घर को बुरी नजर से बचाने व उसमे सुख–समृद्धि के वास के लिए मुख्य द्वार के दोनो तरफ स्वस्तिक चिह्न् बनाया जाता है– स्वस्तिक चक्र की गतिशीलता बाईं से दाईं ओर है– इसी सिद्धान्त पर घड़ी की दिशा निर्धारित की गयी है–पृथ्वी को गति प्रदान करने वाली ऊर्जा का प्रमुख स्रोत उत्तरायण से दक्षिणायण की ओर है।
इसी प्रकार वास्तुशास्त्र मे उत्तर दिशा का बड़ा महत्व है– इस ओर भवन अपेक्षाकृत अधिक खुला रखा जाता है जिससे उसमे चुम्बकीय ऊर्जा व दिव्य शक्तियो का संचार रहे–वास्तुदोष क्षय करने के लिए स्वस्तिक को बेहद लाभकारी माना गया है।
मुख्य द्वार के ऊपर सिन्दूर से स्वस्तिक का चिह्न् बनाना चाहिए–यह चिह्न् नौ अंगुल लम्बा व नौ अंगुल चौड़ा हो– घर में जहां–जहां वास्तुदोष हो वहां यह चिह्न् बनाया जा सकता है–यह वास्तु का मूल चिह्न् है।
♦जानिए की कैसे प्रयोग करे स्वस्तिक सफलता प्राप्ति के लिए:
1. पञ्च धातु का स्वस्तिक बनवा के प्राण प्रतिष्ठा करके चौखट पर लगवाने से अच्छे परिणाम मिलते है।
2. चांदी मे नवरत्न लगवाकर पूर्व दिशा मे लगाने पर वास्तु दोष व लक्ष्मी प्राप्त होती है ।
3. वास्तु दोष दूर करने के लिये 9 अंगुल लंबा और चौड़ा स्वस्तिक सिन्दूर से बनाने से नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा मे बदल देता है।
4. धार्मिक कार्यो मे रोली, हल्दी,या सिन्दूर से बना स्वस्तिक आत्मसंतुष्टि देता है।
5. गुरु पुष्य या रवि पुष्य मे बनाया गया स्वस्तिक शांति प्रदान करता है।
6. त्योहारो मे द्वार पर कुमकुम सिन्दूर अथवा रंगोली से स्वस्तिक बनाना मंगलकारी होता है। ऐसी मान्यता है की देवी – देवता घर मे प्रवेश करते है इसीलिए उनके स्वागत के लिए द्वार पर इसे बनाया जाता है।
7. अगर कोई 7 गुरुवार को ईशान कोण मे गंगाजल से धोकर सुखी हल्दी से स्वस्तिक बनाए और उसकी पंचोपचार पूजा करे साथ ही आधा तोला गुड का भोग भी लगाए तो बिक्री बढती है।
8. स्वस्तिक बनवाकर उसके ऊपर जिस भी देवता को बिठा के पूजा करे तो वो शीघ्र प्रसन्न होते है।
9. देव स्थान में स्वस्तिक बनाकर उस पर पञ्च धान्य का दीपक जलाकर रखने से कुछ समय में इच्छित कार्य पूर्ण होते है ।
10. भजन करने से पहले आसन के नीचे पानी , कंकू, हल्दी अथवा चन्दन से स्वस्तिक बनाकर उस स्वस्क्तिक पर आसन बिछाकर बैठकर भजन करने से सिद्धी शीघ्र प्राप्त होती है।
11. सोने से पूर्व स्वस्तिक को अगर तर्जनी से बनाया जाए तो सुख पूर्वक नींद आती है, बुरे सपने नहीं आते है।
12. स्वस्तिक मे अगर पंद्रह या बीसा का यन्त्र बनाकर लोकेट या अंगूठी मे पहना जाए तो विघ्नों का नाश होकर सफलता मिलती है।
13. मनोकामना सिद्धी हेतु मंदिरों मे गोबर और कंकू से उलटा स्वस्तिक बनाया जाता है।
14. होली के कोयले से भोजपत्र पर स्वास्तिक बनाकर धारण करने से बुरी नजर से बचाव होता है और शुभता आती है।
15. पितृ पक्ष मे बालिकाए संजा बनाते समय गोबर से स्वस्तिक भी बनाती है शुभता के लिए और पितरो का आशीर्वाद लेने के लिए।
16. वास्तु दोष दूर करने के लिए पिरामिड मे भी स्वस्तिक बनाकर रखने की सलाह दी जाती है।
अतः स्वस्तिक हर प्रकार से से फायदेमंद है , मंगलकारी है, शुभता लाने वाला है, ऊर्जा देने वाला है, सफलता देने वाला है इसे प्रयोग करना चाहिए।
♦ हिन्दू मान्यता के अनुसार स्वस्तिक :-
किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म मे स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है–मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है–स्वस्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है– स्वस्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना अर्थात स्वस्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो’।
असल मे स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है–हिन्दू धर्मं मे मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं – पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं–लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं– कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती है।
हिन्दुओ के समान जैन, बौद्ध और इसाई भी स्वस्तिक को मंगलकारी और समृद्धि प्रदान करने वाला चिन्ह मानते है। बौद्ध मान्यता के अनुसार वनस्पति सम्पदा की उत्पत्ति का कारण स्वस्तिक है ।बुद्ध के मूर्तियों में और उनके चिन्हों पर स्वस्तिक का चिन्ह मिलता है।इससे पूर्व सिन्धु घाटी से प्राप्त मुद्रा में और बर्तनों में भी स्वस्तिक के चिन्ह खुदे मिलते है।उदयगिरी और खंडगिरी के गुफा में भी स्वस्तिक चिन्ह मिले है।
