विवाह जीवन का सबसे अहम पल होता है। कई बार विवाह मे अड़चने आती है। इसके कई कारण होसकते है। वास्तु दोष भी उन्हीं मे से एक है। यदि इन वास्तु दोषो को दूर कर दिया जाए तो जिसके विवाह मे अड़चने आ रही होती है उसका विवाह अतिशीघ्र हो जाता है। नीचे ऐसे ही कुछ वास्तु नियमों के बारे मे जानकारी दी गई है-
1- यदि विवाह प्रस्ताव मे व्यवधान आ रहे हो तो विवाह वार्ता के लिए घर आए अतिथियो को इस प्रकार बैठाएं कि उनका मुख घर मे अंदर की ओर हो । उन्हे द्वार दिखाई न दे।
2- यदि मंगल दोष के कारण विवाह मे विलंब हो रहा हो तो उसके कमरे के दरवाजे का रंग लाल अथवा गुलाबी रखना चाहिए।
3- विवाह योग्य युवक-युवती के कक्ष मे कोई खाली टंकी, बड़ा बर्तन बंद करके नहीं रखें। अगर कोई भारी वस्तु हो तो उसे भी हटा दे।
4- विवाह योग्य युवक-युवती जिस पलंग पर सोते हों उसके नीचे लोहे की वस्तुएं या व्यर्थ का सामान नहीं रखना चाहिए।
5- यदि विवाह के पूर्व लड़का-लड़की घर वालो की रजामंदी से मिलना चाहे तो बैठक व्यवस्था इस प्रकार करे कि उनका मुख दक्षिण दिशा की ओर न हो।
6- यदि घर के मुख्य द्वार के समीप ही वास्तु दोष हो तो विवाह की बात अन्य स्थान पर करे।
7- घर मे बेटी जवान है, उसकी शादी नहीं हो पा रही है, तो एक उपाय करे- कन्या के पलंग पर पीले रंग की चादर बिछाएं, उस पर कन्या को सोने के लिए कहे। इसके साथ ही बेडरूम की दीवारों पर हल्का रंग करें। ध्यान रहे कि कन्या का शयन कक्ष वायव्य कोण मे स्थित होना चाहिए।जीवन मे पीले रंग को सफलता का सूचक कहा जाता है। पीला रंग भाग्य मे वृद्धि लाता है। कन्या की शादी मे पीले रंग का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग किया जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कन्या ससुराल मे सुखी रहेगी।विवाह निर्विघ्न होने की शुभ सूचना वस्तुतः हल्दी से सम्पन्न होती है, क्योंकि हल्दी को गणेशजी की उपस्थिति माना जाता है। और जिस कार्य मे गणेश जी स्वयं उपस्थित हो, उस कार्य को पूरा करने मे विघ्न कैसे आ सकता है। हल्दी की गांठो मे कभी-कभी गणेश जी की मूर्ति का चित्र मिलता है। लक्ष्मी अन्नपूर्णा भी हरिद्रा कहलाती है। श्री सूक्त मे वर्णन किया गया है कि लक्ष्मी जी पीत वस्त्र धारण किए है। अतः आप समझ सकते है कि हल्दी का कितना महत्व है। इतना ही नहीं, बृहस्पति का रंग भी पीत वर्ण का है, तभी तो पीत रंग का पुखराज पहनकर बृहस्पति की कृपा प्राप्त होती है।
♦ क्यो नहीं करना चाहिए एक ही गौत्र मे विवाह ?
ब्राह्मणो के विवाह मे गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणो व स्मृति ग्रंथों मे बताया गया है कि यदि कोई कन्या संगौत्र हो, किंतु सप्रवर न हो अथवा सप्रवर हो किंतु संगौत्र न हो, तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए। विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवे ऋषि अगस्ति की संतान ‘गौत्र” कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते समय इसका उपयोग किया जाने लगा।
ऋषियों की संख्या लाख-करोड़ होने के कारण गौत्रों की संख्या भी लाख-करोड़ मानी जाती है, परंतु सामान्यत: आठ ऋषियों के नाम पर मूल आठ गौत्र ऋषि माने जाते है, जिनके वंश के पुरुषों के नाम पर अन्य गौत्र बनाए गए। ‘महाभारत” के शांतिपर्व (297/17-18) मेमूल चार गौत्र बताए गए है- अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु, जबकि जैन ग्रंथों मे 7 गौत्रों का उल्लेख है- कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ। इनमे हर एक के अलग-अलग भेद बताए गए है- जैसे कौशिक-कौशिक कात्यायन, दर्भ कात्यायन, वल्कलिन, पाक्षिण, लोधाक्ष, लोहितायन (दिव्यावदन-331-12,14) विवाह निश्चित करते समय गौत्र के साथ-साथ प्रवर का भी ख्याल रखना जरूरी है। प्रवर भी प्राचीन ऋषियो के नाम है तथापि अंतर यह है कि गौत्र का संबंध रक्त से है, जबकि प्रवर से आध्यात्मिक संबंध है। प्रवर की गणना गौत्रों के अंतर्गत की जाने से जाति से संगौत्र बहिर्विवाहकी धारणा प्रवरों के लिए भी लागू होने लगी।
ब्राह्मणो के विवाह मे गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणों व स्मृति ग्रंथों मे बताया गया है कि यदि कोई कन्या संगौत्र हो, किंतु सप्रवर न हो अथवा सप्रवर हो किंतु संगौत्र न हो, तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए। वर-वधू का एक वर्ष होतेहुए भी उनके भिन्ना-भिन्ना गौत्र और प्रवर होना आवश्यक है (मनुस्मृति- 3/5)। मत्स्यपुराण (4/2) मे ब्राह्मण के साथ संगौत्रीय शतरूपा के विवाह पर आश्चर्य और खेद प्रकट किया गया है। गौतमधर्म सूत्र (4/2) मे भी असमान प्रवर विवाह का निर्देश दिया गया है। (असमान प्रवरैर्विगत) आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है- ‘संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत्” (समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए)। असमान गौत्रीय के साथ विवाह न करने पर भूल पुरुष के ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाने तथा चांडाल पुत्र-पुत्री के उत्पन्ना होने की बात कही गई। अपर्राक कहता है कि जान-बूझकर संगौत्रीय कन्या से विवाह करने वाला जातिच्युत हो जाता है, जबकि बोधायन का मत है कि यदि कोई व्यक्ति भूल से भी संगौत्रीय कन्या से विवाह करता है, तो उसे उस कन्या का मातृत्वत् पालन करना चाहिए (संगौत्रचेदमत्योपयच्छते मातृपयेनां विमृयात्)। गौत्र जन्मना प्राप्त नहीं होता, इसलिए विवाह के पश्चात कन्या का गौत्र बदल जाता है और उसके लिए उसके पति का गौत्र लागू हो जाता है।