र- चतुर्मुखी रुद्राक्ष को    “ॐ ह्रीं नमः” मन्त्र का जाप कर के धारण करे|

♦ पञ्च मुखी रुद्राक्ष-

स्वरुप- पञ्च मुखी रुद्राक्ष पञ्च देवो (विष्णु,शिव,गणेश,सूर्य और देवी) का स्वरुप है |

लाभ-   “पञ्च वक्त्रं तु रुद्राक्ष पञ्च ब्रहम स्वरूप्कम “ इस के धारण मात्र से नर हत्या का पाप मुक्त हो जाता है, इस को धारण करने से काल अग्नि स्वरुप अगम्य पाप दूर होते है |

मंत्र – पञ्च मुखी रुद्राक्ष को  ” ॐ ह्रीं नमः “ मंत्र का जाप कर के धारण करे |

♦छह मुखी रुद्राक्ष-

स्वरुप- छह मुखी रुद्राक्ष साक्षात् कार्तिके स्वरुप है |

लाभ- छह मुखी रुद्राक्ष को धारण करने से श्री और आरोग्य की प्राप्ति होती है |

मंत्र- छह मुखी रुद्राक्ष को  “ॐ ह्रीं नमः” मंत्र का जाप कर के धारण करे |

♦सप्त मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- सप्त मुखी रुद्राक्ष साक्षात् कामदेव स्वरुप है |
लाभ- सप्त मुखी रुद्राक्ष अत्यंत भाग्य शाली और स्वर्ण चोरो आदि पापो को दूर करता है |

मंत्र- सप्त मुखी रुद्राक्ष को  “ॐ ह्रीं नमः” मंत्र का जाप कर के धारण करे |

♦ अष्ट मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- यह रुद्राक्ष साक्षात् साक्षी विनायक देव है |
लाभ- इस के धारण करने से पञ्च पातको का नाश होता है |

मंत्र-  इस को  “ॐ हम नमः”  मंत्र का जाप कर के धारण करने से परम पद की प्राप्ति होती है!

♦नवमुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप-  इसे भेरव और कपिल मुनि का प्रतीक माना गया है | नौ रूप धारण करने वाली भगवती दुर्गा इस की अधीश्तात्री मानी गई है |
लाभ- जो मनुष्य भगवती परायण हो कर अपनी बाई हाथ अथवा भुजा पर इस को धारण करता है, उस पर नव शक्तिया प्रसन्न होती है वह शिव के सामान बलि हो जाता है  |
मंत्र-  इसे “ॐ ह्रीं हुं नमः” का जाप कर के धारण करना चाहये |
♦दश मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- दश मुखी रुद्राक्ष साक्षात् भगवान जनादन है |
लाभ-  इस के धारण करने से ग्रह, पिचाश,बेताल,ब्रम्ह राक्षश,और नाग आदि का भय दूर होता है |

मंत्र-  इसे मंत्र “ॐ ह्रीं नमः” का जाप कर के धारण करना चाहिए |

♦एकादश मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- एकादश मुखी रुद्राक्ष एकादश रुदर स्वरुप है | 
लाभ- शिखा पर धारण करने से पुण्य फल,श्रेष्ठ यज्ञो के फल की प्राप्ति होती है | 
मंत्र-  एकादश मुखी रुद्राक्ष को  “ॐ ह्रीं हम नमः” का जाप कर के धारण करने से साधक सर्वत्र विजय होता है |
♦द्वादश मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- द्वादश मुखी रुद्राक्ष महा विष्णु का स्वरुप है |
लाभ- इसे कान में धारण करने से द्वादश आदित्य भी प्रस्सन होते है |
मंत्र-  इस रुद्राक्ष को  “ॐ क्रों क्षों रों नमः”का जाप कर के धारण करने से साधक साक्षात् विष्णु जी को मही धारण करता है |
♦तेरह मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप- तेरह मुखी रुद्राक्ष काम देश स्वरुप है |
लाभ- इस रुद्राक्ष को धारण करने से समस्त कामनाओ की इच्छा भोगो की प्राप्ति होती है |
मंत्र- इसे “ॐ ह्रीं हुम नमः” का जाप कर के धारण करना चाहये |
♦ चौदह मुखी रुद्राक्ष-
स्वरुप-  चौदह मुखी रुद्राक्ष अक्षि से उत्पन हुआ है,यह भगवान का नेत्र स्वरुप है |
लाभ-  इस को धारण करने से साधक शिव तुल्य हो कर सब व्यधियो और रोगों को हर लेता है और आरोग्य प्रदान करता है |
मंत्र- इस रुद्राक्ष को “ॐ नमः शिवाय “ का जाप कर के धारण करना चाहिए |

 

by Pandit Dayanand Shastri.
 

जानिए क्या करें अमावस्या को–


हमारे ग्रंथों और ग्रह नक्षत्रों के अनुसार भारतीय महीने में हर महीने पूर्णिमा और अमावस्या आती है।आइये आज हम आपको बताते हैं की आप अमावस्या को क्या करें की आपका जीवन ख़ुशी और समृद्ध रहे

हर अमावस्या को घर के कोने कोने को अच्छी तरह से साफ करे, सभी प्रकार का कबाड़ निकाल कर बेच दे। इस दिन सुबह शाम घर के मंदिर और तुलसी पर दिया अवश्य ही जलाएं इससे घर से कलह और दरिद्रता दूर रहती है।अमावस्या पर तुलसी के पत्ते या बिल्व पत्र बिलकुल भी नहीं तोडऩा चाहिए। अमावस्या पर देवीदेवताओं को तुलसी के पत्ते और शिवलिंग पर बिल्व पत्र चढ़ाने के लिए उन्हें एक दिन पहले ही तोड़कर रख लें।

धन लाभ के लिए अमावस्या के दिन पीली त्रिकोण आकृति की पताका विष्णुमन्दिर में ऊँचाई वाले स्थान पर इस प्रकार लगाएँ कि वह लगातार लहराती रहे, तो आपका भाग्य शीघ्र ही चमक उठेगा। लगातार स्थाई लाभ हेतु यह ध्यान रहे की झंडा वहाँ लगा रहना चाहिए। उसे आप समय समय पर स्वयं बदल भी सकते है।हर अमावस्या को गहरे गड्ढे या कुएं में एक चम्मच दूध डालें इससे कार्योंमें बाधाओं का निवारण होता है। इसके अतिरिक्त अमावस्या को आजीवन जौ दूध में धोकर बहाएं, आपका भाग्य सदैव आपका साथ देगा।

अमावस्या के दिन शनि देव पर कड़वा तेल, काले उड़द, काले तिल, लोहा, कालाकपड़ा और नीला पुष्प चढ़ाकर शनि का पौराणिक मंत्र ऊँ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रंयमाग्रजम। छायामार्तण्डसंभुतं नमामि शनैश्चरम।की एक माला का जाप करने से शनि का प्रकोप शांत होता है , एवं अन्य ग्रहों के अशुभ प्रभावों से भी छुटकारा मिलता है । हर अमावस्या को पीपल के पेड़ के नीचे कड़वे तेल का दिया जलाने से भी पितृ और देवता प्रसन्न होते हैं।प्रत्येक अमावस्या को गाय को पांच फल भी नियमपूर्वक खिलाने चाहिए, इससे भी घर में शुभता एवं हर्ष का वातावरण बना रहता है ।

अमावस्या के दिन किसी सरोवर पर गेहूं के आटे की गोलियां ले जाकर मछलियों को डालें। इस उपाय से पितरों के साथ ही देवीदेवताओं की कृपा भी प्राप्त होती है, धन सम्बन्धी सभी समस्याओं का निराकरण होता है।अमावस्या के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नित्यकर्मों से निवृत्त होकर पवित्र होकर जो व्यक्ति रोगी है उसके कपड़े से धागा निकालकर रूई के साथ मिलाकर उसकी बत्ती बनाएं। फिर एक मिट्टी का दीपक लेंकर उसमें घी भरकर, रूई और धागे की बत्ती लगाकर यह दीपक हनुमानजी के मंदिर में जलाएं और हनुमान चालीसा का पाठ करें। इस उपाय से रोगी की तबियत जल्दी ही सुधरने लगती है। यह उपाय उसके बाद कम से कम 7 मंगलवार और शनिवार को भी नियमित रूप से करना चाहिए।

अमावस्या के दिन एक कागजी नींबू लेंकर शाम के समय उसके चार टुकड़े करके किसी भी चौराहे पर चुपचाप चारों दिशाओं में फेंक दें। इस उपाय से जल्दी ही बेरोजगारी की समस्या दूर हो जाती है।अमावस्या की रात्रि में 8 बादाम और 8 काजल की डिबिया काले कपडे में बांध कर सिंदूर में रखे, इससे शीघ्र ही आर्थिक समस्याओं का समाधान होता है ।

जानिए लाल किताब अनुसार शुभ ग्रह होने पर क्या रखें सावधानी

*सूर्य शुभ हो तो क्या न करें दान

जिनकी कुण्डली में सूर्य सिंह अथवा वृश्चिक राशि में बैठा है। ऐसे व्यक्ति के लिए लाल किताब कहता है कि इन्हें सूर्य से संबंधित वस्तुएं जैसे गेहूं, गुड़, तांबे की वस्तुओं का दान नहीं करना चाहिए। जो लोग इनका दान करते है उनका सूर्य मंदा हो जाता है और सूर्य से प्राप्त होने वाले शुभ फलों में कमी आती है। इससे नौकरी में अधिकारी से मतभेद होता है। सरकारी कार्यों में बाधा आती है। पिता एवं पैतृक संपत्ति के सुख में कमी आती है। जिनकी जन्मपत्री में सूर्य 7वें अथवा 8वें घर में बैठा है उन्हें सुबह एवं शाम के समय दान नहीं देना चाहिए। इससे धन की हानि होती है, आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

*चन्द्र शुभ हो तो दान में सावधानी

जिस व्यक्ति की कुण्डली में चन्द्रमा दूसरे अथवा चौथे भाव में बैठा होता है उसे माता से सुख मिलता है। सुखसुविधाओं में वृद्धि होती है तथा शारीरिक एवं मानसिक सुखशांति की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति चन्द्र से संबंधित वस्तु जैसे मोती, दूध, चीनी, चावल का दान करता है। उनका चन्द्रमा मंदा हो जाता है,
चन्द्र से संबंधित शुभ फलों में कमी आती है। जिनकी जन्मपत्री में चन्द्रमा छठे भाव में होता है उन्हें धर्मार्थ हैंडपंप नहीं लगाना चाहिए।

*मंगल शुभ हो तो मिठाई न करें दान

लाल किताब में मंगल शुभ वाले व्यक्ति के लिए मिठाई का दान करना वर्जित बताया गया है। इन्हें मसूर की दान, बेसन के लड्डू एवं लाल वस्त्रों का दान नहीं करना चाहिए।

*बुध शुभ हो तो दान में परहेज

बुध को बुआ, मौसी, बहन, व्यवसाय एवं बुद्धि का कारक कहा जाता है। बुध मजबूत वाला व्यक्ति बुध से संबंधित वस्तु जैसे मूंग की दाल, कलम, हरा वस्त्र, घड़ा दान करता है तो बुद्धि भ्रमित होती हैं। बुध से संबंधित रिश्तेदारों को कष्ट होता है।

*गुरू शुभ हो तो नए वस्त्र दान न करें

लाल किताब के अनुसार जिन व्यक्तियों की कुण्डली में गुरू सातवें घर में बैठा है उस व्यक्ति को नए वस्त्रों का दान नही करना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करता है उसे खुद ही वस्त्रों की कमी हो जाती है। गुरू नवम भाव में, सप्तम भाव में, चौथे अथवा प्रथम भाव में शुभ स्थिति में बैठा हो तो गुरू से संबंधित वस्तु जैसे हल्दी, सोना, केसर एवं पीली वस्तुओं का दान नहीं करना चाहिए। इससे आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

*शनि शुभ है तो भी बरतनी होगी सावधानी

शनि दोष से मुक्ति के लिए ज्योतिषशास्त्र में तेल, तिल, लोहा काले वस्त्रों का दान करने के लिए कहा जाता है। इसके विपरीत लाल किताब में कहा गया है कि कुण्डली में अगर शनि तुला राशि, मकर या कुंभ में हो तो व्यक्ति को इन वस्तुओंका दान नहीं करना चाहिए। इससे शनि मंदा हो जाता है, यानी शनि के शुभ फलों में कमी आ जाती है। व्यक्ति को लाभ के बदले नुकसान उठाना पड़ता है।

*शुक्र शुभ हो तो श्रृंगार की वस्तुएं न करें दान

शुक्र को भौतिक सुखसुविधा प्रदान करने वाला ग्रह कहा जाता है। जिनकी कुण्डली में शुक्र दूसरे अथवा सातवें घर में हो, वृष अथवा तुला राशि में बैठा उन्हें रेडिमेड वस्त्र का दान नहीं करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को श्रृंगार की वस्तुओं का भी दान नहीं करना चाहिए

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जानिए की केसे यह साधारण उपाय करेगा आपकी आर्थिक समस्या को दूर

मिट्टी के दो घड़े ले। एक घडे़ में सवा किलो हरी मूंग की दाल व दूसरे घडे़ में सवा किलो नमक भर दे। इन दोनों घड़ों को घर में रख दें। यह उपाय बुधवार को करे। धन की वृद्धि होने लगेगी। पके हुए मिट्टी के घड़े को लाल रंग से रंगकर उसके मुख पर लाल रंग का पचरंगी नाड़ा बांधकर जटा वाले नारियल को उसके मुख पर रखकर नदी के जल में प्रवाहित कर दे। सुख व समृद्धि की प्राप्ति होगी। यह उपाय बुधवार को करें। मिट्टी का एक छोटा सा कलश लें। इसमें कुछ रूपये व सिक्के रखकर व सोने और चांदी का छोटा सा टुकड़ा डालकर लाल कपड़े से मुंह बांधकर अपने घर के उत्तर व पश्चिम दिशा वाले कोण में रखें। यह उपाय आमदनी में वृद्धि करायेगा। यदि ये टोटका दुकान पर किया जाए तो दुकान चल निकलेगी अर्थात् पैसे की आवकजावक होने लगेगी।

