श्री यंत्र प्रमुख रूप से ऐश्वर्य तथा समृद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी का सिद्ध यंत्र है। यह यंत्र सही अर्थों मे यंत्रराज है। इस यंत्र को स्थापित करने का तात्पर्य श्री को अपने संपूर्ण ऐश्वर्य के साथ आमंत्रितकरना होता है। कहा गया है कि :-
श्री सुंदरी साधन तत्पराणाम् , भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव…. अर्थात जो साधक श्री यंत्र के माध्यम से त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी की साधना के लिए प्रयासरत होता है, उसकेएक हाथ मे सभी प्रकार के भोग होते है, तथा दूसरे हाथ मे पूर्ण मोक्ष होता है। आशय यह कि श्री यंत्र का साधकसमस्त प्रकार के भोगो का उपभोग करता हुआ अंत मे मोक्ष को प्राप्त होता है। इस प्रकार यह एकमात्र ऐसी साधना हैजो एक साथ भोग तथा मोक्ष दोनो ही प्रदान करती है, इसलिए प्रत्येक साधक इस साधना को प्राप्त करने के लिएसतत प्रयत्नशील रहता है। इस अद्भुत यंत्र से अनेक लाभ है, इनमे प्रमुख है :-
♦ श्री यंत्र के स्थापन मात्र से भगवती लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। ♦ कार्यस्थल पर इसका नित्य पूजन व्यापार मे विकास देता है। ♦ घर पर इसका नित्य पूजन करने से संपूर्ण दांपत्य सुख प्राप्त होता है। ♦ पूरे विधि विधान से इसका पूजन यदि प्रत्येक दीपावली की रात्रि को संपन्न कर लिया जाय तो उस घर मेसाल भर किसी प्रकार की कमी नही होती है। ♦ श्री यंत्र पर ध्यान लगाने से मानसिक क्षमता मे वृद्धि होती है। ♦ उच्च यौगिक दशा में यह सहस्रार चक्र केभेदन मे सहायक माना गया है। ♦ यह विविध वास्तु दोषों के निराकरण के लिए श्रेष्ठतम उपाय है।
♦ विविध पदार्थों से निर्मित श्री यंत्र :
श्री यंत्र का निर्माण विविध पदार्थों से किया जा सकता है। इनमे श्रेष्ठता के क्रम मे प्रमुख है – क्र. पदार्थ विशिष्टता
1.पारद श्रीयंत्र :
पारद को शिववीर्य कहा जाता है। पारद से निर्मित यह यंत्र सबसे दुर्लभतथा प्रभावशाली होता है। यदि सौभाग्य से ऐसा पारद श्री यंत्र प्राप्त हो जाए तो रंक को भी वह राजा बनाने में सक्षम होता है।
२. स्फटिक श्रीयंत्र :
स्फटिक का बना हुआ श्री यंत्र अतिशीघ्र सफलता प्रदान करता है। इस यंत्र की निर्मलता के समान ही साधक का जीवन भी सभी प्रकार की मलिनताओं से परे हो जाता है।
३. स्वर्ण श्रीयंत्र :
स्वर्ण से निर्मित यंत्र संपूर्ण ऐश्वर्य को प्रदान करने मे सक्षम माना गया है। इस यंत्र को तिजोरी मे रखना चाहिए तथा ऐसी व्यवस्था रखनी चाहिये कि उसे कोई अन्य व्यक्ति स्पर्श न कर सके।
४. मणि श्रीयंत्र:
ये यंत्र कामना के अनुसार बनाये जाते है तथा दुर्लभ होते है।
५. रजत श्रीयंत्र :
ये यंत्र व्यावसायिक प्रतिष्ठानो की उत्तरी दीवाल पर लगाए जाने चाहिये। इनको इस प्रकार से फ्रेम मे मढवाकर लगवाना चाहिए जिससेइसको कोई सीधे स्पर्श न कर सके।
६. ताम्र श्रीयंत्र :
ताम्र र्निमित यंत्र का प्रयोग विशेष पूजन अनुष्ठान तथा हवनादि केनिमित्त किया जाता है। इस प्रकार के यंत्र को पर्स मे रखने सेअनावश्यक खर्च मे कमी होती है तथा आय के नए माध्यमो काआभास होता है।
७. भोजपत्र श्रीयंत्र :