स्वस्तिक को 7 अंगुल, 9 अंगुल या 9 इंच के प्रमाण मे बनाया जाने का विधान है। मंगल कार्यो के अवसर पर पूजा स्थान तथा दरवाजे की चौखट पर स्वस्तिक बनाने की परम्परा है।
स्वस्तिक का आरंभिक आकार पूर्व से पश्चिम एक खड़ी रेखा और उसके ऊपर दूसरी दक्षिण से उत्तर आडी रेखा के रूप में तथा इसकी चारो भुजाओं के सिरों पर पूर्व से एक एक रेखा जोड़ी जाती है तथा चारो रेखाओं के मध्य में एक एक बिंदु लगाया जाता है और स्वस्तिक के मध्य में भी एक बिंदु लगाया जाता है. इसके लिए विभिन्न प्रकार की स्याही का उपयोग होता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की चार रेखाओं की चार वेद, चार पुरुषार्थ, चार वर्ण, चार आश्रम, चार लोक तथा चार देवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा गणेश से तुलना की गई है। प्रतीकात्मक विचार के इन सूत्रों में स्वस्तिक चतुर्दल कमल का सूचक भी माना गया है। अतः यह गणपति देव का निवास स्थान भी है। इसी तथ्य को मूर्धन्य मनीषियों ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने भी कमल को स्वस्तिक का ही पर्याय माना है। इसलिए कमल का प्रतीक भी स्वस्तिक हो गया और इसे भी मंगल व पुण्यकर्म मे प्रयुक्त किया जाने लगा।
कुछ विद्वान कमलापति भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर विद्यमान कौस्तुभ मणि को स्वस्तिक के आकार रूप मे मानते है।
‘सिंबोलिज्म ऑफ दि ईस्ट एंड वेस्ट’ नामक ग्रंथ मे प्रतिपादित किया गया है कि वैदिक प्रतीको मे गहन–गंभीर एवं गूढ़ अर्थ निहित है। यही प्रतीक संसार के विभिन्ना धर्मों मे भिन्न–भिन्न ढंग से परिलक्षित प्रकट होते है तथा देश–काल, परिस्थिति के अनुरूप इनके स्वरूपों में रूपांतर एवं परिवर्तन होता रहता है। अतः स्वस्तिक प्रतीक की गति–प्रगति की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा है।
जैन धर्म मे स्वस्तिक उनके सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के प्रतीक चिन्ह के रूप मे लोकप्रिय है। जैन अनुयायी स्वस्तिक की चार भुजाओं को संभावित पुनर्जन्मों के स्थल–स्थानो के रूप मे मानते है। ये स्थल है– वनस्पति या प्राणिजगत, पृथ्वी, जीवात्मा एवं नरक। बौद्ध मठो मे भी स्वस्तिक का अंकन मिलता है। जॉर्ज वडंउड ने बौद्धो के धर्मचक्र को यूनानी क्रॉस को तथा स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना है। उनके अनुसार यह अत्यंत प्राचीनतम प्रतीक है, जिसमे गहन अर्थ निहित है। तिब्बत के लामाओं के निवास स्थान तथा मंदिरों मे स्वस्तिक की आकृति बनी हुई मिलती है। क्रॉस की उत्पत्ति का आधार ही स्वस्तिक है।
बौद्ध धर्म मे स्वस्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है–यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हो को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है– यही नहीं, स्वस्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है ।
हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वस्तिक का जैन धर्म मे है– जैन धर्म मे यह सातवं जिन का प्रतीक है– जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते है – श्वेताम्बर जैनी स्वस्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते है।
यह प्रतीक चिन्ह विभिन्न रूपो मे विभिन्न अर्थों मे प्रयोग होता है। इसे प्रजनन प्रतीक, उर्वरता प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न, अलंकरण–अभिप्राय, अग्नि, विद्युत, वज्र, जल आदि का सांकेतिक स्वरूप, ज्योतिष प्रतीक, उड़ते हुए पक्षी आदि अन्यान्य रूपो मे माना गया है।
एक अन्य प्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी ने बड़ी ही उदारतापूर्वक स्वीकार किया है कि ऋषियो एवं विद्वानो के आर्यस्थल वैदिक भारत मे जिस मंगलदायक एवं शुभसूचक स्वस्तिक की कल्पना की गई थी, वही अन्यान्य रूपो मे विश्व की अन्य सभ्यताओ द्वारा अपना ली गई है, उसे मान्यता प्रदान कर दी गई है।
स्वस्तिक मे सद्भावना ही नहीं है, वरन् सद्ज्ञान व सद्विचार का संपुट भी लगा हुआ है। इसमे वैयक्तिक विकास व विस्तार के साथ ही समाज की प्रगति एवं विश्वकल्याण की अनंत संभावनाएँ सन्निाहित है।
वर्तमान मे आवश्यकता है एक ऐसी दृष्टि की, जो इसे साक्षात्कार कर सके और इस प्रतीक की शुभकामना को अभिव्यक्त कर सके। जिससे हमारे विचार व मंगलमय एवं कल्याणकारी बन सके।