आइये जाने गुरु और राहु ग्रह का प्रभाव और लाभ हानि

प्रिय पाठकों,
गुरुराहु की युति या इनका दृष्टि संबंध इंसान के विवेक को नष्ट कर देता है। यही कारण रावण के सर्वनाश का रहा।यदि राहु बहुत शक्तिशाली नहीं हुए परन्तु गुरू से युति है तो इससे कुछ हीन स्थिति नजर में आती है। इसमें अधीनस्थ अपने अधिकारी का मान नहीं करते। गुरूशिष्य में विवाद मिलते है।शोध सामग्री की चोरी या उसके प्रयोग के उदाहरण मिलते है, धोखाफरेब यहां खूब देखने को मिलेगा परन्तु राहु और गुरू युति में यदि गुरू बलवान हुए तो गुरू अत्यधिक समर्थ सिद्ध होते है और शिष्यों को मार्गदर्शन देकर उनसे बहुत बडे़ कार्य या शोध करवाने में समर्थ हो जाते है। शिष्य भी यदि कोई ऎसा अनुसंधान करते है जिनके अन्तर्गत गुरू के द्वारा दिये गये सिद्धान्तों में ही शोधन सम्भव हो जाए तो वे गुरू की आज्ञा लेते है या गुरू के आशीर्वाद से ऎसा करते है। यह सर्वश्रेष्ठ स्थिति है और मेरा मानना है कि ऎसी स्थिति में उसे गुरू चाण्डाल योग नहीं कहा जाना चाहिए बल्कि किसी अन्य योग का नाम दिया जा सकता है परन्तु उस सीमा रेखा को पहचानना बहुत कठिन कार्य है जब गुरू चाण्डाल योग में राहु का प्रभाव कम हो जाता है और गुरू का प्रभाव बढ़ने लगता है। राहु अत्यन्त शक्तिशाली है और इनका नैसर्गिक बल सर्वाधिक है तथा बहुत कम प्रतिशत में गुरू का प्रभाव राहु के प्रभाव को कम कर पाता है। इस योग का सर्वाधिक असर उन मामलों में देखा जा सकता है जब दो अन्य भावों में बैठे हुए राहु और गुरू एक दूसरे पर प्रभाव डालते है।अशुभता का नियंत्रणगुरु चांडाल योग के जातक के जीवन पर जो भी दुष्प्रभाव पड़ रहा हो उसे नियंत्रित करने के लिए जातक को किसी योग्य एवम् अनुभवी ब्राह्मण से चर्चा कर ज्योतिष संबंधी उपाय करने चाहिए।

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जानिए आपकी जन्मकुंडली के लग्न अनुसार की कैसे विभिन्न धातु के बर्तनों को प्रयोग कर विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाव और उनसे मुक्ति प्राप्त कर सकते है:-
*मेष, सिँह, वृश्चिक लग्न के व्यक्ति
यदि भोजन के लिए ताँबे के बर्तनों का प्रयोग करे तो जहाँ एक ओर ये उनके पित्त को निर्दोष रख, गुर्दे का रोग, ह्रदय दौर्बल्य, मेद रोग, रक्त व्याधि, यक्ष्मा, अर्शभगंदर इत्यादि किसी प्रकार के पुराने चले आ रहे रोग के लिए रामबाण औषधी का काम करेगा, वहीं इसके नियमित प्रयोग से नया रोग भी उनके नजदीक फटकने से पहले सौ बार सोचेगा।

*मिथुन,कन्या, धनु और मीन लग्न के व्यक्तियों द्वारा

लोह (स्टील) पात्रों का अधिक मात्रा में प्रयोग विस्मृ्ति (यादद्दाश्त में कमी), अनिन्द्रा, गठिया, जोडों का दर्द, मानसिक तनाव, अमलता, आन्त्रदोष इत्यादि किसी रोग का कारण बनता है। इनके लिए भोजन में काँसे के बर्तनों को प्रयुक्त करना शारीरिक रूप से सदैव हितकारी रहेगा।

*वृ्ष, कर्क, तुला लग्न के व्यक्तियों

सदैव भोजन के लिए चाँदी और पीतल (मिश्र धातु) दोनों प्रकार के बर्तनों का संयुक्त रूप से प्रयोग करना चाहिए।लोह पात्रों का अधिकाधिक उपयोग इनके लिए नेत्र पीडा, स्वाद ग्रन्थियाँ, कफजन्य रोग, असन्तुलित रक्त प्रवाह, कर्णनाद, शिरोव्यथा, श्वासरोग इत्यादि किसी रोगव्याधी का कारण बनता है।
* मकर लग्न के व्यक्ति
मकर लग्न के लिए अन्य किसी भी धातु के सहित प्रतिदिन लकडी के पात्र का प्रयोग करना भी इन्हे वायु दोष, चर्म रोग, विचार शक्ति की उर्वरता में कमी, एवं तिल्ली के विकारों से मुक्ति में सहायक और भविष्य में उनसे बचाव हेतु रामबाण इलाज है।
* कुम्भ लग्न के व्यक्ति
कुम्भ लग्न के व्यक्ति के लिए तो लोहा (स्टील) ही सर्वोतम धातु है ।इसके साथ ही इस लग्न के व्यक्तियों को यदाकदा मिट्टी के पात्र में केवडा मिश्रित जलका भी सेवन अवश्य करते रहना चाहिए।

by  Pandit Dayanand Shastri.

इस वर्ष मोहिनी एकादशी 17 मई 2016 (मंगलवार) को मनाई जायेगी।

इस वर्ष वैशाख शुक्ल एकादशी तिथि 17 मई 2016 ( मंगलवार) को है। इस एकादशी को मोहिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है।

धर्मशास्त्रों के अनुसार यह तिथि सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है । इस दिन जो व्रत  रखता है उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य मोहजाल तथा पापों से छुटकारा पा सकते है । हिन्दू धार्मिक मान्यता अनुसार वैशाख माह में कृष्ण पक्ष की एकादशी मोहिनी एकादशी के नाम से  जानी जाती है।

इस धार्मिक ग्रंथो के अनुसार जब समुद्र मंथन के समय अमृत को लेकर देवताओ और दानवो में विवाद छिड़ गया। इस विवाद को समाप्त करने एवम दानवो को अमृत से दूर रखने के लिए भगवान विष्णु अति सुन्दर नारी रूप धारण कर देवताओ और दानवो के बीच पहुंच गए। भगवान विष्णु के नारी रूप को देख दानव लोग उनपर मोहित हो गये, तब भगवान विष्णु जी ने दिग्भ्रमित दानवों से अमृत कलश छीनकर देवताओं को सौंप दिया। तत्पश्चात सभी देवताओं ने अमृत पान किया, जिससे समस्त देवता गण अमर हो गए।  जिस दिन भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप को धारण किया था उस दिन एकादशी तिथि थी। अतः इस एकादशी को मोहिनी एकादशी कहा जाता है।

जिस प्रकार कार्तिक के समान वैशाख मास उत्तम माना गया है उसी प्रकार वैशाख मास की यह एकादशी भी उत्तम कही गयी है। इसका कारण यह है कि संसार में सभी प्रकार के पापों का कारण मोह माना गया है। विधि विधान पूर्वक इस एकादशी का व्रत रखने से मोह का बंधन ढ़ीला होता जाता है और मनुष्य ईश्वर का सानिध्य प्राप्त कर लेता है। इससे मृत्यु के बाद नर्क की कठिन यातनाओं का दर्द नहीं सहना पड़ता है।

मोहिनी एकादशी के विषय में शास्त्र कहता है कि, त्रेता युग में जब भगवान विष्णु रामावतार लेकर पृथ्वी पर आये तब इन्होंने भी गुरू वशिष्ठ मुनि से इस एकादशी के विषय में ज्ञान प्राप्त किया था। संसार को इस एकादशी का महत्व समझाने के लिए भगवान राम ने स्वयं भी यह एकादशी व्रत किया था। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को इस व्रत को करने की सलाह दी थी।

जिस दिन भगवान विष्णु मोहिनी रूप में प्रकट हुए थे उस दिन एकादशी तिथि थी। भगवान विष्णु के इसी मोहिनी रूप की पूजा मोहिनी एकादशी के दिन की जाती है। इस एकादशी को संबंधों में आये दरार को दूर करने वाला भी माना गया है।

♦जानिए की कब और कैसे करें वर्ष 2016 में मोहिनी एकादशी का पारणा-

एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारणा कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारणा किया जाता है। एकादशी व्रत का पारणा द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है, यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारणा सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारणा न करना पाप करने के समान होता है। एकादशी व्रत का पारणा हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारणा करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्यान के बाद पारण करना चाहिए।

18th मई 2016 को, पारणा (व्रत तोड़ने का) समय    =              05:32 से 08:14
पारणा तिथि के दिन द्वादशी समाप्त होने का समय         =             19:52
एकादशी तिथि प्रारम्भ                                             =             16/मई/2016 को 14:50 बजे ।
एकादशी तिथि समाप्त                                            =             17/मई/2016 को 17:17 बजे।

♦जानिए  मोहिनी एकादशी व्रत की कथाः-

भद्रावती नाम की सुन्दर नगरी थी। वहां के राजा धृतिमान थे। इनके नगर में धनपाल नाम का एक वैश्य रहता था, जो धन-धान्य से परिपूर्ण था। वह सदा पुण्यकर्म में ही लगा रहता था। इसके पाँच पुत्र थे इनमें सबसे छोटा धृष्टबुद्धि था। यह पाप कर्मों में अपने पिता का धन लुटा रहा था। एक दिन वह नगर वधू के गले में बांह डाले चौराहे पर घूमता देखा गया। इससे नाराज होकर पिता ने उसे घर से निकाल दिया तथा बन्धु बान्धवों ने भी उसका परित्याग कर दिया। अब वह दिन रात दु:ख और शोक डूबकर इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन किसी पुण्य के प्रभाव से महर्षि कौण्डिल्य के आश्रम पर जा पहुंचा। वैशाख का महीना था। कौण्डिल्य गंगा में स्नान करके आये थे। धृष्टबुद्धि शोक के भार से पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिल्य के पास गया और हाथ जोड़कर बोला: ‘ब्रह्मन्! द्विजश्रेष्ठ ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्य के प्रभाव से मेरी मुक्ति हो।’

कौण्डिल्य बोले: वैशाख मास के शुक्लपक्ष में ‘मोहिनी’ नाम से प्रसिद्ध एकादशीका व्रत करो। इस व्रत के पुण्य से कई जन्मों के पाप भी नष्ट हो जाते हैं। धृष्टबुद्घि ने ऋषि के बताये विधि के अनुसार व्रत किया जिससे वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर श्रीविष्णुधाम को चला गया।

♦जानिए मोहिनी एकादशी व्रत की विधिः-

हिन्दू धार्मिक ग्रंथो के अनुसार एकादशी के दिन रात्रि जागरण करने का उल्लेख मिलता है। अतः एकादशी की रात्रि में ना सोए। बल्कि भगवान विष्णु जी का भजन-कीर्तन करे। अगले दिन अर्थात द्वादशी के दिन पूजा-दान एवम ब्राह्मणो को भोजन कराने के पश्चात व्रत खोलें।

जो व्यक्ति मोहिनी एकादशी का व्रत करे,उसे एकदिन पूर्व अर्थात दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का पालन करना चाहिए। व्रत के दिन एकादशी तिथि में व्रती को सुबह सूर्योदय से पहले उठना चाहिए और नित्य कर्म कर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। स्नान के लिये किसी पवित्र नदी या सरोवर का जल मिलना श्रेष्ठ होता है। अगर यह संभव न हों तो घर में ही जल से स्नान करना चाहिए।

स्नान करने के लिये कुश और तिल के लेप का प्रयोग करना चाहिए। स्नान करने के बाद साफ वस्त्र धारण करने चाहिए। इस दिन भगवान श्रीविष्णु के साथ-साथ भगवान श्रीराम की पूजा भी की जाती है। व्रत का संकल्प लेने के बाद ही इस व्रत को शुरु किया जाता है। संकल्प लेने के लिये इन दोनों देवों के समक्ष संकल्प लिया जाता है। देवों का पूजन करने के लिये कलश स्थापना कर,उसके ऊपर लाल रंग का
वस्त्र बांध कर पहले कलश का पूजन किया जाता है।

इसके बाद इसके ऊपर भगवान कि तस्वीर या प्रतिमा रखें तत्पश्चात भगवान की प्रतिमा को स्नानादि से शुद्ध कर उत्तम वस्त्र पहनाना चाहिए। फिर धूप,दीप से आरती उतारनी चाहिए और मीठे फलों का भोग लगाना चाहिए। इसके बाद प्रसाद वितरीत कर ब्राह्मणों को भोजन तथा दान दक्षिणा देनी चाहिए। रात्रि में भगवान का कीर्तन करते हुए मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए।

इस एकादशी का व्रत रखने वाले को अपना मन साफ रखना चाहिए। प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करे इसके बाद शुद्घ वस्त्र पहनकर भगवान विष्णु के मूर्ति अथवा तस्वीर के सामने घी का दीपक जलाएं और तुलसी, फल, तिल सहित भगवान की पूजा करें। व्रत रखने वाले को स्वयं तुलसी पत्ता नहीं तोड़ना चाहिए।

किसी के प्रति मन में द्वेष की भावना नहीं लाएं और न किसी की निंदा करें। व्रत रखने वाले को पूरे दिन निराहार रहना चाहिए। शाम में पूजा के बाद चाहें तो फलाहार कर सकते हैं। एकादशी के दिन रात्रि जागरण का बड़ा महत्व है। संभव हो तो रात में जगकर भगवान का भजन कीर्तन करें। अगले दिन यानी द्वादशी तिथि को ब्राह्मण भोजन करवाने के बाद स्वयं भोजन करें।

by  Pandit Dayanand Shastri.