आजकल इस प्रकार के यंत्र दुर्लभ होते जा रहे है। इन पर निर्मित यंत्रोंका प्रयोग ताबीज के अंदर डालने के लिए किया जाता है। इस प्रकार केयंत्र सस्ते तथा प्रभावशाली होते है। उपरोक्त पदार्थों का उपयोग यंत्र निर्माण के लिए करना श्रेष्ठ है। लकडी, कपडा या पत्थर आदि पर श्री यंत्रका निर्माण न करना श्रेष्ठ रहता है। श्री यंत्र के निर्माण के समान ही इसका पूजन भी श्रम साध्य होने के साथ साथ विशेष तेजस्विता की अपेक्षाभी रखता है। कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने के लिए श्रेष्ठ मुहूर्त का होना भी अनिवार्य होता है। श्री यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा केनिमित्त श्रेष्ठतम मुहूर्तों पर एक दृष्टिपात करते हुए पूजन विधि पर प्रकाश डालने का प्रयास करूंगा।
♦ श्रेष्ठ मुहूर्त :
श्री यंत्र के निर्माण व पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहुर्त है कालरात्रि अर्थात दीपावली की रात्रि । इस रात्रि मे स्थिरलग्न मे यंत्र का निर्माण व पूजन संपन्न किया जाना चाहिये। इसके बाद माघ माह की पूर्णिमा, शिवरात्रि, शरद पूर्णिमा, सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण का मुहूर्त श्रेष्ठ होता है। यद्यपि ग्रहण को सामान्यतः शुभ कर्मों के लिए प्रयोग नही किया जाता इसलिए यहां संदेह होना स्वाभाविक है, मगरश्री विद्या पूर्णते तांत्रोक्त विद्या है तथा तांत्रोक्त साधनाओ के लिए ग्रहण को श्रेष्ठतम मुहूर्त मान गया है। उपरोक्त मुहूर्तों के अलावा अक्षय तृतीया, रवि पुष्य योग, गुरू पुष्य योग, आश्विन माह को छोडकर किसीभी अमावस्या या किसी भी पूर्णिमा को भी श्रेष्ठ समय मे यंत्र निर्माण व पूजन किया जा सकता है। यहां मै यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य समझता हूं कि, सभी तांत्रोक्त विधानों की तरह, यदि श्री यंत्र कानिर्माण तथा पूजन करने वाला, श्री विद्या का सिद्ध साधक या गुरू हो, तो उनके द्वारा निर्दिष्ट समय उपरोक्तमुहूर्तों से भी ज्यादा श्रेष्ठ तथा फलदायक होगा. किसी भी पूजन की विधि से ज्यादा महत्व पूजन को संपन्न करानेवाले साधक की साधनात्मक तेजस्विता का होता है। यदि पूजनकर्ता की साधनात्मक उर्जा नगण्य है तो पूजन औरप्राण-प्रतिष्ठा अर्थहीन हो जाएगी। इसलिए श्री यंत्र के पूजन से पहले पूजनकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि, वह कमसे कम एक बार श्री विद्या या महालक्ष्मी मंत्र का पुरश्चरण पूर्ण कर चुका हो।
♦ पूजन विधि :
सबसे पहले शुद्ध जल से स्नान करके पूर्व दिशा की ओर देखते हुए बैठ जाये। सामने यंत्र को स्थापित करे।
1. सर्वप्रथम क्क श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमे’ से आचमन करे। 2. पवित्री करण करे। 3. संकल्प ले अपनी कामना को व्यक्त करे। 4. भूमि पूजन करे। 5. गणपति पूजन करे। 6. भैरव पूजन करे। 7. गुरू पूजन करे। 8. भूतशुद्धि करे, इसके लिए पुरूष सूक्त का पाठ करे। 9. घी का दीपक जलाये। 10. ऋष्यादिन्यास। करन्यास तथा अंगन्यास संपन्न करे। 11. श्री विद्या का ध्यान करने के बाद श्री सूक्त के सोलह पाठ संपन्न करे। 12. इसके पश्चात लक्ष्मी सूक्त का एक पाठ संपन्न करे। 13. श्री सूक्त के सोलह श्लोकों से श्री यंत्र का षोडशोचार पूजन संपन्न करे। 14. प्रत्येक श्लोक के साथ यंत्र के मध्य मे केसर से बिंदी लगायें जैसे आप षोडशी की सोलह कलाओ को वहांस्थापित कर रहे हो । 15. अंत मे श्री सूक्त के सोलह श्लोकों के साथ आहुति संपन्न करे। विधान १००० बार पाठ तथा १०० बार हवन का है। 16. इसमे प्रत्येक श्लोक के साथ स्वाहा लगाकर आहुति देगे।