वास्तु नियम अपनाएं। जीवन को सुखी और समृद्ध बनाये।

वर्तमान समय में वास्तु शास्त्र का प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अत्याधिक महत्व है क्योंकि वास्तु अनुकूल नहीं होगा तो मानसिक शांति कैसे होगी ?  सुखमय जीवन के लिए वास्तु देवता की प्रसन्नता आवश्यक है। इसलिए गृह पूजन में ‘स्थानदेवताभ्यो नम:’, ‘वास्तु देवताभ्यो नम:’ आदि मंत्रों से शांति प्रदान करने का विधान है।  प्रत्येक दिशा का अपना महत्व है।

दिशाओं का वास्तु शास्त्र से अटूट संबंध है। आवासीय भवन के लिए भूमि खरीदने सेपहले मुख्यत: निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

समतल भूमि-  समतल भूमि सभी के लिए शुभ होती है – “सर्वेषां चैवजनानां समभूमिशुभावता” । इस प्रकार समतल भूमि आवास निर्माण के लिए सर्वथा लाभकारी भूमि है।

गजपृष्ठ भूमि- जो भूमि दक्षिण नैऋृत्य (दक्षिणी-पश्चिमी कोण पर) पश्चिम या वायव्य (उत्तरी-पश्चिमी कोण पर) ऊंची हो वह गजपृष्ठ भूमि कही जाती है। इस भूमि पर बने भवन का निवासी धन-धान्य से युक्त, समृद्धिशाली, दीर्घायु व निरोगी होता है।

कूर्मपृष्ठ भूमि-  जो भूमि मध्य में ऊंची तथा चारो तरफ नीची हो, ऐसे भूखंड को कूर्मपृष्ठ भूमि कहते हैं। कूर्मपृष्ठ भूखंड पर निर्मित भवन में वास करने वाले व्यक्ति को नित्य सुख की प्राप्ति होती है।

दैत्यपृष्ठ भूमि-  जो अग्निकोण तथा उत्तर दिशा में ऊंची व पश्चिमी दिशा में नीची हो उस भूमि को दैत्यपृष्ठ भूमि कहते हैं। यह भूमि शुभ नहीं मानी जाती। ऐसी भूमि पर निवास करने वाला व्यक्ति धन, पुत्र, पशु सहित सभी सुखों से वंचित रहता है। ऐसी भूमि यदि अल्प मूल्य में भी प्राप्त हो तो कतय न ख़रीदे।

नागपृष्ठ भूमि- पूरब-पश्चिम को लंबी, उत्तर-दक्षिण को ऊंची तथा बीच में कुछनीची भूमि को नागपृष्ठ भूमि कहते हैं। इस पर आवास निर्मित करने से उच्चाटन होता है। इस प्रकार के भवन निर्माता को मृत्यु तुल्य कष्ट, पत्नी हानि, पुत्रहानि तथा प्रत्येक पग पर शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार नागपृष्ठभूमि निम्न कोटि की मानी जाती है। वस्तुत: व्यक्ति भवन का निर्माण सुख-शांति से रहने के लिए करता है। यदि इनबातों का ध्यान रखकर भवन निर्माण हेतु भूमि का चयन किया जाए तो इच्छित फल की प्राप्ति हो सकती है। अनिष्टकारी भूखंडों से बचाव के लिए तथ्यों का भली-भांति ज्ञान आवश्यक है। इन सबके अतिरिक्त जिस भूमि पर मकान बनाना हो उसका जीवंत होना भी आवश्यक है। कृषि व बागवानी की भूमि सर्वथा जीवंत होती है, जहां वृक्ष हरे-भरे रहते हैं, फसलें हर्षित व प्रवर्धित होती हैं, वह भूमि जीवंत मानी जाती है। जहां उत्तमोत्तम वृक्ष  लताएं रहें, मिट्टी समतल हो, शुष्क अथवा ऊसर न हो, ऐसी भूमि पर निवास करने वाला मनुष्य सुखी रहता है। ऐसी भूमि पर यदि राहगीर भी बैठ जाए तो उसे भी सुख प्राप्ति की संभावना बढ़ जाती है।

♦जानिए भूखंडों का फल-

आयताकार भूखंड का भवन सर्वसिद्धिकारक, चतुर्भुजी भूखंड का भवन धनागम कारक,भद्रासन (जिसकी लंबाई, चौड़ाई से अधिक हो) भूखंड का भवन कार्य में सफलता दायकतथा वृत्ताकार भूखंड का भवन शारीरिक पुष्टिकारक होता है। ठीक इसके विपरीतकार भूखंड का भवन दरिद्रता देने वाला, विषयकारक, शोकदायी, त्रिकोणाकारभूखंड का भवन राजभय कारक, शंकु आकार वाले भूखंड का भवन धन नाशक और पशुओं कीहानि देने वाला, बृहन्मुख भूखंड का भवन बंधु-वांधवों का नाश करता है। सामान्यतया भवन निर्माण के लिए वर्गाकार अथवा आयताकार भूखंड उत्तम होता है।आयताकार भूखंडकी चौड़ाई, लंबाई से दो गुना या इससे कम हो तो श्रेष्ठ होता है। यदि निकास पूरब या ईशान कोण पर हो तो अत्यंत लाभकारी होता है। यदि बाहर जाने का मार्ग आग्नेय कोण या वायव्य कोण की ओर हो तो उत्तम नहीं माना जाता है।

वास्तुशास्त्र में दिशा का ज्ञान अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। विभिन्न दिशाओं
का इन ग्रहों से गहरा संबंध है-(सारणी या टेबल बनायें)–

दिशा                  स्वामी       ग्रहों के स्थान
पूरब                  इंद्र             शुक्र
आग्नेय            अग्नि           चंद्रमा
दक्षिण                यम              यम
नैऋत्य             निऋति       राहु
पश्चिम            वरुण          शनि
वायव्य            वायु             केतु
उत्तर                कुबेर           बृहस्पति                 

ईशान                  शिव           बुध
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जानिए मिट्टी परीक्षण कैसे करें :–

भूखंड की उत्तर दिशा की ओर लगभग दो फुट गहरा तथा चौड़ा गड्ढा खोदें। गड्ढे की सारी मिट्टी निकालकर अलग रखें और पुन: उसी मिट्टी से गढ्ढे को भरें। यदि गड्ढा भरने पर मिट्टी शेष बचती है अर्थात मिट्टी अधिक निकलती है तो समझे कि इस भूमि पर भवन निर्माण शुभदायक है। यदि मिट्टी कम पड़ जाती है तो समझ लें कि उपयुक्त नहीं है।

मिट्टी का द्वितीय परीक्षण तीन फीट का गड्ढा भूखंड के बीच में खोदकर किया जाए। इसमें पूर्णत: पानी भर दें, फिर सौ कदम दूर जाकर पुन: उसी स्थान पर आने से यदि पानी का स्तर वही रह जाता है तो भूमि अत्यंत शुभ मानी जाती है। यदि पानी कास्तर आधे से अधिक हो तो मध्यम, यदि आधे से कम हो तो भूमि का प्रभाव अच्छा नहींहोता है।

दिशा-  भूखंड के चारो ओर सड़क अत्यंत शुभ मानी जाती है। दो या तीन तरफ सड़क हो तो भी भूखंड शुभ होता है। एक तरफ सड़क पूरब या उत्तर की ओर हो तो उचित होता है। पश्चिम या दक्षिण दिशा में भी सड़क होने पर भूखंड खरीदा जा सकता है। ढाल- उत्तर या पूरब की ओर ढाल होना अत्यंत शुभ माना गया है। उपरोक्त ढाल केअतिरिक्त ढाल होने पर उपाय करना आवश्यक है। सड़क के अंतिम स्थान पर भूखंड
खरीदना शुभ नहीं माना जाता है।

शल्य शोधन-  भूखंड के पास मंदिर, पत्थर, नदी, तालाब, जलाशय, वृक्ष व दबे हुए दूषित पदार्थों की उपस्थिति पर भी विचार कर लेना चाहिए। वास्तु शास्त्र में भूमि का शल्योद्धार करने से भूमि के गर्भ में दबे हुए उन दूषित पदार्थों का बाहर निकालना आवश्यक है, जिनकी उपस्थिति से रोग, भय, बाधाएं तथा अन्य प्रकार के कष्ट उत्पन्न होते हैं।

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जानिए की कैसा हो गृह प्रारंभ मुहूर्त-

कोई भी भवन बाह्य दृष्टि से भव्य हो सकता है परन्तु वास्तु की दृष्टि शुभ या अशुभ हो सकता है। यदि भवन का निर्माण शुभ मुहूर्त में प्रारंभ होता है तो भवन शुभ होता है अन्यथा अशुभ व दु:खदायी हो सकता है। चैत्र, वैशाख, सावन, कार्तिक, माघ, अगहन व फाल्गुन मास गृहारंभ के लिए उत्तम होते हैं। चैत्र, कार्तिक व माघ मास तभी ग्राह्य हैं जब मेष, वृश्चिक व कुंभ की संक्रांति में हों। ज्येष्ठ, अषाढ़, भाद्रपद, अश्विन और खरमासों में गृहारंभ नहीं होना चाहिए। रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, हस्त, उत्तराषाढ़, श्रवण व पुष्य गृहारंभ हेतु शुभ है। स्वाती, अनुराधा, अश्विनी, शतमिषा, उत्तराभाद्र आदि मध्यम स्तर के हैं। इसके अतिरिक्त शेष नक्षत्र अशुभ हैं।

♦जानिए कब और केसा हो गृह प्रवेश का शुभ मुहूर्त–

गृहारंभ के बाद दरवाजा एवं चौखट लगाने का अंतिम रूप से गृह प्रवेश का मुहूर्त महत्व का है। गृह प्रवेश के लिए सूर्य का उत्तरायण होना तथा बृहस्पति व शुक्र का सबल होने के साथ ही अनुष्ठान होना आवश्यक है। वैशाख, ज्येष्ठ और फाल्गुन मास गृहप्रवेश के लिए उत्तम मास हैं। गृह प्रवेश के लिए कृष्ण पक्ष की
प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया व पंचमी तथा शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी व त्रयोदशी तिथियां शुभ हैं। नक्षत्रों में रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ व चित्रा नक्षत्र श्रेष्ठ हैं। अनुराधा तथास्वाती नक्षत्र मध्यम तथा शेष में गृह प्रवेश अशुभ है। दिनों में सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार गृह प्रवेश के लिए शुभ दिन हैं। शनिवार को भी शुभ माना गया है लेकिन चोरी होने का भय रहता है।

गृह निर्माण से पूर्व दिशा-विदिशाओं का ज्ञान एवं इसका शोधन करना अत्यंत आवश्यक है। दिशा विहीन निर्माण से मनुष्य जीवन भर भ्रमित होकर दु:ख, कष्टादि का भागी होता है। वास्तु शास्त्र में दिशा ज्ञान हेतु सिद्धान्त ज्योतिष के तहत दिक्साधन की प्रक्रिया पूर्वकाल में विभिन्न रूपों में व्यवहृत थी। प्रक्रियान्तर्गत द्वादशांगुल शंकु की छाया से, ध्रुवतारा अवलोकन से और दीपक के संयोग से पूर्वापरादि का साधन उपलब्ध था। किन्तु ये साधन प्र्रक्रियाएं कुछ जटिल व स्थूलप्राय हैं। यही कारण है कि आज चुम्बक यंत्र (कंपास) का प्रयोग किया जा रहा है। दिशाओं के ज्ञान के बाद विदिशाओं अर्थात कोण का ज्ञान भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि दिशाओं के साथ ही विदिशाओं का भी प्रभाव गृह निर्माण पर अनवरत पड़ता रहता है। विदिशा क्षेत्र किसी भी दिशा के कोणीय भाग से 22.5 डिग्री से लेकर 45 डिग्री तक होता है। इस तरह चार दिशा एवं चार विदिशा का पारिमाणिक वृत्त 360 डिग्री में सन्नद्ध आठ दिशाओं का ज्ञान होता है। इन आठों दिशाओं में वास्तु शास्त्र के अनुसार यदि निर्माण प्रक्रिया प्रारंभ की जाय तो यह निश्चित हे कि गृहकर्ता सुख-समृद्धि, शांति व उन्नति को प्राप्त करता हुआ चिरस्थायी निवासकरता है। दिशाओं में देवी-देवताओं और स्वामी ग्रहों के आधिपत्य से संबंधित बहुत चर्चाएं की गई हैं। दिशाओं के देव व स्वामी होने से पृथ्वी पर किसी भूखंड पर निर्माणकार्य प्रारंभ करते समय यह विचार अवश्य कर लेना होगा कि भूखंड के किस भाग में किस उद्देश्य से गृह निर्माण कराया जा रहा है। यदि उस दिशा के स्वामी या अधिकारी देवता के अनुकूल प्रयोजनार्थ निर्माण नहीं हुआ तो उस निर्माणकर्ता को उस दिशा से संबंधित देवता का कोपभाजन होना पड़ता है। इसलिए आठों दिशाओं व स्वामियों के अनुसार ही निर्माण कराना चाहिए।

पूर्व दिशा-  सूर्योदय की दिशा ही पूर्व दिशा है। इसका स्वामी ग्रह सूर्य है , इस दिशा के अधिष्ठाता देव इन्द्र हैं। इस दिशा का एक नाम प्राची भी है। पूर्वदिशा से प्राणिमात्र का बहुत गहरा संबंध है। किन्तु सचेतन प्राणी मनुष्य का इसदिशा से कुछ अधिक ही लगाव है। व्यक्ति के शरीर में इस दिशा का स्थान मस्तिष्क के विकास से है। इस दिशा से पूर्ण तेजस्विता का प्रकाश नि:सृत हो रहा है। प्रात:कालीन सूर्य का प्रकाश संपूर्ण जगत को नवजीवन से आच्छादित कर रहा है। इस प्रकार आत्मिक साहस और शक्ति दिखलाने वाला प्रथम सोपान पूर्व दिशा ही है। जोहर एक को उदय मार्ग की सूचना दे रही है। इस दिशा में गृह निर्माणकर्ता को निर्माण करने अभ्युदय और संवर्धन की शक्ति अनवरत मिलती रहती है।

दक्षिण दिशा-  दक्षिण दक्षता की दिशा है। इसका स्वामी ग्रह मंगल और अधिष्ठाता देव यम हैं। इस दिशा से मुख्यत: शत्रु निवारण, संरक्षण, शौर्य एवं उन्नति का प्राणी में जननशक्ति एवं संरक्षण शक्ति का समन्वय होता है। इसीलिए वैदिक विचार किया जाता है, इस दिशा के सुप्रभाव से संरक्षक प्रवृत्ति का उदय, उत्तम संतानोत्पत्ति की क्षमता तथा मार्यादित रहने की शिक्षा मिलती है। इस दिशा से प्राणी में जननशक्ति एवं संरक्षण शक्ति का समन्वय होता है। इसीलिए वैदिक साहित्य में इस दिशा का स्वामी पितर व कामदेव को भी कहा गया है। यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में प्रमुख कर्ता हेतु शयनकक्ष दक्षिण दिशा में होना अत्यंत श्रेष्ठ माना गया है। वास्तुशास्त्र के अनुरूप गृह निर्माण यदि दक्षिणवर्तीअशुभों से दूर रहकर किया जाए तो गृहस्वामी का व्यक्तित्व, कृतित्व एवंदाक्षिण्यजन्य व्यवहार सदा फलीभूत रहता है।

पश्चिम दिशा- पश्चिम शांति की दिशा है। इस दिशा का स्वामी ग्रह शनि और अधिष्ठाता देव वरुण हैं। इसका दूसरा नाम प्रतीची है। सूर्य दिन भरप्रवृत्तिजन्य कार्य करने के पश्चात पश्चिम दिशा का ही आश्रय ग्रहण करता है।इस प्रकार योग्य पुरुषार्थ करने के पश्चात थोड़ा विश्राम भी आवश्यक है। अत प्रत्येक मनुष्य को इस दिशाजन्य प्रवृत्ति के अनुरूप ही वास्तु निर्माण  निर्देशित कक्ष या स्थान की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। वास्तु के नियमानुसार मनुष्य को प्रवास की स्थिति में सिर पश्चिम करके सोना चाहिए।

उत्तर दिशा- यह उच्चता की दिशा है। इस दिशा का स्वामी ग्रह बुध और अधिष्ठाता देव कुबेर हैं। किन्तु ग्रंथान्तर में सोम (चंद्र) को भी देवता माना गया है। इस दिशा का एक नाम उदीची भी है। इस दिशा से सदा विजय की कामना पूर्ति होती है। मनुष्य को सदा उच्चतर विचार, आकांक्षा एवं सुवैज्ञानिक कार्य का संकल्प लेना चाहिए। यह संकल्प राष्ट्रीय भावना के परिप्रेक्ष्य में हो किंवा परिवार समाजको प्रेमरूप एकता सूत्र में बांधने का, ये सभी सफल होते हैं। ऐसी अद्भुतसंकल्प शक्ति उत्तर दिशा की प्रभावजन्य शक्ति से ही संभव हो सकती है। अभ्युदयका मार्ग सुगम और सरल हो सकता है। स्वच्छता, सामर्थ्य एवं जय-विजय की प्रतीकयह दिशा देवताओं के वास करने की दिशा भी है, इसीलिए इसे सुमेरु कहा गया है। अत  मनुष्य मात्र के लिए उत्तरमुखी भवन द्वार आदि का निर् माण कर निवास करनेसे सामरिक शक्ति, स्वच्छ विचार व व्यवहार का उदय और आत्म संतोषजन्य प्रभाव अनवरत मिलता रहता है। शयन के समय उत्तर दिशा में सिर करके नहीं सोना चाहिए। वैज्ञानिक मतानुसार उत्तरी धु्रव चुम्बकीय क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली धु्रव है। उत्तरी धु्रव के तीव्र चुम्बकत्व के कारण मस्तिष्क की शक्ति (बौद्धिक शक्ति) क्षीण हो जाती है। इसलिए उत्तर की ओर सिर करके कदापि नहीं सोना चाहिए।

आग्नेय कोण-  पूर्व-दक्षिण दिशाओं से उत्पन्न कोण आग्नेय कोण है। इस कोण के स्वामी ग्रह शुक्र व अधिष्ठाता देव अग्नि हैं। यह कोण अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। पूर्व दिशाजन्य तेज-प्रताप और दक्षिण दिशाजन्य वीर्य-पराक्रम के संयोग से यह कोण अद्भुत है।  वास्तुशास्त्र में इस कोण को अत्यधिक पवित्रमाना गया है। गृह निर्माण के समय पाकशाला (भोजन कक्ष) की व्यवस्था इसी कोण मेंसुनिश्चित की जाती है। भोजन सामग्री अग्नि में पककर देव प्रसाद हो जाती है औरइसे ग्रहण करने से मनुष्य की समस्त व्यावहारिक क्रियाएं शुद्ध धातुरूप होनेलगती हैं।

नैर्ऋत्य कोण- यह कोण दक्षिण-पश्चिम दिशा से उत्पन्न होता है। इस कोण केस्वामी ग्रह राहु और अधिष्ठाता देव पितर या नैरुति (दैत्य) हैं।  यह कोण मनुष्यहेतु कुछ नि:तेजस्विता का कोण है। दक्षिण दिशा वीर्य-पराक्रम और पश्चिम दिशाजन्य शांति-विश्राम की अवस्था के संयोग से उद्भूत यह उदासीन कोण है। दिशास्वामी ग्रह राहु भी छाया ग्रह है जो सामान्यत: प्रत्येक अवस्था में शुभत्व प्रदान करने में समर्थ नहीं होता है। इसलिए वास्तुशास्त्र के अनुसार नैर्ऋत्यकोण में किसी भी गृहकर्ता हेतु शयन कक्ष नहीं बनाने की बात कही गई है। अन्यथाशयन कक्ष बनाकर उसमें रहने वाला मनुष्य हमेशा विवाद, लड़ाई-झगड़े में फंसा रहनेवाल, आलसी या क्रोधी होकर जीवन भर कष्ट भोगने हेतु बाध्य होता है। अतएव इस कोणकी दिशा वाले कमरे को सदा भारी वजनी सामान अथवा बराबर प्रयोग में न आने वालेसामानों से भारा या दबा रखना शुभदायक होता है।

वायव्य कोण-  पश्चिम-उत्तर दिशा से उद्भूत कोण वायव्य कोण है। इसके स्वामी ग्रह चंद्र और अधिष्ठाता देव वायु हैं। पश्चिम के शुद्ध जलवायु और उत्तर दिशा जन्य उच्चतम विचारों के संयोग से यह कोण उत्पन्न होता है। अत इस दिशा से वायु का संचरण निर्बाध गति से गृह के अंदर आता रहे, इसकी पूर्ण व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। इस कोण से आने वाली हवा के मार्ग को अवरुद्ध नहीं करना चाहिए।अवरुद्ध होने से गृहस्वामी मतिभ्रम का शिकार एवं हीनभावना से ग्रस्त हो सकता है।

ईशानकोण-  यह कोण उत्तर-पूर्व दिशा से उत्पन्न होता है। इस कोण के स्वामी ग्रह बृहस्पति और अधिष्ठाता देव ईश (रूद्र) या स्वंय बृहस्पति हैं। ईशान कातात्पर्य देवकोण से भी है। इस विदिशा से उच्चतर विचारों, सत् संकल्पों का उदय होना तथा पूर्व दिशा से प्रगति का मार्ग बतलाने जैसी संयोगात्मक संस्तुति का फल ही ईशान कोण है। किसी ने ईशान का देवता शिव (महादेव) को कहा है। यह भी सही है। क्योंकि शिव तो कल्याण का पर्यायवाची शब्द है, अर्थात यह विदिशा उच्चतरविचारों से ओतप्रोत करते हुए कल्याण व प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है। इस कोण में निर्माण कार्य करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक होगा कि यह कोण किसी प्रकार भारी वस्तुओं से ढंका नहीं होना चाहिए। यदि इस कोण के कमरे को अध्ययनकक्ष, पूजा स्थल के रूप में प्रयोग किया जाय तो अत्युत्तम होगा, अन्यथा खुलाही रखना चाहिए। ऐसा करने से गृह स्वामी नित्य अपने को तरोताजा एवं स्वयं मेंअभिनव तेज के प्रभाव को अनुभव करता हुआ अभ्युदय संकल्प का संयोजन करता रहता है।।

by Pandit Dayanand Shastri.

जानिए की किस मन्त्र के जाप से किस दिशा का होगा वास्तु दोष( प्रभाव )दूर या कम—

आजकल शायद ही कोई ऐसा घर हो जो वास्तु दोष से मुक्त हो। वास्तु दोष का प्रभाव कई बार देर से होता है तो कई बार इसका प्रभाव शीघ्र असर दिखाने लगता है। पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार इसका कारण यह है कि सभी दिशाएं किसी न किसी ग्रह और देवताओं के प्रभाव में होते है। जब किसी मकान मालिक ( जिसके नाम पर मकान हो) पर ग्रह विशेष की दशा चलती है तब जिस दिशा में वास्तु दोष होता है उस दिशा का अशुभ प्रभाव घर में रहने वाले व्यक्तियों पर दिखने लगता है।

आज में आपको सभी दिशाओं के दोष को दूर करने का सबसे आसान तरीका बता रहा हूँ। इन मंत्र जाप के प्रभाव स्वरूप (फलस्वरूप) आप काफी हद तक अपने वस्तुदोषो से मुक्ति प्राप्त कर पायेंगें । ऐसा मेरा विश्वास हे।

ध्यान रखें मन्त्र जाप में आस्था और विश्वास अति आवश्य है। यदि आप सम्पूर्ण भक्ति भाव और एकाग्रचित्त होकर इन मंत्रो को जपेंगें तो  ही निश्चित  लाभ होगा।देश- काल और मन्त्र  साधक की साधना(इच्छा शक्ति) अनुसार परिणाम भिन्न भिन्न हो सकते है। तर्क कुतर्क वाले इनसे दूर रहे। इनके प्रभाव को नगण्य मानें।

 ♦ ईशान दिशा-

इस दिशा के स्वामी बृहस्पति है, और देवता है भगवान शिव। इस दिशा के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए नियमित गुरू मंत्र ‘ओम बृं बृहस्पतये नमः’ का जाप करें। शिव पंचाक्षरी मंत्र ओम नमः शिवाय का 108 बार जाप करना भी लाभप्रद होता है।

♦पूर्व दिशा-

घर की पूर्व दिशा वास्तु दोष से पीड़ित है तो इसे दोष मुक्त करने के लिए प्रतिदिन सूर्य मंत्र ‘ओम ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः’ का जाप करें। सूर्य इस दिशा के स्वामी है। इस मंत्र के जाप से सूर्य के शुभ प्रभावों में वृद्घि होती है। व्यक्ति मान-सम्मान एवं यश प्राप्त करता है। इन्द्र पूर्व दिशा के देवता है, प्रतिदिन 108 बार इंद्र मंत्र ‘ओम इन्द्राय नमः’ का जाप करना भी इस दिशा के दोष को दूर कर देता है।

♦आग्नेय दिशा-

इस दिशा के स्वामी  शुक्र ग्रह और देवता अग्नि है। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर शुक्र अथवा अग्नि के मंत्र का जाप लाभप्रद होता है। शुक्र का मंत्र है ‘ओम शुं शुक्राय नमः’। अग्नि का मंत्र है ‘ओम अग्नेय नमः’। इस दिशा को दोष से मुक्त रखने के लिए इस दिशा में पानी का टैंक, नल, शौचालय अथवा अध्ययन कक्ष नहीं होना चाहिए।

♦दक्षिण दिशा-

इस दिशा के स्वामी ग्रह मंगल और देवता यम हैं। दक्षिण दिशा से वास्तु दोष दूर करने के लिए नियमित ‘ओम अं अंगारकाय नमः’ मंत्र का 108 बार जाप करना चाहिए। यह मंत्र मंगल के कुप्रभाव को भी दूर कर देता है। ‘ओम यमाय नमः’ मंत्र से भी इस दिशा का दोष समाप्त हो जाता है।

 नैऋत्य दिशा-

इस दिशा के स्वामी राहु ग्रह है। घर में यह दिशा दोषपूर्ण हो और कुण्डली में राहु अशुभ बैठा हो तो राहु की दशा व्यक्ति के लिए काफी कष्टकारी हो जाती है। इस दोष को दूर करने के लिए राहु मंत्र ‘ओम रां राहवे नमः’ मंत्र का जप करें। इससे वास्तु दोष एवं राहु का उपचार भी उपचार हो जाता है।

♦पश्चिम दिशा-

यह शनि की दिशा है। इस दिशा के देवता वरूण देव है। इस दिशा में किचन कभी भी नहीं बनाना चाहिए। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर शनि मंत्र ‘ओम शं शनैश्चराय नमः’ का नियमित जाप करें। यह मंत्र शनि के कुप्रभाव को भी दूर कर देता है।

♦वायव्य दिशा-

चंद्रा इस दिशा के स्वामी ग्रह है। यह दिशा दोषपूर्ण होने पर मन चंचल रहता है। घर में रहने वाले लोग सर्दी जुकाम एवं छाती से संबंधित रोग से परेशान होते है। इस दिशा के दोष को दूर करने के लिए चन्द्र मंत्र ‘ओम चन्द्रमसे नमः’ का जाप लाभकारी होता है।

♦उत्तर दिशा-

यह दिशा के देवता धन के स्वामी कुबेर है। यह दिशा बुध ग्रह के प्रभाव में आती  है। इस दिशा के दूषित होने पर माता एवं घर में रहने वाले स्त्रियों को कष्ट होता है। आर्थिक कठिनाईयों का भी सामना करना करना पड़ता है। इस दिशा को वास्तु दोष से मुक्त करने के लिए ‘ओम बुधाय नमः या ‘ओम कुबेराय नमः’ मंत्र का जाप करें। आर्थिक समस्याओं में कुबेर मंत्र का जाप अधिक लाभकारी होता है।

By Pandit Dayanand Shastri.

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जानिए अक्षय तृतीया 2016 का महत्त्व…जानिए क्यों नहीं होंगे विवाह इस बार अक्षय तृतीया पर।।

अक्षय तृतीया पर्व को कई नामों से जाना जाता है। इसे अखतीज और वैशाख तीज भी कहा जाता है।
न क्षयः इति अक्षयःअर्थातजिसका क्षय नहीं होता वह अक्षय।
मुहूर्त ज्योतिष के अनुसार चंद्रमास और सौरमास के अनुसार तिथियों का घटनाबढ़ना, क्षय होना तय होता है, लेकिन अक्षयतृतीया का कभी भी क्षय नहीं होता। इस तिथि की अधिष्ठात्री देवी पार्वती हैं।वे कहती हैं कि जो स्त्रीपुरुष सुख शांति और सफलता चाहतें हैं उन्हें अक्षयतृतीया का व्रत करना चाहिए। व्रत की महत्ता बताते हुए पार्वती कहती हैं, कि यही व्रत करके मैं प्रत्येक जन्म में भगवान् शिव के साथ आनंदित रहती हूं। उत्तम पति की प्राप्ति के लिए भी हर कुंवारी कन्या को यह व्रत करना चाहिए।इस वर्ष यह पर्व 9 मई 2016 (सोमवार) के दिन मनाया जाएगा।इस पर्व को भारतवर्ष के विशेष त्यौहारों की श्रेणी में रखा जाता है. अक्षय तृतीया पर्व वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन मनाया जाता है. इस दिन स्नान, दान, जप, होम आदि अपने सामर्थ्य के अनुसार जितना भी किया जाएं, अक्षय रुप में प्राप्त होता है.
अक्षय तृतीया कई मायनों से बहुत ही महत्वपूर्ण दिन होता है.
इस दिन के साथ बहुत सारी कथाएं ओर किवदंतीया जुडी हुई हैं. ग्रीष्म ऋतु का आगमन, खेतों में फसलों का पकना और उस खुशि को मनाते खेतीहर व ग्रामीण लोग विभिन्न व्रत, पर्वों के साथ इस तिथि का पदार्पण होता है. धर्म की रक्षा हेतु भगवान श्री विष्णु के तीन शुभ रुपों का वतरण भी इसी अक्षय तृतीया के दिन ही हुए माने जाते हैं.माना जाता है कि जिनके अटके हुए काम नहीं बन पाते हैं,या व्यापार में लगातार घाटा हो रहा है अथवा किसी कार्य के लिए कोई शुभ मुहुर्त नहीं मिल पा रहा हो तो उनके लिए कोई भी नई शुरुआत करने के लिए अक्षय तृतीया का दिन बेहद शुभ माना जाता है. अक्षय तृतीया में सोना खरीदना बहुत शुभ माना गया है. इस दिन स्वर्णादि आभूषणों की ख़रीदफरोख्त को भाग्य की शुभता से जोडा़ जाता है।जिनको संतान की प्राप्ति नहीं हो रही हो वे भी यह व्रत करके संतान सुख ले सकती हैं। देवी इंद्राणी ने यही व्रत करके जयंतनामक पुत्र प्राप्त किया था।देवी अरुंधती यही व्रत करके अपने पति महर्षि वशिष्ठ के साथ आकाश में सबसे ऊपर का स्थान प्राप्त कर सकीं थीं।प्रजापति दक्ष की पुत्री रोहिणी ने यही व्रत करके अपने पति चंद्र की सबसे प्रिय रहीं। उन्होंने बिना नमक खाए यह व्रत किया था। व्रती अगर इस दिन यज्ञ, जपतप, दानपुण्य करता है उसके जरिए किए गए सत्कर्म का फल अक्षुण रहेगा।।
इस वर्ष नहीं होंगें विवाह:
हमारे देश में अक्षय तृतीया तिथि को अबूझ मुहूर्त के रूप में माना जाता है, जो 9 मई 2016 को है।
उज्जैन के सुप्रसिद्ध ज्योतिषी पं. दयानन्द शास्त्री के अनुसार इस साल वैवाहिक शुभ मुहूर्त में सबसे अधिक असर शुक्र के अस्त का पड़ रहा है जो दो मई को अस्त होकर नो जुलाई को उदित होगा।
एेसी स्थिति में एेसा पहली बार होगा जब अक्षय तृतीया के दिन वैवाहिक मुहूर्त नहीं रहेगा।
100 वर्षों बाद बन रहा है ऐसा विशेष योग:
9 मई 2016 को पड़ने वाले अक्षय तृतीया के अक्षय मुहूर्त विवाह के दो सबसे अहम ग्रहों के अस्त होने से ग्रहण लगेगा. ज्योतिषियों के मुताबिक, देव गुरु बृहस्पति और शुक्र के अस्त होने की वजह से यह स्थिति आई है। यह योग इस प्रकार का बन रहा है कि अक्षय तृतीया के दिन वर्ष 2016 में शादी का कोई मुहूर्त ही नहीं हैआचार्य पण्डित विशालदयानन्द शास्त्री के अनुसार अक्षय तृतीता 2016 पर शादी का मुहूर्त नहीं मिलना शताब्दी की पहली अनूठी घटना है।। ऐसा 100 वर्षों के बाद हुआ है कि इस साल 29 अप्रैल को मिलने वाले अंतिम विवाह मुहूर्त के बाद विवाद का कोई भी मुहूर्त नहीं है।। इसका मतलब यह हुआ कि 30 अप्रैल से गुरु और शुक्र के अस्त होने से विवाह कार्य बाधित होंगे क्योंकि इसके लिए कोई शुभ लग्न नहीं है।वेदिक ज्योतिष में शुक्र ग्रह को विवाह का प्रमुख कारक ग्रह माना जाता है इसलिए शुक्र के अस्त रहते विवाह नहीं होते अतः 28 अपै्रल के पश्चात मई व जून माह में भी शुभ मुहूर्त नहीं है, इस बीच 9 मई को अबूझ माने जाने वाला महामुहूर्त अक्षय तृतीया पड़ेगा। चूंकि अक्षय तृतीया को अति शुभ मुहूर्त माना गया है, इसलिए कुछ विद्वानों की माने तो शुक्र ग्रह के अस्त रहते हुए भी इस वर्ष अक्षय तृतीय के दिन विवाह किया जा सकेगा। इस तरह मईजून व मध्य जुलाई तक एक मात्र अक्षय तृतीया ही ऐसा दिन होगा जब शुक्र अस्त होने पर भी फेरे लिए जाएंगे।बस इस दिन जिनका विवाह होने वाला हो, उनकी कुण्डली में शुक्र अस्त नहीं हो, इसका विशेष ध्यान रखें।।
जुलाई 2016 में लगेगा विवाह लग्न मुहूर्त
शुक्र का तारा 30 अप्रैल 2016 से पश्चिम दिशा में अस्त हो रहा है जो फिर जुलाई महीने में 6 जुलाई 2016 को पूर्व में उदय होगा।इसके बाद ही शादी का योग बनेगा।जुलाई महीने में 6 से 14 तारीख तक शादियों का शुभ मुहूर्त है।।15 जुलाई आषाढ़ शुक्ल एकादशी से हरिशयनी की शुरुआत हो रही है. पौराणिक परंपरा के मुताबिक, इस दिन के बाद देव सो जाएंगे।फिर चातुर्मास शुरू होगा इसलिए 15 जुलाई 2016 से 10 नवंबर 2016 तक फिर शादियों के मुहूर्त नहीं रहेंगे।
कुंडली में शुक्र दोष न हो
आचार्य पंडित विशालदयानन्द शास्त्री के अनुसार इस वर्ष अक्षय तृतीया 2016 के दिन विवाह करने वाले लड़केलड़कियों को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि उनकी कुंडली में शुक्र संबंधी दोष तो नहीं है।
यदि शुक्र संबंधी कोई दोष हो तो विवाह नहीं करना ठीक रहेगा।
जानिए अक्षय तृतीया का पौराणिक महत्व
इस पर्व से अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं. इसके साथ महाभारत के दौरान पांडवों के भगवान श्रीकृष्ण से अक्षय पात्र लेने का उल्लेख आता है. इस दिन सुदामा और कुलेचा भगवान श्री कृष्ण के पास मुट्ठी भर भुने चावल प्राप्त करते हैं. इस तिथि में भगवान के नरनारायण, परशुराम, हयग्रीव रुप में अवतरित हुए थे. इसलिये इस दिन इन अवतारों की जयन्तियां मानकर इस दिन को उत्सव रुप में मनाया जाता है. एक पौराणिक मान्यता के अनुसार त्रेता युग की शुरुआत भी इसी दिन से हुई थी. इसी कारण से यह तिथि युग तिथिभीकहलातीहै.अक्षय तृतीया तिथि के दिन अगर दोपहर तक दूज रहे, तब भी अक्षय तृतीया इसी दिन मनाई जाती है. इस दिन सोमवार व रोहिणी नक्षत्र हो तो बहुत उत्तम है. जयन्तियों का उत्सव मनाना और पूजन इत्यादि कराना हों, तो विद्वान पंडित से कराएं. इसी दिन प्रसिद्ध तीर्थस्थल बद्रीनारायण के कपाट भी खुलते हैं. वृन्दावन स्थित श्री बांके बिहारी जी के मन्दिर में केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं।।
जनित अक्षय तृतीया में दान पुण्य का महत्व
अक्षय तृतीया में पूजा, जपतप, दान स्नानादि शुभ कार्यों का विशेष महत्व तथा फल रहता है. इस दिन गंगा इत्यादि पवित्र नदियों और तीर्थों में स्नान करने का विशेष फल प्राप्त होता है. यज्ञ, होम, देवपितृ तर्पण, जप, दान आदि कर्म करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है.
अक्षय तृ्तिया के दिन गर्मी की ऋतु में खानेपीने, पहनने आदि के काम आने वाली और गर्मी को शान्त करने वाली सभी वस्तुओं का दान करना शुभ होता है. इस्के अतिरिक्त इस दिन जौ, गेहूं, चने, दही, चावल, खिचडी, ईश (गन्ना) का रस, ठण्डाई व दूध से बने हुए पदार्थ, सोना, कपडे, जल का घडा आदि दें. इस दिन पार्वती जी का पूजन भी करना शुभ रहता है.
जानिए की कैसे करें अक्षत तृतीया का व्रत एवं पूजा
अक्षय तृ्तीया का यह उतम दिन उपवास के लिए भी उतम माना गया है. इस दिन को व्रतउत्सव और त्यौहार तीनों ही श्रेणी में शामिल किया जाता है. इसलिए इस दिन जो भी धर्म कार्य किए वे उतने ही उतम रहते है.इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान इत्यादि नित्य कर्मों से निवृत होकर व्रत या उपवास का संकल्प करें. पूजा स्थान पर विष्णु भगवान की मूर्ति या चित्र स्थापित कर पूजन आरंभ करें भगवान विष्णु को पंचामृत से स्नान कराएं,तत्पश्चातउन्हेंचंदन,पुष्पमालाअर्पितकरें.पूजा में में जौ या जौ का सत्तू, चावल, ककडी और चने की दाल अर्पित करें तथा इनसे भगवान विष्णु की पूजा करें. इसके साथ ही विष्णु की कथा एवं उनके विष्णु सस्त्रनाम का पाठ करें. पूजा समाप्त होने के पश्चात भगवान को भोग लाएं ओर प्रसाद को सभी भक्त जनों में बांटे और स्वयं भी ग्रहण करें. सुख शांति तथा सौभाग्य समृद्धि हेतु इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती जी का पूजन भीकियाजाताहै.लोकाचारे में इस दिन चावल, मूंग की खिचडी खाने का बडा रिवाज है. यह व्यंजन बनाने के लिये इमली के फल और गुड को अलग-2 भिगो दिया जाता है. और अच्छी तरह भीग जाने पर दोनों का रस बनाकर छान लेते है. इमली के बराबर का गुड मिलाया जाता है. इस दिन खेती करने वाले आने वाले वर्ष में खेती कैसी रहेगी. इसके कई तरह के शकुन निकालते है. इस दिन को नवन्न पर्व भी कहते हैं, इसलिए इस दिन बरतन, पात्र, मिष्ठान्न, तरबूजा, खरबूजा दूध दही चावल का दान भी किया जाता है
जानिए अक्षय तृतीया का अभिजीत मुहुर्त
धर्म शास्त्रों में इस पुण्य शुभ पर्व की कथाओं के बारे में बहुत कुछ विस्तार पूर्वक कहा गया है. इनके अनुसार यह दिन सौभाग्य और संपन्नता का सूचक होता है. दशहरा, धनतेरस, देवउठान एकादशी की तरह अक्षय तृतीया को अभिजीत, अबूझ मुहुर्त या सर्वसिद्धि मुहूर्त भी कहा जाता है. क्योंकि इस दिन किसी भी शुभ कार्य करने हेतु पंचांग देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती. अर्थात इस दिन किसी भी शुभ काम को करने के लिए आपको मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता नहीं होती. अक्षय अर्थात कभी कम ना होना वाला इसलिए मान्यता अनुसार इस दिन किए गए कार्यों में शुभता प्राप्त होती है. भविष्य में उसके शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं।
पूरे भारत वर्ष में अक्षय तृतीया की खासी धूम रहती है. हए कोई इस शुभ मुहुर्त के इंतजार में रहता है ताकी इस समय किया गया कार्य उसके लिए अच्छे फल लेकर आए. मान्यता है कि इस दिन होने वाले काम का कभी क्षय नहीं होता अर्थात इस दिन किया जाने वाला कार्य कभी अशुभ फल देने वाला नहीं होता. इसलिए किसी भी नए कार्य की शुरुआत से लेकर महत्वपूर्ण चीजों की खरीदारी व विवाह जैसे कार्य भी इस दिन बेहिचक किए जाते हैं.नया वाहन लेना या गृह प्रेवेश करना, आभूषण खरीदना इत्यादि जैसे कार्यों के लिए तो लोग इस तिथि का विशेष उपयोग करते हैं. मान्यता है कि यह दिन सभी का जीवन में अच्छे भाग्य और सफलता को लाता है. इसलिए लोग जमीन जायदाद संबंधी कार्य, शेयर मार्केट में निवेश रीयल एस्टेट के सौदे या कोई नया बिजनेस शुरू करने जैसे काम भी लोग इसी दिन करने की चाह रखते हैं।
जानिए की क्या और क्यों हैं अक्षय तृतीया का महत्व
वैशाख शुक्ल पक्ष की तृ्तिया को अक्षय तृ्तिया के नाम से पुकारा जाता है इस तिथि के दिन महर्षि गुरु परशुराम का जन्म दिन होने के कारण इसे परशुराम तीजया परशुराम जयंतीभी कहा जाता है. इस दिन गंगा स्नान का बडा भारी महत्व है. इस दिन स्वर्गीय आत्माओं की प्रसन्नाता के लिए कलश, पंखा, खडाऊँ, छाता,सत्तू, ककडी, खरबूजा आदि फल, शक्कर आदि पदार्थ ब्राह्माण को दान करने चाहिए. उसी दिन चारों धामों में श्री बद्रीनाथ नारायण धाम के पाट खुलते है. इस दिन भक्तजनों को श्री बद्री नारायण जी का चित्र सिंहासन पर रख के मिश्री तथा चने की भीगी दाल से भोग लगाना चाहिए. भारत में सभी शुभ कार्य मुहुर्त समय के अनुसार करने का प्रचलन है अत: इस जैसे अनेकों महत्वपूर्ण कार्यों के लिए इस शुभ तिथि का चयन किया जाता है, जिसे अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है।।
मान्यता हैं की अक्षय तृतीय के दिन भूमिपूजन, व्यापार आरम्भ, गृहप्रवेश, वैवाहिक कार्य, यज्ञोपवीत संस्कार, नए अनुबंध, नामकरण आदि जैसे सभी मांगलिक कार्यों के लिए अक्षय तृतीया वरदान की तरह है।
इस वर्ष 9 मई 2016,सोमवार (विक्रम सम्वत् 2073 के वैशाख मास की तृतीय तिथि, योगसुकर्म) को चन्द्रमा मिथुन राशि में ( दोपहर लगभग 1 बजे से, इसके पूर्व वृषभ राशि रहेगी) और  रोहिणी नक्षत्र समाप्त होकर मृगशिरा का आरंभ दोपहर 11 बजकर 57 मिनट पर हो रहा है उस समय अभिजित मुहूर्त भी रहेगा।
इसलिए रोहिणी नक्षत्र के संयोग से दिन और भी शुभ रहेगा।
इस दिन भगवान विष्णु की लक्ष्मी सहित गंध, चंदन, अक्षत, पुष्प, धुप, दीप नैवैद्य आदि से पूजा करनी चाहिए। भगवान विष्णु के विग्रह को को गंगा जल और अक्षत से स्नान कराएं।
शास्त्रों में इस दिन वृक्षारोपण का भी अमोघ फल बताया गया है। प्रकार अक्षय तृतीया को लगाए गए वृक्ष हरेभरे होकर पल्लवित पुष्पित होते हैं इस दिन वृक्षारोपण करने वाला व्यक्ति भी कामयाबियों के शिखर छूता चलता है।
by Pandit Dayanand Shastri.
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क्या हैं योग ??? जानिए योग को…

योग – एक जीवन शैली हैं –पंडित “विशाल” दयानन्द शास्त्री

 

जब भी आप योग के बारे में सुनते है तो आप इसके बारे में अपने दिमाग में एक खाका तैयार करते हैं कि आखिर यह आपके लिए क्या है ? योग का नाम आते ही कुछ लोगो के दिमाग में कांटों के बिस्तर पर बैठा फकीर याद आता होगा, जो ध्यान में लीन है और उन्हें लगता होगा कि यही योग है।
कुछ लोग किसी पहाड़ की गुफा में बैठे किसी साधु के बारे में सोचते है और योग को उससे जोड़ कर देखते है। कुछ लोगों ने रीढ़ की हड्डी पर कुंडलिनी की ऊपर की ओर जाती हुई पिक्टोरल रिप्रजेंटेशन देखी होगी और उनकी योग में रुचि जग गई। जबकि कोई अन्य व्यक्ति योग स्टूडियो में जाकर शीशे के सामने योग एरोबिक्स करता है। वह अपने शरीर को देखता है, अपने आसन को ध्यान से देखता है और उन्हें लगता है कि योग शारीरिक होता है और यह उनके शरीर के आकार को बनाकर रखता है।
आजकल अनेक चैनलों और संचार पत्रों में हिन्दू बनाम मुस्लिम के दायरे में योग को लेकर बहस हो रही है क्योंकि इससे राजनीति सधती है। मुझे कभी कहीं नहीं लगा कि कोई स्वामी, कोई महात्मा ऐसी दावेदारी कर रहे हैं, आज क्यों ऐसा लग रहा है। वे योग को धर्मविशेष के चश्मे से भी नहीं देखते। योग डरपोक नहीं बनाता है। योग आपको किसी दल के अधीन नहीं करता है। योग के नाम पर किसी धार्मिक राजनीतिक विचारधारा का प्रोपेगैंडा नहीं किया जाना चाहिए। योग की उत्पत्ति धर्म की आधुनिक समझ पर छपी किताबों के किसी भी पन्ने से नहीं होती है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 21 जून विश्व योग दिवस के रूप में स्वीकार होने पर आज इस विषय पर सम्पूर्ण विश्व का ध्यान गया है..
‘योगी सर्प, मेढक आदि जन्तुओं से आसन, मुद्रा, प्रणायाम आदि योगांकों को सीखकर अपने स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करने में समर्थ हुए थे। प्राचीन ऋषियों की, ईसामसीह आदि महात्माओं की योगबल से रोगियों के रोग दूर करने की बात प्रसिद्ध ही है। योगबल के साधक ईर्ष्या-द्वेष, सुख-दुख, शत्रु-मित्र से दूर होकर शान्तचित्त होकर किस प्रकार पृथ्‍वी पर शांति राज्य स्थापित करने में सहायक हुए थे इसके ज्वलंत उदाहरण है- शंकर, ईसामसीह, बुद्ध इत्यादि।
हर व्यक्ति योग के बारे में अपना अलग विचार रखता है या उसके दिमाग में इसको लेकर अलग तस्वीर बनती है और इसी तरह से योग की पहचान बनी है। आप अपने दिमाग में योग को लेकर कई विचार, कई तस्वीरें बनाते हैं, जो ये तय करता है कि आपके लिए योग क्या है। हालांकि इनमें से कुछ भी योग नहीं है। …तो फिर आखिर योग है क्या?
योग आपके शरीर, व्यवहार, मन और भावनाओं को नियंत्रित करने वाली एक जीवनशैली है। यह दिल, दिमाग और हाथों के संबंधों या विशेषताओं को बढ़ाने वाली एक जीवनशैली है। मेरे विचार से यही योग की परिभाषा है।मैं योग को एक जीवनशैली के रूप में देखता हूं। जैसे-जैसे आप योग के छोटे-छोटे नियमों का अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में पालन करने लगते हैं आपका दैनिक जीवन अच्छा होने लगता है। आप योग के छोटे-छोटे नियमों को अपने व्यवहार में लाते हैं तो आपका व्यवहार अच्छा होने लगता है। आप थोड़ा-बहुत विश्राम और ध्यान करने लगते हैं तो आप अपनी जिंदगी में तनाव व चिंताओं से बेहतर तरीके से निपटने लगते हैं। जैसे ही आप योग घटकों को अपने दिनचर्या में लाना शुरू करते हैं तो योग आपकी जीवनशैली का हिस्सा बन जाता है। अगर आपको लगता है कि योग क्लास में शारीरिक क्रियाओं, सांसों पर नियंत्रण, विश्राम और ध्यान के जरिए ही योग किया जा सकता है तो फिर यह आपकी जिंदगी का हिस्सा कभी नहीं बन पाएगा।
योग परम्परा और शास्त्रों का विस्तृत इतिहास रहा है।हालाँकि इसका इतिहास दफन हो गया है अफगानिस्तान और हिमालय की गुफाओं में और तमिलनाडु तथा असम सहित बर्मा के जंगलों की कंदराओं में जिस तरह राम के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े है उसी तरह योगियों और तपस्वियों के निशान जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में आज भी देखे जा सकते है,  बस जरूरत है भारत के उस स्वर्णिम इतिहास को खोज निकालने की जिस पर हमें गर्व है। माना जाता है कि योग का जन्म भारत में ही हुआ मगर दुखद यह रहा की आधुनिक कहे वाले समय में अपनी दौड़ती-भागती जिंदगी से लोगों ने योग को अपनी दिनचर्या से हटा लिया, जिसका असर लोगों के स्वाथ्य पर हुआ,  मगर आज भारत में ही नहीं विश्व भर में योग का बोलबाला है और निसंदेह उसका श्रेय भारत के ही योग गुरूओं को जाता है जिन्होंने योग को फिर से पुनर्जीवित किया|
योग संस्कृत धातु ‘युज’ से उत्‍पन्न हुआ है जिसका अर्थ है व्यक्तिगत चेतना या आत्मा का सार्वभौमिक चेतना या रूह से मिलन। योग 5000 वर्ष प्राचीन भारतीय ज्ञान का समुदाय है। यद्यपि कई लोग योग को केवल शारीरिक व्यायाम ही मानते हैं जहाँ लोग शरीर को तोड़ते -मरोड़ते हैं और श्वास लेने के जटिल तरीके अपनाते हैं | वास्तव में देखा जाए तो ये क्रियाएँ मनुष्य के मन और आत्मा की अनंत क्षमताओं की तमाम परतों को खोलने वाले ग़ूढ विज्ञान के बहुत ही सतही पहलू से संबंधित हैं|
योग विज्ञान में जीवन शैली का पूर्ण सार आत्मसात किया गया है , जिसमें ज्ञान योग या तत्व ज्ञान,भक्ति योग या परमानन्द भक्ति मार्ग,कर्म योग या आनंदित कार्य मार्ग और राज योग या मानसिक नियंत्रण मार्ग समाहित हैं । राजयोग आगे और भागों में विभाजित है। राजयोग प्रणाली के मुख्य केंद्र में उक्त विभिन्न पद्धतियों को संतुलित करना एवं उन्हे समीकृत करना ही योग के आसनों का अभ्यास है…
आज योग को भारतीयता की पहचान बताते हुए हिन्दुत्व से जोड़ने का प्रयास हो रहा है। पहले हिन्दुत्व और भारतीयता को एक कहा गया अब योग के बहाने भारतीयता की बात हो रही है। जबकि योग का कभी दावा नहीं रहा कि वो किसी की सत्ता को बनाए या बचाए रखने के लिए साधन बनेगा। हमें पूछना चाहिए कि क्या हम योग के स्वरूप को जानते है ?  ट्विटर पर हैशटैग चला देने या हठयोग के एक दो आसनों का प्रदर्शन कर सबको चौंका देना योग नहीं है। योग को लेकर कितनी सार्थक दार्शनिक बहस हो सकती थी लेकिन इसे आसनों के पैकेज में बदल दिया गया है। योगी वही चमत्कार करता हुआ दिख रहा है जिसकी चेतावनी योग पर विचार करने वाले महात्माओं ने समय-समय पर जारी की है। क्या योग को तमाम परंपराओं से अलग किया जा रहा है?
♦ प्राचीन और आधुनिक योग – सभी के लिए—
योग के दैहिक अभ्यास की सुंदरता यह है कि योग आसन आपको संभाले रखते हैं आप वृद्ध हो या जवान , हृष्ट पुष्ट हों या कमज़ोर। उम्र के बढ़ने के साथ आपकी समझ आसनो के प्रति प्रगतिशील हो जाती है। आप आसनों के बाहरी संरेक्षण एवं प्रक्रिया से आगे बढ़कर आंतरिक शुद्धिकरण और अंततः केवल आसान में ही बने रहने तक पहुँच जाते है। योग हमारे लिए कभी भी पराया नहीं रहा है। हम योग तबसे कर रहे हैं जब से हम शिशु थे चाहे वह ‘बिल्ली खिचाव’ आसन हो जो मेरुदंड बनता हो या ‘पवन मुक्त’ आसन जो पाचन को बढ़ावा देता है। आप देखेंगे कि शिशु दिन भर में कोई न कोई आसन कर रहा होता है। विभिन्न लोगों के लिए योग के विभिन्न रूप हो सकते हैं । हम दृढ़ संकल्पित हैं कि हम आपको अपनी योग – जीवन की राह को खोजने में सहायक होंगे |
 ♦ योग हैं आयुर्वेद -जीवन का विज्ञान—
आयुर्वेद विश्व की सबसे प्रगतिशील एवं शक्तिशाली मानसिक-शारीरिक स्वास्थ व्यवस्था है। यह प्रणाली केवल बिमारियों के इलाज तक ही सीमित नहीं है,बल्कि आयुर्वेद जीवन का विज्ञान है। इस बौद्धिक ज्ञान का स्वरूप सब लोगों को जीवंत एवं स्वस्थ रहने में मदद करता है साथ ही उनको अपनी पूर्ण मानवीय क्षमताओं का भी एहसास कराता है। वह प्रकृति के सिद्धांतों का उपयोग करके मनुष्य के व्यक्तिगत शरीर ,मन एवं मनोवृत्ति का सही संतुलन कराकर उसे अच्छा स्वास्थय प्रदान करता है। आयुर्वेद का अभ्यास आपके योग अभ्यास को भी बेहतर बनता है,जो एक सतत्त लाभकारी स्थिति है। यह भाग बेहतर जीवन के लिए बहुत से आयुर्वेदिक नुक्ते और सुझाव लेकर आया है
♦ योग में हैं प्राणायाम एवं ध्यान का महत्त्व —
प्राणायाम अपने श्वास की वृद्धि एवं नियंत्रण है। श्वास लेने की सही तकनीक का अभ्यास करने से रक्त एवं दिमाग में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाई जा सकती है , अंततः इससे प्राण या महत्त्वपूर्ण जीवन ऊर्जा के नियंत्रण में मदत मिलती है। प्राणायाम आसानी से योग आसन के साथ किया जा सकता है। इन दो योग सिद्धांतों का मिलन मन एवं शरीर का उच्चतम शुद्धिकरण एवं आत्मानुशासन माना गया है। प्राणायाम की तकनीक हमारे ध्यान के अनुभव को भी गहरा बनाती है। इन वर्गों में आप अनेक प्रकार के प्राणायाम तकनीकों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।योग साधना के आठ अंग हैं, जिनमें प्राणायाम चौथा सोपान है. अब तक हमने यम, नियम तथा योगासन के विषय में चर्चा की है, जो हमारे शरीर को ठीक रखने के लिए बहुत आवश्यक है.प्राणायाम के बाद प्रत्याहार, ध्यान, धारणा तथा समाधि मानसिक साधन हैं. प्राणायाम दोनों प्रकार की साधनाओं के बीच का साधन है, अर्थात्‌ यह शारीरिक भी है और मानसिक भी. प्राणायाम से शरीर और मन दोनों स्वस्थ एवं पवित्र हो जाते हैं तथा मन का निग्रह होता है.

♦ जानिए योगासनों के गुण और लाभ—

(1) योगासनों का सबसे बड़ा गुण यह हैं कि वे सहज साध्य और सर्वसुलभ हैं. योगासन ऐसी व्यायाम पद्धति है जिसमें न तो कुछ विशेष व्यय होता है और न इतनी साधन-सामग्री की आवश्यकता होती है.
(2) योगासन अमीर-गरीब, बूढ़े-जवान, सबल-निर्बल सभी स्त्री-पुरुष कर सकते हैं.
(3) आसनों में जहां मांसपेशियों को तानने, सिकोड़ने और ऐंठने वाली क्रियायें करनी पड़ती हैं, वहीं दूसरी ओर साथ-साथ तनाव-खिंचाव दूर करनेवाली क्रियायें भी होती रहती हैं, जिससे शरीर की थकान मिट जाती है और आसनों से व्यय शक्ति वापिस मिल जाती है. शरीर और मन को तरोताजा करने, उनकी खोई हुई शक्ति की पूर्ति कर देने और आध्यात्मिक लाभ की दृष्टि से भी योगासनों का अपना अलग महत्त्व है.
(4) योगासनों से भीतरी ग्रंथियां अपना काम अच्छी तरह कर सकती हैं और युवावस्था बनाए रखने एवं वीर्य रक्षा में सहायक होती है.
(5) योगासनों द्वारा पेट की भली-भांति सुचारु रूप से सफाई होती है और पाचन अंग पुष्ट होते हैं. पाचन-संस्थान में गड़बड़ियां उत्पन्न नहीं होतीं.
(6) योगासन मेरुदण्ड-रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाते हैं और व्यय हुई नाड़ी शक्ति की पूर्ति करते हैं.
(7) योगासन पेशियों को शक्ति प्रदान करते हैं. इससे मोटापा घटता है और दुर्बल-पतला व्यक्ति तंदरुस्त होता है.
(8) योगासन स्त्रियों की शरीर रचना के लिए विशेष अनुकूल हैं. वे उनमें सुन्दरता, सम्यक-विकास, सुघड़ता और गति, सौन्दर्य आदि के गुण उत्पन्न करते हैं.
(9) योगासनों से बुद्धि की वृद्धि होती है और धारणा शक्ति को नई स्फूर्ति एवं ताजगी मिलती है. ऊपर उठने वाली प्रवृत्तियां जागृत होती हैं और आत्मा-सुधार के प्रयत्न बढ़ जाते हैं.
(10) योगासन स्त्रियों और पुरुषों को संयमी एवं आहार-विहार में मध्यम मार्ग का अनुकरण करने वाला बनाते हैं, अत: मन और शरीर को स्थाई तथा सम्पूर्ण स्वास्थ्य, मिलता है.
(11) योगासन श्वास- क्रिया का नियमन करते हैं, हृदय और फेफड़ों को बल देते हैं, रक्त को शुद्ध करते हैं और मन में स्थिरता पैदा कर संकल्प शक्ति को बढ़ाते हैं.
(12) योगासन शारीरिक स्वास्थ्य के लिए वरदान स्वरूप हैं क्योंकि इनमें शरीर के समस्त भागों पर प्रभाव पड़ता है और वह अपने कार्य सुचारु रूप से करते हैं.
(13) आसन रोग विकारों को नष्ट करते हैं, रोगों से रक्षा करते हैं, शरीर को निरोग, स्वस्थ एवं बलिष्ठ बनाए रखते हैं.
(14) आसनों से नेत्रों की ज्योति बढ़ती है. आसनों का निरन्तर अभ्यास करने वाले को चश्में की आवश्यकता समाप्त हो जाती है.
(15) योगासन से शरीर के प्रत्येक अंग का व्यायाम होता है, जिससे शरीर पुष्ट, स्वस्थ एवं सुदृढ़ बनता है. आसन शरीर के पांच मुख्यांगों, स्नायु तंत्र, रक्ताभिगमन तंत्र, श्वासोच्छवास तंत्र की क्रियाओं का व्यवस्थित रूप से संचालन करते हैं जिससे शरीर पूर्णत: स्वस्थ बना रहता है और कोई रोग नहीं होने पाता. शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक सभी क्षेत्रों के विकास में आसनों का अधिकार है. अन्य व्यायाम पद्धतियां केवल वाह्य शरीर को ही प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं, जब कि योगसन मानव का चहुँमुखी विकास करते हैं.

 

by  Pandit Dayanand Shastri.
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जानिए मंगलदोष शांति के उपाय: – पंडित दयानन्द शास्त्री

वैसे तो हमारे सभी वैदिक ग्रंथों और ज्योतिषीय ग्रंथों में मंगलदोष निवारण के अनेकानेक उपाय बताये गए है जैसे—

1.  लाल पुष्पों को जल में प्रवाहीत करे।

2 . मंगलवार को गुड़ व मसूर की दाल जरूर खायें।

3 . मंगलवार को रेवडि़या पानी में विसर्जित करे।

4 . आटे के पेड़े में गुड व चीनी मिलाकर गाय को खिलाये।

5 . मीठी रोटियों का दान करे।

6 . ताँबे के तार में डाले गये रूद्राक्ष की माला धारण करे।

7 . मंगलवार को शिवलिंग पर जल चढ़ाये।

8 . बन्दरों को मीठी लाल वस्तु जैसे – जलेबी, इमरती, शक्करपारे आदि खिलाये।

9 . शिवजी या हनुमान जी के नित्य दर्शन करें और हनुमान चालीसा या महामृत्युन्जय मंत्र की रोजाना कम से कम एक माला का जाप करे। हनुमान जी के मन्दिर में दीपदान करें तथा बजरंग बाण का प्रत्.येक मंगलवार को पाठ करे।

10. गेहूँ , गुड़, मूंगा, मसूर, तांबा, सोना, लाल वस्त्र, केशर – कस्तूरी, लाल पुष्प , लाल चंदन , लाल रंग का. बैल, धी, पीले रंग की गाय, मीठा भोजन आदि लाल वस्तुओं का दान मंगलवार मध्यान्ह में करें। दीन में मंगल यंत्र का पूजन करें। मंगलवार को लाल वस्त्र पहने।

11 .शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार से 21 या 45 मंगलवार तक अथवा पूरे वर्ष मंगलवार का व्रत करे। गुड़ का बना हलवा भोग लगाने व प्रसाद बाँटने के काम में लाये और सांयकाल को वही प्रसाद ग्रहण करे।

12 .जिस मंगलवार को व्रत करें उस दिन बिना नमक का भोजन एक बार विधिवत मंगल की पूजा अर्चना कर ग्रहण करे।

13. पति-पत्नि दोनों एक साथ रसोई में बैठकर भोजन करे।

14 .स्नान के बाद सूखे वस्त्र को हाथ लगाने से पहले पूर्व दिशा में मुँह करके सूर्य का अर्ध देकर प्रणाम करें। (सूर्य देव दिखाई दे या न दे).

15. शयन कक्ष में पलंग पर काँच लगे हो तो उन्हें हटा दे, मंगल का कोप नहीं रहेगा अन्यथा उस काँच में पति – पत्नि का जो भी अंग दिखाई देगा वह रोगग्रस्त हो जायेगा।

16. मन का कारक चन्द्रमा होता है जिसके कारण मन को चंचलता प्राप्त होती है। पति-पत्नि के बीच जब भी वाद-विवाद हो, उग्रता आने लगे तब दोनों में से कोई एक उस स्थान से हट जायें, चन्द्र संतुलित रहेगा।

17. शयन कक्ष में यदि रोजाना पति-पत्नि के बीच वाद-विवाद, झगड़े जैसी घटनाएँ होने लगे तो जन्म कुण्डली के बारहवें भाव में पड़े ग्रह की शान्ति कराये।

18. दाम्पत्य की दृष्टि से पत्नि को अपना सारा बनाव श्रृगांर (मेकअप) आदि सांयकाल या उसके पश्चात करना चाहिए जिससे गुरू , मंगल और सूर्य अनुकूल होता है। दीन में स्त्री जितना मेकअप करेगी पति से उसकी दूरी बढ़ेगी।

19. पति-पत्नि के बीच किसी मजबूरी के चलते स्वैच्छिक दूरी बढ़े तो पति-पत्नि दोनों को गहरे पीले रंग का पुखराज तर्जनी अंगुली में धारण करना चाहिए।

20. यह बात ध्यान रखें कि वैवाहिक जीवन में मंगल अहंकार देता है स्वाभिमान नहीं। दाम्पत्य जीवन की सफलता हेतु दोनों की ही आवश्यकता नहीं होती है। पाप ग्रहों का प्रभाव दाम्पत्य को बिगाड़ देता है। ऐसी स्थिती में चन्द्रमा के साथ जिस पाप ग्रह का प्रभाव हो उस ग्रह की शांति कराने से दाम्पत्य जीवन सुखमय होता है। शुक्ल पक्ष मेें पति-पत्नी चाँदनी रात में चन्द्र दर्शन कर, चन्द्रमा की किरणों को अपने शरीर से अवश्य स्पर्श करवाये।

21. बाग – बगीचा, नदी , समुद्र, खेत, धार्मिक स्थल एवं पर्यटन स्थलों आदि पर पति – पत्नी साथ जायें तो श्रेष्ट होगा। इससे गुरू व शुक्र प्रसन्न होगें, इसके विपरीत कब्रिस्तान , कोर्ट – कचहरी , पुलिस थाना , शराब की दुकान , शमशान व सुना जंगल आदि स्थानों पर पति-पत्नी भूलकर भी साथ न जाये।

22. मंगल के कोप के कारण बार – बार संतान गर्भ में नष्ट होने से पति-पत्नी के बीच तनाव , रोग एवं परेशानियां उत्पन्न होती हैं ऐसी स्थिति में पति – पत्नी को महारूद्र या अतिरूद्र का पाठ करना चाहिए।

23. मंगल की अशुभ दशा , अन्तर्दशा में पति – पत्नी के बीच कलह , वाद – विवाद व अलगाव सम्भावित हैं। ऐसी स्थिती में गणपति स्त्रोत , देवी कवच , लक्ष्मी स्त्रोत , कार्तिकेय स्त्रोत एवं कुमार कार्तिकेय की नित्य पूजा अर्चना एवं पाठ करना चाहिए।

24. जिन युवक-युवतियों का विवाह मंगल दोष के कारण नहीं हो रहा हैं, उन्हें प्रतीक स्वरूप विवाह करना चाहिए। जिनमें कन्या का प्रतीक विवाह भगवान विष्णु से या सालिग्राम के पत्थर या मूर्ति से कराया जाता हैं। इसी प्रकार पुरूष का प्रतीक विवाह बैर की झाडि़यों से कराया जाता है।

25. विवाह के इच्छुक मांगलिक युवक-युवतियों को तांबें का सिक्का पाकेट या पर्स में रखना चाहिए। तांबें की अंगुठी अनामिका अंगुली में धारण करे, तांबे का छल्ला साथ रखें, रात्रि में तांबे के पात्र में जल भरकर रखें व प्रातः काल उसे पीयें।

26. प्रतिदिन तुलसी को जल चढ़ाने और तुलसी पत्र का सेवन करने से मंगल के अनिष्ठ शांत होते है।

27. अपना चरित्र हमेशा सही रखें । झूठ नहीं बोले । किसी को सताए नहीं । झूठी गवाही कभी भी ना देवे । दक्षिण दिशा वाले द्वार में न रहें । किसी से ईष्या, द्वेश भाव न रखे । यथा शक्ति दान करें ।

28. मंगलवार के दिन सौ गा्रम बादाम दक्षिणमुखी हनुमानजी के यहां ले जावे । उनमें से आधे बादाम मंदिर में रख देवे और आधे बादाम घर लाकर पूजा स्थल पर रखें । बादाम खुले में ही रखे । यह जब तक रखे जब तक की आपकी मंगल की महादशा चलती है ।

29. मूंगा या रूद्राक्ष की माला हमेशा अपने गले में धारण करें ।

30. आँखो में सुरमा लगावें । जमीन पर सोयें । गायत्री मंत्र का जाप संध्याकाल में करें ।

31. नित्य सुबह पिता अथवा बड़े भाई के चरण छुकर आशीर्वाद ले।

32 .मंगल की शांति हेतु मूंगा रत्न धारण करना चाहिए इसके लिए चांदी की अंगुठी में मूंगा जड़वाकर दायें हाथ की अनामिका में धारण करना चाहिए। मूंगा का वजन 6 रत्ती से अधिक होना चाहिए। धारण करने से पूर्व मूंगे को गंगाजल, गौमूत्र अथवा गुलाब जल से स्नान करवाकर शुद्ध करें तत्पश्चात विधि अनुसार धारण करे।

33. जो जातक मूंगा धारण नहीं कर सकते उन्हें तीनमुखी रूद्राक्ष धारण कराना चाहिए । तीन मुखी रूद्राक्ष को लाल धागे में गुथकर धूपित करके, मंगलवाल के दिन गले या दाहिने हाथ में धारण करें । इसके प्रभाव से उन्हें मंगल शांति में सफलता मिलती है।

34. क्रुर व उग्र होते हुए भी सौम्य ग्रहों की युति से मंगल विशेष सौम्य फल प्रदान करता है । चन्द्र व मंगल की युति आकस्मिक धनप्राप्ति, शनि मंगल की युति डुप्लीकेट सामान बनाने व नकल करने में माहिर बनाता हैं, ऐसा व्यक्ति कार्टूनिस्ट, पोट्रेट आर्टिस्ट व मुखौटे बनाने में निपुण हो सकता हैं । शुक्र व मंगल की युति फोटोग्राफी, सिनेमा तथा चित्रकारी आदि की योग्यता भी देता हैं। बुध के साथ युति होने पर जासूस का वैज्ञानिक और मांगलिक प्रभाव भी नष्ट करता है, किन्तु जिन घरों पर वह दृष्टि डालता हें वहां अवश्य ही हानि करने वाला होता है । कुण्डली में सातवां घर मंगल का ही माना जाता हैं क्योकिं यह मंगल की उच्च राशि हैं। अतः सातवां घर मंगल की स्वराशि का घर कहलाता है।
35 पुत्रहीनता तथा ऋणग्रस्तता दूषित मंगल की ही देन होती है । स्त्रियों में कामवासना का विशेष विचार भी मंगल से किया जाता है ।

  • लगन दूसरे भाव चतुर्थ भाव सप्तम भाव और बारहवें भाव के मंगल के लिये वैदिक उपाय बताये गये है,सबसे पहला उपाय तो मंगली जातक के साथ मंगली जातक की ही शादी करनी चाहिये। लेकिन एक जातक मंगली और उपरोक्त कारण अगर मिलते है तो दूसरे मे देखना चाहिये कि मंगल को शनि के द्वारा कहीं दृष्टि तो नही दी गयी है, कारण शनि ठंडा ग्रह है और जातक के मंगल को शांत रखने के लिये काफ़ी हद तक अपना कार्य करता है,दूसरे पति की कुंडली में मंगल असरकारक है और पत्नी की कुंडली में मंगल असरकारक नहीं है तो शादी नही करनी चाहिये।
  • वैसे मंगली पति और पत्नी को शादी के बाद लालवस्त्र पहिन कर तांबे के लोटे में चावल भरने के बाद लोटे पर सफ़ेद चन्दन को पोत कर एक लाल फ़ूल और एक रुपया लोटे पर रखकर पास के किसी हनुमान मन्दिर में रख कर आना चाहिये।
  • चान्दी की चौकोर डिब्बी में शहद भरकर रखने से भी मंगल का असर कम हो जाता है, घर में आने वाले महिमानों को मिठाई खिलाने से भी मंगल का असर कम रहता है,मंगल शनि और चन्द्र को मिलाकर दान करने से भी फ़ायदा मिलता है,मंगल से मीठी शनि से चाय और चन्द्र से दूध से बनी पिलानी चाहिये।
  • मंगल के प्रभाव से होने वाले रोगादि रक्त-सम्बन्धी रोग, पित्त विकार, मज्जा विकार, नेत्र विकार, जलन, तृष्णा, मिर्गी व उन्माद आदि मानसिक रोग, चर्म रोग, अस्थिभ्रंश, आॅपरेशन, दुर्घटना, रक्तस्त्राव व घाव, पशुभय, भूत-पिशाच के आवेश से होने वाली पीड़ाएं आदि विशेष हैं । निर्बल होने से यह जीवन शक्ति उत्साह व उमंग का नाश करता हैं ।

 

by Pandit Dayanand Shastri.

Wedding

जानिये की कब बनेंगें आपके विवाह के योग-

वर्तमान समय में युवक युवतियां उच्च शिक्षा या अच्छा करियर बनाने के चक्कर में बड़ी उम्र के हो जाने पर विवाह में काफी विलंब हो जाता है। उनके माता-पिता भी असुरक्षा की भावनावश बच्चों के अच्छे खाने-कमाने और आत्मनिर्भर होने तक विवाह न करने पर सहमत हो जाने से भी विवाह में विलंब निश्चित होता है।

पंडित दयानन्द शास्त्री  के अनुसार बहुत अच्छा होगा जब किसी विद्वान ज्योतिषी को अपनी जन्म कुंडली दिखाकर विवाह में बाधक ग्रह या दोष को ज्ञात कर उसका निवारण करें। ज्योतिषीय दृष्टि से जब विवाह योग बनते है, तब विवाह टलने से विवाह में बहुत देरी हो जाती है। वे विवाह को लेकर अत्यंत चिंतित हो जाते हैं। वैसे विवाह में देरी होने का एक कारण बच्चों का मांगलिक होना भी होता है। मंगली या मंगल दोष निवारण के लिए उज्जैन ( मध्यप्रदेश) स्थित प्राचीन अंगारेश्वर महादेव मंदिर पर आकर विशेष गुलाल पूजन के साथ पंचोपचार पूजन से तात्कालिक लाभ होता हैं। किसी भी पूजा पाठ में आस्था, विश्वास और श्रद्धा आवश्यक होती हैं। तर्क कुतर्क करने वालों को पूर्ण लाभ नहीं मिल पता हैं।

मांगलिक या मंगल दोष से प्रभावित युवक युवतियों के विवाह के योग 27, 29, 31, 33, 35 व 37 वें वर्ष में बनते हैं। जिन युवक-युवतियों के विवाह में विलंब हो जाता है, तो उनके ग्रहों की दशा ज्ञात कर, विवाह के योग कब बनते हैं, जान सकते हैं।

जिस वर्ष शनि और गुरु दोनों सप्तम भाव या लग्न को देखते हो, तब विवाह के योग बनते है। सप्तमेश की महादशा-अंतर्दशा या शुक्र-गुरु की महादशा-अंतर्दशा में विवाह का प्रबल योग बनता है। सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तमेश के साथ बैठे ग्रह की महादशा-अंतर्दशा में विवाह संभव है।

♦पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार कुछ अन्य विवाह योग  निम्ननुसार हैं—-

(1) लग्नेश, जब गोचर में सप्तम भाव की राशि में आए।
(2) जब शुक्र और सप्तमेश एक साथ हो, तो सप्तमेश की दशा-अंतर्दशा में।
(3) लग्न, चंद्र लग्न एवं शुक्र लग्न की कुंडली में सप्तमेश की दशा-अंतर्दशा में।
(4) शुक्र एवं चंद्र में जो भी बली हो, चंद्र राशि की संख्या, अष्टमेश की संख्या जोड़ने पर जो राशि  आए, उसमें गोचर गुरु आने पर।
(5) लग्नेश-सप्तमेश की स्पष्ट राशि आदि के योग के तुल्य राशि में जब गोचर गुरु आए।
(6) दशमेश की महादशा और अष्टमेश के अंतर में।
(7) सप्तमेश-शुक्र ग्रह में जब गोचर में चंद्र गुरु आए।
(8) द्वितीयेश जिस राशि में हो, उस ग्रह की दशा-अंतर्दशा मेंजब।

हमारे यहाँ मनुष्य जीवन में विवाह बहुत बड़ी विशेषता मानी गई है

विवाह का वास्तविक अर्थ है- दो आत्माओं का आत्मिक मिलन. एक हृदय चाहता है कि वह दूसरे हृदय से सम्पर्क स्थापित करे, आपस में दोनों का आत्मिक प्रेम हो और हृदय मधुर कल्पना से ओतप्रोत हो।

जब दोनों एक सूत्र में बँध जाते हैं, तब उसे समाज ‘विवाह’ का नाम देता है. विवाह एक पवित्र रिश्ता है।

♦ ध्यान दे विवाह नही होगा अगर

  • यदि कुंडली में सप्तमेश शुभ स्थान पर नही है यदि सप्तमेश छ: आठ या बारहवें स्थान पर अस्त होकर बैठा है
  • जब सप्तमेश नीच राशि में है
  • यदि सप्तमेश बारहवें भाव में है,और लगनेश या राशिपति सप्तम में बैठा है.
  • जब चन्द्र शुक्र साथ हों,उनसे सप्तम में मंगल और शनि विराजमान हों
  • जब शुक्र और मंगल दोनों सप्तम में हों
  • जब शुक्र मंगल दोनो पंचम या नवें भाव में हों
  • जब शुक्र किसी पाप ग्रह के साथ हो और पंचम या नवें भाव में हो
  • यदि शुक्र बुध शनि तीनो ही नीच हों
  • यदि पंचम में चन्द्र हो,सातवें या बारहवें भाव में दो या दो से अधिक पापग्रह हों
  • यदि सूर्य स्पष्ट और सप्तम स्पष्ट बराबर का हो।

♦ जानिए आपके विवाह में देरी का कारण—

कुंडली के सप्तम भाव में बुध और शुक्र दोनो के होने पर विवाह वादे चलते रहते है,विवाह आधी उम्र में होता है ।

चौथा या लगन भाव मंगल (बाल्यावस्था) से युक्त हो, सप्तम में शनि हो तो कन्या की रुचि शादी में नही होती है

सप्तम में शनि और गुरु शादी देर से करवाते हैं चन्द्रमा से सप्तम में गुरु शादी देर से करवाता है,यही बात चन्द्रमा की राशि कर्क से भी माना जाता है 

जब सप्तम में त्रिक भाव का स्वामी हो,कोई शुभ ग्रह योगकारक नही हो,तो पुरुष विवाह में देरी होती है
जब सूर्य मंगल बुध लगन या राशिपति को देखता हो,और गुरु बारहवें भाव में बैठा हो तो आध्यात्मिकता अधिक होने से विवाह में देरी होती है

लगन में सप्तम में और बारहवें भाव में गुरु या शुभ ग्रह योग कारक नही हों,परिवार भाव में चन्द्रमा कमजोर हो तो विवाह नही होता है,अगर हो भी जावे तो संतान नही होती है

यदि किसी युवती या महिला की कुन्डली में सप्तमेश या सप्तम शनि से पीडित हो तो विवाह देर से होता हैजब राहु की दशा में शादी हुयी हो या राहु सप्तम को पीडित कर रहा हो,तो शादी होकर टूट जाती है,यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है।

♦ जानिए आपके विवाह का समय (कब होगा विवाह)–

सप्तम या सप्तम से सम्बन्ध रखने वाले ग्रह की महादशा या अन्तर्दशा में विवाह होता है किसी कन्या की कुन्डली में शुक्र से सप्तम और पुरुष की कुन्डली में गुरु से सप्तम की दशा में या अन्तर्दशा में विवाह होता है

कुंडली में सप्तमेश की महादशा में पुरुष के प्रति शुक्र या चन्द्र की अन्तर्दशा में और स्त्री के प्रति गुरु या मंगल की अन्तर्दशा में विवाह होता है सप्तमेश जिस राशि में हो,उस राशि के स्वामी के त्रिकोण में गुरु के आने पर विवाह होता है

जब गुरु गोचर से सप्तम में या लगन में या चन्द्र राशि में या चन्द्र राशि के सप्तम में आये तो विवाह होता है गुरु का गोचर जब सप्तमेश और लगनेश की स्पष्ट राशि के जोड में आये तो विवाह होता है

जब सप्तमेश जब गोचर से शुक्र की राशि में आये और गुरु से सम्बन्ध बना ले तो विवाह या शारीरिक सम्बन्ध बनता है

पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार सप्तमेश और गुरु का त्रिकोणात्मक सम्पर्क गोचर से शादी करवा देता है, या प्यार प्रेम चालू हो जाता है। क्युकी चन्द्रमा मन का कारक है, और वह जब बलवान होकर सप्तम भाव या सप्तमेश से सम्बन्ध रखता हो तो चौबीसवें साल तक विवाह करवा ही देता है।

♦  इन उपाय से होता हैं लाभ ( आस्था, विश्वास और श्रद्धा आवश्यक)—

मान्यता है कि निम्नलिखित उपाय करने पर विवाह योग बनते हैं एवं विवाह शीघ्र होता है—-

माँ पार्वती की विधिवत पूजा करके प्रतिदिन निम्नांकित मंत्र की पाँच माला का जाप करने पर मनोरथ शीघ्र पूर्ण होता है—

हे गौरि शंकरार्धांगि यथा त्व शंकर प्रिया ।
तथा मां कुरु कल्याणि, कान्तकांता सुदुर्लुभाम्‌॥

किसी भी माह की प्रत्येक प्रदोष तिथि को माँ पार्वती का श्रृंगार कर विधिवत पूजन करें ।

विवाह हेतु किसी योग्य एवम् अनुभवी आचार्य की सलाह लेकर तीन रत्ती से अधिक का जरकन, हीरे या पुखराज की अँगूठी अनामिका में शुभ मुहूर्त में विधिवत धारण करें ।

अच्छा होगा किसी विद्वान ज्योतिषी को अपनी जन्म कुंडली दिखाकर विवाह में बाधक ग्रह या दोष को ज्ञात कर उसका निवारण करें।  विवाह के लिए गुरु आराध्य है, उसकी उपासना करना चाहिए ।

 

by Pandit Dayanand Shastri.